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समाचार की दुनिया: धीरे-धीरे बदल रहा है सब कुछ...

सब कुछ बदल रहा है धीरे-धीरे। समाचारों की दुनिया भी ठंडी हो रही है। एक वक़्त था जब राज्यसभा चैनल देखने की लालसा रहती थी। लेकिन जब से अंसारी साहब गये और वेंकैया नायडू आये, हरे सावन में जैसे पतझड़ चला आया। लगा सब बर्बाद! अब राज्यसभा चैनल में क्या रखा है। जैसे अचानक किसी के तेवर बदल जाते हैं वैसे ही आजकल अपने प्रिय चैनलों और कार्यक्रमों में देखने को मिल रहा है। जैसे हर कोई पूछ रहा हो कब तक और वही ख़ुद से जवाब दे रहा हो, देखते हैं कब तक। तब तक खींचो, सावधानी से खींचो। लोग एनडीटीवी का प्राइम टाइम रवीश के लिए खोलते हैं। निराश होते हैं। देखते हैं तो देखते हैं वरना चैनल बदल लेते हैं।

लेकिन ऐसा नहीं है कि वातावरण पूरी तरह निराशावादी हो चला है। अभी भी 'सत्य हिंदी' के विश्लेषण सुनने लायक होते हैं। 'वायर' के कार्यक्रम भी ठीकठाक चल रहे हैं।

लेकिन आवाज़ जैसे कुंद होती जा रही है। अभिसार शर्मा का अक्खड़पन न जाने कहाँ ग़ायब हो गया। वह तो पटल से ही ग़ायब हैं। एक अपने उर्मिलेश जी हैं जो उसी तेवर से डटे हुए हैं। इस बार का 'हफ़्ते की बात' और 'मीडिया बोल' सुनने लायक था। बढ़िया विश्लेषण था- 'क्या भारत को 'हिंदू राष्ट्र' बनाने की कोशिश करेगी मोदी सरकार।’ इस सरकार की संभावनाओं और आशंकाओं को लेकर। मीडिया बोल में अपूर्वानंद, मुकेश कुमार और लेखक पत्रकार अनिल यादव (की परिचर्चा)। विपक्ष ने न्यूज़ चैनलों का बहिष्कार किया है। वह कितना सही और कितना ग़लत है। इस बहाने मीडिया या चैनलों पर बात हुई।

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‘वायर’ पर अपूर्वानंद जी ने ईद के बहाने जयश्री शुक्ला से बात की। काफ़ी दिलचस्प अनुभव जयश्री के (रहे)। ऐसा भी होता है कि बस निकल जाओ और फिर तो शहजानाबाद की वह दुनिया ही दुनिया। किसी से भी बतियाओ, देखो और वहाँ की तसवीरें खींचो जो हर वक़्त कुछ न कुछ बोलती दिखती हैं।

नयी शिक्षा नीति पर पुण्यप्रसून वाजपेयी का विश्लेषण बहुत बढ़िया और रोचक रहा।

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इस कोने में उम्मीद के कण हैं...

'सत्य हिंदी' के कार्यक्रमों में काफ़ी मेहनत लगी दिखती है और ये खोजपरक दिखायी देते हैं। ये कार्यक्रम उत्सुकता जगाए रहते हैं। और एक ख़ूबी यह भी दिखाई देती है कि हर विषय में दखल भी रखते हैं। लेकिन शीतल प्रसाद सिंह को चाहिए कि धीमी आवाज़ में बात रखें। वे ऐसा कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए लगते हैं जैसे कोई स्पर्धा या अवार्ड सेरेमनी हो! ऐसे ही आशुतोष नमस्कार करते हैं तो ‘का’ को इतना खींच लेते हैं जैसे कोई तूफ़ान आयेगा! देखिए रवीश को - 'नमस्कार, मैं रवीश कुमार'। धीमे से, सरलता से। ख़ैर, अपना-अपना अंदाज़। अपनी-अपनी बात। हल्के से चुभा तो लिख दिया। आदत है। 

जैसे आरफ़ा अगर शब्दों के पर्यायवाची की खोज छोड़ दें तो उम्दा विश्लेषण हो। विनोद दुआ की सुई 'ठीक है' पर अटक जाती है। सब चुकता-सा जा रहा है। उम्मीद कहाँ है? योगेंद्र यादव जी से विस्तार से बात हुई फ़ोन पर। इस कोने में उम्मीद के कण हैं। वे सिमट कर स्वरूप लें तो कुछ नया बने। बाक़ी तो सब लगता है हाँका जा रहा है।

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क़मर वहीद नक़वी

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