सब कुछ बदल रहा है धीरे-धीरे। समाचारों की दुनिया भी ठंडी हो रही है। एक वक़्त था जब राज्यसभा चैनल देखने की लालसा रहती थी। लेकिन जब से अंसारी साहब गये और वेंकैया नायडू आये, हरे सावन में जैसे पतझड़ चला आया। लगा सब बर्बाद!
मतदान की समाप्ति के बाद एग्ज़िट पोल पर चर्चाएँ जारी हैं। लेकिन इन सबमें एक चीज पर जो चर्चा नहीं हो रही है वह है मीडिया की भूमिका। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर चर्चा क्यों नहीं?
गृह मंत्री राजनाथ सिंह के एक भाषण का ज़िक्र किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि मीडिया को सरकार के प्रति शत्रुता का भाव नहीं रखना चाहिए। राजनाथ सिंह किस तरफ़ इशारा कर रहे थे, यह साफ़ है।
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि सरकार और मीडिया को हमेशा एक-दूसरे का विरोधी होना चाहिए, यह सही मानसिकता नहीं है। गृह मंत्री का यह बयान संविधान विरोधी है।
सुप्रीम कोर्ट को आज बताना था कि अयोध्या का मामले की सुनवाई कौन करेगा। लेकिन टीवी चैनल सुबह से गाए जा रहे थे कि अयोध्या मामले में आज बहुत बड़ा कुछ होगा। तो क्या बीजेपी से भी ज़्यादा जल्दी टीवी चैनलों को है?
यदि क्रिश्चन मिशेल द्वारा पूछताछ में सोनिया गाँधी का नाम लेने से वे संदिग्ध हो जाती हैं तो सहारा-बिड़ला काग़ज़ात में मोदी जी का नाम आने से वे संदिग्ध क्यों नहीं होते?
क्या वह दिन आ गया है जब टीवी स्टूडियो में गोलियाँ चलेंगी और लाशें गिरेंगी? यह आशंका 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले पूरी हो जाए तो भी हैरान मत होइएगा। ज़ी टीवी के एक कार्यक्रम के दौरान कुछ यूँ हुआ।
जो माहौल आजकल बन गया है टीवी डिबेट का और राजनीतिक पार्टियों की तरफ़ से जिस तरह के टीवी पैनलिस्ट भेजे जाते है, उससे इस आशंका को सच होने में टाइम नहीं लगेगा।
टि्वटर के सीईओ जैक डोरसी पर लोगों ने एक जाति विशेष पर हमला करने का आरोप लगाया है। विशेषज्ञों का कहना है कि टि्वटर को ऐसी नकारात्मकता को खत्म करने की ज़रूरत है।
अखबार घरानों और वैचारिक रूप से विरोधियों को निशाने पर लाने के लिए तरह तरह के तरीके अपना रही है मोदी सरकार। जो इससे असहमति दिखाते हैं, उन्हें वह आंख दिखाती है।