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किन किसानों की आमदनी दुगनी करना चाहती है सरकार?

एग्रीस्टैक का यह डेटाबेस लैंड रिकॉर्ड आधार पर तैयार किया जा रहा है इसलिए यह डर भी है कि इससे भारत में किसानों की परिभाषा बहुत सीमित हो जाएगी। किसान संगठनों का कहना है कि इसके आधार पर तो किसान सिर्फ़ वही माने जाएंगे जिनके पास छोटा या बड़ा ज़मीन का कोई टुकड़ा है। 
हरजिंदर

तीन कृषि क़ानूनों के बाद किसानों के असंतोष की एक नई आशंका उभरती दिख रही है- एग्रीस्टैक जिसे नेशनल फार्मर्स डेटाबेस भी कहा जा रहा है। अभी तक जो जानकारी मिली है उसके हिसाब से सरकार देश भर के किसानों का एक विशाल डेटाबेस तैयार करवा रही है। अभी इसकी एक पायलट परियोजना चल रही है, जिसके तहत दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट उत्तर भारत के एक सौ गाँवों का डेटाबेस बनाकर उसका परीक्षण कर रही है। इसकी कुछ ज़िम्मेदारी नागपुर के एक स्टार्टअप को भी दी गई है। यह डेटाबेस ज़मीन की मिल्कियत के दस्तावेज़ यानी खतवा खतौनी के आधार पर बनाया जा रहा है।

जिसे लेकर पिछले कुछ महीनों से पहला विवाद तो यह उठ रहा है कि देश के किसानों की ज़मीन जायदाद की जानकारी एक निजी और बहुराष्ट्रीय कंपनी के हवाले कैसे की जा सकती है। 

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अभी चंद रोज पहले ही कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने संसद में दिए गए एक लिखित जवाब में बताया है कि यह काम किसी निजी कंपनी के हवाले नहीं किया जा रहा और इसे केंद्र सरकार के इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग को सौंपा गया है। हालाँकि इस जवाब से यह साफ़ नहीं है कि इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग इस पूरे काम को खुद ही करेगा या फिर इसके कुछ हिस्सों को आउटसोर्स करवाया जाएगा। जैसा कि इन दिनों चलन है।

एग्रीस्टैक डेटाबेस का यह काम आईडिया यानी इंडियन डिजिटल ईकोसिस्टम ऑफ़ एग्रीकल्चर के तहत तैयार होगा। इन दोनों की ही सिफारिश उस समिति ने की थी जिसे केंद्र सरकार ने किसानों की आय दुगनी करने के लिए नियुक्त किया था। ये दोनों सुझाव 2012 में सौंपी गई उसकी 12 खंडों की रिपोर्ट का हिस्सा थे। इस डेटाबेस को किसानों की आय दुगनी करने के प्रयासों का एक महत्वपूर्ण क़दम कहा जा रहा है। यह माना जा रहा है कि इसके आधार पर ही सरकार किसानों को विभिन्न योजनाओं के तहत दी जाने वाली मदद और सब्सिडी वगैरह देगी।

ऐसी योजनाओं और मदद में किसान सम्मान निधि, फसल बीमा योजनाएँ, उम्दा संरक्षण कार्यक्रम, किसानों के खाते में सीधे जमा होने वाली उर्वरक सब्सिडी वगैरह शामिल हैं।

यह डेटाबेस लैंड रिकॉर्ड आधार पर तैयार किया जा रहा है इसलिए यह डर भी है कि इससे भारत में किसानों की परिभाषा बहुत सीमित हो जाएगी। किसान संगठनों का कहना है कि इसके आधार पर तो किसान सिर्फ़ वही माने जाएंगे जिनके पास छोटा या बड़ा ज़मीन का कोई टुकड़ा है।

जबकि अभी तक हम भारत में जब किसान कहते हैं तो इसमें ज़मीन की मिल्कियत वाले लोग भर नहीं होते। इसमें वे लोग भी होते हैं जो बंटाईदार हैं। इसमें सबसे बड़ा तबक़ा खेतिहर मज़दूरों का है।

agristack for agriculture raises concerns as govt targets doubling farmers income - Satya Hindi

डेयरी उद्योग में लगे लोगों को भी किसान माना जाता है, जबकि उनके पास अक्सर ज़मीन की कोई मिल्कियत नहीं होती। यही हाल उन लोगों का भी है जो मछली पालन में लगे हुए हैं। 

महिला संगठनों का कहना है कि बड़ी मुश्किल से हम उस स्थिति में पहुँचे हैं जहाँ खेतों में काम करने वाली महिलाओं को किसान माना जाने लगा है। लेकिन अब शायद वे किसान नहीं मानी जाएंगी क्योंकि देश में ज़मीन की मिल्कियत तो आमतौर पर पुरुषों के नाम पर ही दर्ज होती है।

इस डेटाबेस के आधार पर काम शुरू होने का अर्थ होगा कि इसके बाद ये सभी लोग सरकारी योजनाओं के लाभ और सरकार की तरफ़ से मिलने वाली मदद से वंचित हो जाएँगे। सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि सरकार आख़िर किन किसानों की आमदनी को दुगना करना चाहती है?

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कई किसान संगठनों और कुछ नागरिक अधिकार संगठनों ने इन सवालों को पिछले कुछ महीनों में विभिन्न मंचों पर उठाया है लेकिन सरकार की तरफ़ से अभी तक कोई सफाई नहीं आई। संसद में दी गई सफाई भी सिर्फ निजी या बहुराष्ट्रीय कंपनी को काम सौंपे जाने के लेकर है। बाक़ी सवाल अभी अनुत्तरित हैं। कृषि मंत्री का बयान यह भी बताता है कि सरकार इस काम को जल्द ही पूरा कर लेना चाहती है। अगले आम चुनाव से पहले तो यह किसी भी तरह से सिरे चढ़ेगा ही।
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हरजिंदर

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