बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा के पूर्व सांसद पवन वर्मा के बाद पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर को भी खुली चेतावनी दे डाली। नीतीश कुमार ने कहा कि प्रशांत किशोर अगर पार्टी छोड़कर जाना चाहते हैं तो जाएँ। यहाँ ट्विटर की राजनीति नहीं चलती। पार्टी में रहना है तो उन्हें पार्टी लाइन पर चलना होगा। नीतीश ऐसी ही चेतावनी पवन वर्मा को भी दे चुके हैं। जनता दल यूनाइटेड की बैठक के बाद नीतीश ने चेतावनी तो दी, लेकिन पवन वर्मा या प्रशांत किशोर के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई अब तक नहीं की गई है। वास्तव में नीतीश नाराज़ हैं या फिर उनकी चेतावनी पार्टी की रणनीति का हिस्सा है? इसे समझने के लिए पार्टी के ताज़ा विवाद पर ग़ौर करना ज़रूरी है।
जनता दल यूनाइटेड में बाग़ी सुर सिर्फ़ कुछ नेताओं की जुबानी जुगाली है या फिर पार्टी किसी वैचारिक अंतरद्वंद्व से गुज़र रही है। पार्टी के पूर्व राज्यसभा सदस्य पवन वर्मा थोड़ा शांत हुए तो राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर शुरू हो गए हैं। प्रशांत पटना में उप मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता सुशील मोदी पर निशाना साध रहे हैं तो दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह उनके रडार पर हैं।
वैसे, प्रशांत किशोर की कंपनी आइ पैक (इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी) दिल्ली में आम आदमी पार्टी का चुनाव कैम्पेन संभाल रही है। पवन वर्मा और प्रशांत किशोर, दोनों ही तब से नाराज़ चल रहे हैं जब जनता दल यूनाइटेड ने कश्मीर के अनुच्छेद 370 में फेरबदल के मुद्दे पर बीजेपी का समर्थन किया। बाद में नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी पर दोनों का बाग़ी सुर सप्तम पर पहुँच गया। यह पहला मौक़ा है जब पवन और प्रशांत ने सीधे तौर पर नीतीश कुमार को चुनौती दे डाली है। और नीतीश के सामने वैचारिक चुनौती भी रख दी है।
दरअसल हाल के घटनाक्रमों पर नीतीश ख़ुद भी असमंजस की स्थिति में दिखायी दे रहे हैं। उनकी पार्टी ने नागरिकता क़ानून पर संसद में बीजेपी का साथ दिया, लेकिन जब जगह-जगह इसको लेकर विरोध होने लगा तब नीतीश ने धीरे से कहा कि इस पर पुनर्विचार होना चाहिए। इसी तरह उन्होंने साफ़ करने की कोशिश की कि बिहार में एनआरसी को लागू नहीं किया जाएगा। लेकिन वह अपनी ही पार्टी के नेताओं के खुले विरोध को स्वीकार करने के लिए तैयार दिखायी नहीं दे रहे हैं। उन्होंने पवन वर्मा को सलाह दे डाली कि अगर पार्टी छोड़ कर जाना चाहते हैं तो जा सकते हैं। मान मनौव्वल की कोई भी कोशिश नहीं हुई। नीतीश का दर्द इस बात पर छलका कि पवन वर्मा ने उनसे बात नहीं की। पार्टी फ़ोरम में भी बात नहीं की। सीधे लेटर बम फोड़ डाला।
बहरहाल, स्थितियाँ ऐसी बन रही हैं कि पवन वर्मा और प्रशांत किशोर दोनों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। लेकिन इन नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने भर से जनता दल यूनाइटेड का संकट समाप्त होता हुआ दिखायी नहीं देता है। बिहार में जेडीयू का आधार मुसलमान मतदाताओं के एक एक वर्ग पर भी टिका हुआ है। नीतीश की पार्टी मुसलिम-दलित एकता की पैरोकार भी रही है। नागरिकता संशोधन क़ानून और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर बिहार में भी राजनीतिक खलबली है। राज्य के कई हिस्सों में इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो चुके हैं। समाजवादी बैकग्राउंड से होने के कारण ख़ुद नीतीश कभी भी धार्मिक भेदभाव का समर्थन नहीं करते, इसलिए उदार मुसलमान उनका समर्थक रहा है।
बीजेपी के साथ रहने के बावजूद नीतीश पर साम्प्रदायिकता का लेबल कभी नहीं लगा। लेकिन नागरिकता संशोधन क़ानून और अनुच्छेद 370 में बदलाव से पहले ऐसा कोई बड़ा मुद्दा भी नहीं था जब सीधे तौर पर इस पार या उस पार का फ़ैसला करने की ज़रूरत पड़ी हो।
बिहार विधानसभा का चुनाव नवंबर में होना है। इस लिहाज़ से ताज़ा राजनीतिक घटनाक्रम महत्वपूर्ण हो गए हैं। अति पिछड़ा और अति दलित के साथ-साथ मुसलमान और कुछ सवर्ण जातियाँ नीतीश का सबसे बड़ा संबल हैं। मुसलमान अगर पूरी तरह से छिटक जाएँ तो नीतीश का आधार कमज़ोर हो सकता है। उनके विरोधी इसकी तैयारी में जुट गए हैं। राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो तेजस्वी यादव इस मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए तत्पर दिखायी दे रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव ने माई यानी मुसलिम-यादव का गठजोड़ बनाकर बिहार में क़रीब 15 सालों तक राज किया। नीतीश ने अति पिछड़ा और अति दलित का नया समीकरण बनाया तो लालू का माई समीकरण पिछड़ने लगा। और फिर आया नीतीश युग। लेकिन उनके साथ बीजेपी को भी अपना आधार बढ़ाने का मौक़ा मिला।
शाह ने बिहार में नीतीश को अपना नेता क्यों माना?
बिहार का सवर्ण बहुमत बीजेपी के साथ दिखाई देता है। लेकिन सवर्ण अपने दम पर सरकार नहीं बना सकते। शायद यही कारण है कि गृह मंत्री अमित शाह कई बार घोषणा कर चुके हैं कि बिहार का चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। बीजेपी में नीतीश के धुर विरोधी गिरिराज सिंह और संजय पासवान जैसे नेताओं को लगभग चुप करा दिया गया है। बीजेपी की तरफ़ से उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी लगातार नीतीश कुमार का बचाव करते आए हैं। लेकिन नीतीश के सहयोग ही बाग़ी होने लगें तो फिर क्या किया जाए?
झारखंड विधानसभा का नतीजा आने के बाद नीतीश की पार्टी में बीजेपी विरोधियों का तेवर और ज़्यादा कड़ा हुआ। प्रशांत किशोर ने ही सबसे पहले माँग रखी थी कि विधानसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड को ज़्यादा सीटें मिलें। उन्होंने लोकसभा चुनाव जैसे समझौते को दरकिनार कर दिया।
लोकसभा चुनाव में बीजेपी और जदयू बराबर सीटों पर लड़े थे। झारखंड विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों को किनारे करके अकेले लड़ने का प्रयोग किया और बुरी तरह हार गई। इस हार के बाद बीजेपी नेता तो संभल गए कि बिहार में नीतीश के बिना चुनाव की नाव पार नहीं हो पाएगी, लेकिन नीतीश के सहयोगी महत्वाकांक्षी हो गए।
जदयू के कई नेता मानते हैं कि अगर विधानसभा में जदयू से ज़्यादा सीटें बीजेपी को मिलीं तो नीतीश की मुख्यमंत्री की कुर्सी ख़तरे में पड़ सकती है। इसलिए ज़्यादा सीटें जीतना नीतीश की पार्टी की अनिवार्यता बनती जा रही है।
नीतीश के कुछ और विरोधी भी मौक़ा देखकर उछलने लगे हैं। इनमें एक हैं पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी। मांझी आजकल मनुस्मृति और जातिवाद पर खुल कर बोल रहे हैं। मक़सद लगता है दलितों और मुसलमानों की धुरी बना कर अपनी स्थिति मज़बूत करना। ऐसे में पवन वर्मा और प्रशांत किशोर के बाग़ी तेवर से आभास मिलता है कि जदयू में विचारधारा को लेकर संकट मौजूद है।
हाल के चुनाव नतीजों के संकेत क्या?
विधानसभा चुनाव में अभी लंबा समय बाक़ी है। लेकिन हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव नीतजों से संकेत मिलता है कि बीजेपी का हिन्दू राष्ट्रवाद या पाकिस्तान विरोधी अभियान चुनाव जीतने का मंत्र नहीं हो सकता है।
साल 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद एक धारणा बनी थी कि हिन्दू राष्ट्रवाद से बीजेपी का विस्तार जारी रहेगा। पर अब लग रहा है कि विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दे और स्थानीय समीकरण ज़्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
फ़रवरी में दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद स्थिति थोड़ी और साफ़ होगी। दिल्ली में बीजेपी अपने हिन्दूवाद, राष्ट्रवाद और मुसलिम विरोधी एजेंडे पर सिमटती दिखाई दे रही है। और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल सीधे तौर पर स्थानीय विकास के मुद्दों के सहारे खड़े हैं।
दिल्ली में बिहार से आए मतदाताओं की संख्या बहुत बड़ी है। बीजेपी और आम आदमी पार्टी दोनों ही बिहारी मतदाताओं के भरोसे दिखाई दे रहे हैं। ज़ाहिर है कि दिल्ली के नतीजों का सीधा संबंध बिहार से जोड़ा जाएगा। तब बिहार में ध्रुवीकरण और तेज़ होगा।
बहरहाल, नागरिकता संशोधन क़ानून जैसे मुद्दों पर नीतीश की दुविधा ने उनके विरोधियों को हमला का एक नया मौक़ा दे दिया है। नीतीश क़रीब 15 सालों से मुख्यमंत्री हैं। उनकी अपनी ईमानदार छवि उनकी सबसे बड़ी ताक़त अब भी बनी हुई है, लेकिन 15 सालों के शासन के बाद पार्टी के तेज में कुछ कमी ज़रूर दिखाई देती है। पार्टी के भीतर से विरोध के कारण उनके विरोधियों का हौसला ज़रूर बुलंद हो रहा है। पवन और प्रशांत जैसे विरोधियों की समस्या का राजनीतिक हल निकाल कर ही नीतीश अपनी साख बचा सकते हैं।
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