और बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन कर दिया गया। हज़ारों की तादाद में मज़दूर पैदल चले जा रहे हैं। मेरे ज़हन में आज़ादी के समय हुए देश विभाजन की तसवीर ताज़ा हो गयी। अतीत अपने को दोहरा रहा है। बच्चों, औरतों, बुजुर्गों, नौजवानों का रेला चला जा रहा है। कई किलोमीटर की दूरी तय कर ये अपने अपने गाँव, घर पहुँचने के लिए दिन-रात चल रहे हैं।
इनकी यंत्रणा दोहरी है। मीलों पैदल चलकर घर आए कई लोगों को गाँव के मुहाने पर ही रोक दिया गया है। कोरना ने इन्हें निर्वासन का दंड दिया है। सरकारी इंतज़ाम इतना बुरा है कि इनमें से अधिकांश लोगों ने वहाँ रहने से इनकार कर दिया है।
सरकार के बयान के अनुसार बिहार में अब तक देश के दूसरे हिस्से से 1 लाख 80 हज़ार लोग वापस अपने घर लौटे हैं। राज्य के 386 पंचायतों में 6907 क्वरेंटाइन सेंटर बनाए गए हैं जिनमें 886 बेड हैं। अभी तक 416031 लोगों को, जो बाहर से आयें हैं, उन्हें जाँच के लिए भेजा गया है। इसके बावजूद हालात बहुत बुरे हैं। सिवान के सिविल सर्जन ने डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ़ की कमी को देखते हुए सभी झोला-छाप डॉक्टरों (क्वेक) को अस्पताल से जोड़ने का आदेश जारी किया था जो काफ़ी हंगामे के बाद वापस लिया गया। गया ज़िले के बाराचट्टी प्रखंड में एक वीडियो काफ़ी वायरल हुआ जिसमें जाँच के नाम पर लोगों का नाम-पता लिखकर छोड़ दिया जा रहा है। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत किसी से छुपी नहीं है।
2011 की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार के 55 लाख लोग देश के विभिन्न राज्यों में हैं। जिनमें ज़्यादातर कामगार मज़दूर हैं। 2011 से अब तक बाहर जाने का सिलसिला रुका नहीं है। काम की तलाश में बिहार से मज़दूरों का पलायन जारी था। जब बिना किसी तैयारी के सरकार ने लॉकडाउन किया तो इस फ़ैसले से सबसे ज़्यादा प्रभावित मज़दूर ही हुए। रोज़ कमाने और खाने वाले मज़दूरों के पास अपने गाँव-शहर लौटने के अलावा दूसरा रास्ता क्या है। मकान का किराया, हर रोज़ का राशन, बिजली, पानी के लिए ये कहाँ से पैसे जुगाड़ करते। केन्द्र सरकार ने अगर लॉकडाउन के पहले मज़दूरों के लिए कुछ घोषणा की होती तो आज ये दर-बदर नहीं होते।
मज़दूर सरकार की चिंता में सबसे निचले पायदान पर हैं। इस देश का मध्य और उच्य वर्ग इस बीमारी के लिए उनपर दोष मढ़ रहा है।
लेकिन बीमारी का इतिहास बताता है कि महामारियों के प्रसार की वाहक ग़रीब व आम जनता नहीं होती, ये प्राय: धनी, आगे बढ़े हुए लोग, धनाकांक्षी और आगे बढ़ने की चाह में लगे लोग होते हैं। जाने माने लेखक बद्री नारायण ने अपने एक लेख में कहा है ‘कोरोना वायरस या कोविड-19 हमारे देश में संपन्न समूह, विदेश में नौकरी करने वाले प्रवासियों, और अक्सर विदेश यात्रा करने वाले गायकों वगैरह के माध्यम से आया’।
यह बात सही है। इस बीमारी ने पूंजीवाद का भयानक चेहरा दिखा दिया। अगर ग़रीबों में यह बीमारी होती तो आज देश में कोरोना का यह दहशत नहीं होता। यह भी सच है कि इस बीमारी का अगर ग़रीबों में फैलाव हुआ तो दुनिया को बचाना मुश्किल होगा। देश के अलग-अलग हिस्सों से आ रहे मज़दूरों के लिए सरकार का इंतज़ाम अच्छा नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बार-बार अपना बयान बदल रहे हैं। पहले उन्होंने मज़दूरों से जो जहाँ है वहीं रुकने की अपील की थी, फिर जब बड़ी तादाद में मज़दूर अपने घर के लिए निकल पड़े तब उन्हें घोषणा करनी पड़ी, हालात अच्छे नहीं हैं। मज़दूरों को उनके घर भेजने के लिए बसों की सुविधा काफ़ी कम है। भेड़-बकरियों की तरह लाद कर उन्हें भेजा जा रहा है।
मुख्यमंत्री ने आदेश दिया है कि लॉकडाउन में फँसे बिहार के लोगों को आवास और चिकित्सा की सुविधा मुख्यमंत्री राहत कोष से दी जाएगी। फिर भी राहत उन तक नहीं पहुँच पा रही है। सभी ग़रीब और मज़दूरों को दो माह का राशन मुफ़्त देने की सरकारी घोषणा के बावजूद राशन की दुकानों में राशन नहीं आया है। सबसे बड़ी मुश्किल है इस बीमारी को लेकर लोगों के भीतर भय। इतनी परेशानी झेल कर अपने गाँव, शहर पहुँच रहे मज़दूरों को उनके गाँव में घुसने नहीं दिया जा रहा है। वे सिर्फ़ भूख से ही नहीं, बल्कि बीमारी, भय और अपमान से भी लड़ रहे हैं।
बिहार की इतनी बड़ी आबादी के लिए सिर्फ़ तीन जगह कोरोना वायरस के जाँच के इंतज़ाम हैं। आरएएमआरआई, आईजीएमएस और दरभंगा मेडिकल कॉलेज। आँकड़े कहते हैं कि प्रति एक लाख आबादी पर सिर्फ़ तीन लोगों की जाँच की सुविधा है।
हज़ारों लोग जो अपनी जगह लौट आए हैं, जिन हालातों में यहाँ पहुँचे हैं, उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। इनकी मानसिक हालत क्या है? भीड़ की वजह से ये किस तरह की बीमारी के शिकार हुए हैं इसका भी कोई आकलन सरकार के पास नहीं है।
बिहार की सबसे बड़ी चुनौती है- इस बीमारी और भूख से लड़ना। सरकार इन दोनों मोर्चों पर असफल है। ये मज़दूर नहीं जानते कि आने वाले समय में इनकी ज़िंदगी में क्या होगा? ये अगर भूख से बचेंगे तो बीमारी से मरेंगे। बीमारी से लड़ते हुए भूख से मरेंगे। मज़दूरों ने हार नहीं मानी है। वे लड़ रहें हैं ज़िंदगी के लिए। वे गहरी उदासी और दुःख से भीगे हुए हैं। दुःख के समय भी आशा की एक किरण जगमगाती है। लेकिन वे जानते हैं कि इस बीमारी से लड़ना आसान नहीं है, उन्हें इस बात का सुकून है कि वे अपनों के बीच लौट आए हैं। मरेंगे तो अपनी ज़मीन की मिट्टी नसीब होगी।
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