राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को जब भी सत्ता में आने का मौक़ा मिलता है, उनके नेता ‘इतिहास के पुनर्लेखन’ को काफ़ी महत्व देते हैं। इतिहास के पुनर्लेखन के उनके आह्वान के दो महत्वपूर्ण पहलू होते हैं-जहाँ उन्हें असहज लगता है, वे गली-मोहल्ले-गाँव-नगर से लेकर रेलवे स्टेशनों और स्कूलों-विश्वविद्यालयों के नाम अपनी पसंद के रखना शुरू कर देते हैं।
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दूसरा यह कि इतिहास की तथ्य-आधारित पुस्तकों की जगह वे अपने मन-आधारित इतिहास लेखन के लिए अभियान चलाते हैं। दिक्क़त यह है कि उनके पास लिखने-पढ़ने वाले लोगों की भारी किल्लत है।
इतिहास-लेखन जैसा बड़ा दायित्व निभाना प्रवचकों-कथावाचकों और टीवी चैनलों पर उत्तेजक और सतही किस्म की बयानबाजी करने वाले उनके प्राध्यापकों या प्रवक्ताओं के बूते की बात नहीं!
स्तरहीन बौद्धिकों का संकट
यही कारण है कि संघ-बीजेपी सत्ता का फ़ायदा उठाकर कॉरपोरेट मीडिया पर तो आसानी से कब्जा कर लेते हैं, पर गंभीर बौद्धिक लेखन के क्षेत्र में उनकी दाल नहीं गलती। उनके कथित बौद्धिकों या उनके लुग्दी लेखन की देश या विदेश के बौद्धिक क्षेत्र में कही कोई स्वीकृति नहीं मिलती। मैग्सेसे या नोबेल पाने की बात तो बहुत दूर रही, उनके कथित बौद्धिकों का स्तर इतना भी नहीं होता कि उनके लेखन को किसी गंभीर और गरिमापूर्ण सम्मान के योग्य समझा जाय। तब वे स्वयं ही नयी-नयी सम्मान योजना शुरू कर एक-दूसरे को सम्मानित करने लगते हैं। कहीं कोई पत्रकारिता का ‘नारद सम्मान’ देने लगता है तो कहीं किसी अन्य तरह के लेखन का ‘सावरकर सम्मान’।संघ-बीजेपी के नेता अपनी इस कमज़ोरी को अच्छी तरह पहचानते हैं। इसलिए सत्ता में प्रचंड बहुमत के साथ दोबारा आने के बाद इस बार उनका ज़ोर प्रतिष्ठित शासकीय संस्थानों, विश्वविद्यालयों और अन्य शोध संस्थानों में पहले से काम कर रहे बौद्धिकों का इस्तेमाल करने पर है। उन्हें लगता है कि अपने अजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए प्रलोभन और भय के ज़रिये बड़े संस्थानों का भरपूर इस्तेमाल किया जा सकता है। यह महज संयोग नहीं कि इस बार सत्ताधारी दल के किसी बड़े नेता द्वारा इतिहास के पुनर्लेखन का आह्वान संघ या बीजेपी की किसी बैठक या सम्मेलन में नहीं किया गया। यह आह्वान देश के एक महत्वपूर्ण केंद्रीय विश्वविद्यालय-बीएचयू, वाराणसी द्वारा आयोजित इतिहास विषयक एक सेमिनार में किया गया। सत्ताधारी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष और देश के गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि आज इतिहास के पुनर्लेखन के काम मे तेजी लाई जानी चाहिए।
बात सही है, जिस तेज़ी से सड़क के नाम, विद्यालय-विश्वविद्यालय के नाम बदलते हैं, देखते-देखते मुगलसराय जैसा भारत विख्यात रेलवे जंक्शन पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर हो जाता है, उस तेज़ी से इतिहास का पुनर्लेखन कहाँ हो पा रहा है?
बेशक, इतिहास लिखिए, लिखवाइए। वर्तमान की सुसंगत समीक्षा और भविष्य की दिशा तय करने के लिए इतिहास को जानना, समझना ज़रूरी है। पर इतिहास लेखन आप तथ्य-आधारित नहीं चाहते, आप मनमाफ़िक चाहते हैं। असल समस्या यहाँ है।
जब तक कोई लेखक यह नहीं लिखेगा कि अयोध्या में ध्वस्त की गई बाबरी मसजिद के ठीक नीचे ही राजा दशरथ और रानी कौशल्या का ‘बेडरूम’ या ‘गर्भगृह’ हुआ करता था, तब तक आप कैसे मानेंगे कि इतिहास का सही लेखन हुआ है? ऐसे विलक्षण इतिहास लेखक भला कहाँ मिलेंगे, जब तथ्य के बजाय सिर्फ भावना और आस्था की माला जपते हुए इतिहासकार बनने का दुस्साहस करें!
मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ, इसलिए इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि इतिहास चुनावी या सियासी रैलियों में भाँजी जाने वाली कोरी लफ्फ़ाजी नहीं है, जिसमें कोई प्रभावशाली नेता तक्षशिला को बिहार में घुसा दे या देश में मतदाताओं की संख्या 600 करोड़ बता दे, पर भी कोई चूँ नहीं करता!
संघ की भूमिका पर क्या लिखवाएँगे?
बहुत पुरानी बात करने से पहले निकट के इतिहास पर पहले बात करें! भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का पुनर्लेखन कैसे कराना चाहेंगे?साल 1925 में ही देश के महाराष्ट्र में एक 'अति राष्ट्रवादी संगठन' बन गया था। पर स्वतंत्रता की राष्ट्रीय लड़ाई में वह क्या कर रहा था? ऐसे में आप उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या दूसरे समानधर्मा ‘हिन्दू महासभा’ की भूमिका के बारे में क्या-क्या लिखवायेंगे?
यह बात सही है कि आरएसएस के कुछ नेता कुछ समय के लिए कांग्रेस में रहकर स्थानीय स्तर पर आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा बने, पर वे जल्दी ही अलग हो गए थे। बाद में तो संदेश और निर्देश दिए जाने लगे कि कोई भी स्वयंसेवक कांग्रेस के नेतृत्व में चलाए जा रहे शासन-विरोधी अभियान में शामिल न हो। इतिहास की इस इबारत को कैसे धोएँगे, कैसे मिटायेंगे?
तथ्यों को कैसे छुपाएँगे?
यह बात सही है कि विनायक दामोदर सावरकर वर्ष 1911 तक आज़ादी की लड़ाई के सक्रिय सिपाही थे। इसी के चलते उन्हें सज़ा हुई थी। वह 'काला पानी' भेजे गए, अंडमान की सेल्यूलर जेल में। पर कुछ ही समय बाद उन्होंने ब्रितानी हुक़ूमत से माफ़ी माँगने का सिलसिला शुरू कर दिया और इस तरह अपने शानदार अतीत पर अपने ही हाथों कालिख पोत डाली। हुक़ूमत से उन्हें माफ़ी मिली। ख़र्च चलाने के लिए एक निश्चित राशि भी तय कर दी गई। फिर रत्नागिरी में रहते हुए हिन्दू महासभा के लिए उन्होंने क्या क्या काम किए?जिन्ना से भी पहले किस तरह सावरकर ने ‘टू-नेशन की सैद्धांतिकी’ को प्रचारित किया! एक समुदाय विशेष की महिलाओं के साथ बलात्कार तक को पुण्य का काम बताया। आपके पास सत्ता है, प्रचंड ताक़त है, बेशक आप सावरकर को ‘भारत का रत्न’ बता दें, पर उनसे जुड़े इन तथ्यों को कैसे छुपाएँगे?
ब्लैक बोर्ड पर लिखी इबारत नहीं इतिहास!
अब आप ही बताइए, आप के सख्त निर्देश के बावजूद कोई भी 'अति राष्ट्रवादी इतिहासकार' भला इन ठोस तथ्यों पर कैसे पर्दा डाल सकेगा? अगर वह पर्दा डालने की कोशिश भी करे तो क्या ये तथ्य इतिहास से गायब हो जायेंगे? माफ़ करें महाशय, इतिहास किसी ब्लैक-बोर्ड पर लिखी इबारत नहीं कि आप जब चाहे तब उसे मिटा सकते हैं।किसी कथित राष्ट्रवादी इतिहासकार से आप कैसे लिखवायेंगे कि विनायक दामोदर सावरकर इतने 'वीर' थे कि ब्रितानी हुक़ूमत से लड़ते हुए शहीदे आजम भगत सिंह की तरह फाँसी चढ़ गए?
वह इतने 'वीर' थे कि गाँधी, नेहरू, सुभाष, चंद्रशेखर आज़ाद या असंख्य स्वाधीनता सेनानियों की तरह उन्होंने ब्रितानी हुक़ूमत को लगातार टक्कर दी और कभी माफ़ी नहीं माँगी? सावरकर इतने महान विद्वान और विचारक थे कि विदेशी शासन और 'देसी इलीट' से जूझते हुए दलित, आदिवासी और उत्पीड़ित समाज के करोड़ों लोगों के लिए डॉ आंबेडकर की तरह सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त किया! क्या-क्या लिखेंगे और कैसे लिखवायेंगे? और आपके ऐसे इतिहास-लेखन को पढ़ेगा कौन?
गोडसे के बारे में क्या लिखवाएँगे?
क्या यह भी लिखवायेंगे कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम वीर सावरकर की अगुवाई में शुरू हुआ और आरएसएस-हिन्दू महासभा के नेतृत्व में 15 अगस्त, 1947 को आज़ादी हासिल हुई?किसको बताएँगे और पढ़ाएँगे कि आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व 1940 तक आरएसएस प्रमुख हेडगेवार साहब ने और बाद में गोलवलकर साहब ने किया? और नाथूराम गोडसे के बारे में क्या लिखवायेंगे?
नाथूराम के भाई और महात्मा गाँधी की हत्या में सहभागी होने के चलते 18 साल की सज़ा पाए गोपाल गोडसे की इस स्वीकारोक्ति को कैसे मिटायेंगे कि दोनों गोडसे बंधु हिन्दू महासभा से पहले आरएसएस के लिए पुणे और सांगली में सक्रिय थे।
पटेल ने क्या कहा था सावरकर के बारे में?
जिन सावरकर साहब को आप ‘भारतरत्न’ बनाना चाहते हैं, उनके बारे में उस महान लौहपुरुष सरदार पटेल ने क्या कहा था, जिसे आप और आपकी पार्टी इन दिनों जवाहर लाल नेहरू से बड़ा नेता बताकर पेश करती है। कुछ ही समय पहले गुजरात में नर्मदा के किनारे जिनकी ऐसी मूर्ति लगाई गई है, जिसे दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति बताया जा रहा है। उनके संकलित लेखन में सावरकर पर यह टिप्पणी प्रमुखता से दर्ज है। देश के गृहमंत्री के तौर पर उन्होंने महात्मा गाँधी की नृशंस हत्या के बारे में प्रधानमंत्री नेहरू को लिखे पत्र में यह पंक्तियाँ दर्ज की थीः सावरकर की अगुआई में हिन्दू महासभा की यह कट्टरपंथी शाखा है, जिसने साजिश रची और उसे अंजाम तक पहुँचाया।यह भी नहीं भुलाया जा सकता कि गाँधी जी की हत्या के सह-अभियुक्त रहे विनायक दामोदर सावरकर कोर्ट कार्रवाई के दौरान साक्ष्य पेश करने से जुड़ी कुछ तकनीकी चूकों के चलते सज़ा पाने से बच गए थे।
यक़ीनन, आज सत्ता आपके साथ है, पर इतिहास नहीं! इतिहास ज़रूर लिखिए और लिखवाइए। पर लिखने-लिखवाने से पहले इतिहास को पढ़ा जाना चाहिए, सिर्फ़ भारत का ही नहीं, पूरी दुनिया का। जर्मनी, इटली समेत पूरे यूरोप और अमेरिका का भी। पढ़े बग़ैर तो सत्ता-निर्देशित भारतीय टीवी चैनलों की तरह बहस के नाम पर तथ्य और सत्य का सिर्फ़ सतहीकरण होगा!
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