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दलितों-पिछड़ों का आरक्षण ख़त्म करने की वकालत धूर्तता है!

‘अब तक सारी विद्वता ब्राह्मणों के पास रही है। लेकिन दुर्भाग्य है कि आज तक एक भी ब्राह्मण वोल्टेयर जैसी भूमिका निभाने के लिए सामने नहीं आया, न भविष्य में ऐसा हो पाने की संभावना है। वोल्टेयर ख़ुद कैथलिक चर्च की परंपरा में पले-बढ़े लेकिन उनमें बौद्धिक ईमानदारी थी और वह चर्च के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ खड़े हो गए। ये ब्राह्मणों की विद्वता और मेधा पर बहुत बड़ा सवाल है कि उन्होंने एक भी वोल्टेयर क्यों पैदा नहीं किया। यह ध्रुव सत्य है कि प्रत्येक ब्राह्मण, ब्राह्मणवाद का मुकुट धारण किए ही रहेगा, चाहे वह रूढ़िवादी हो या नहीं, वह पुरोहित हो या गृहस्थ विद्वान हो या बुद्धिहीन। ब्राह्मण की बौद्धिकता इसी दायरे में सीमित है और उसे यह चिंता बनी रहती है कि उसका स्वार्थ सिद्ध होता रहे।’

केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित ‘अछूत कौन थे और वे अछूत कैसे बने’ की प्रस्तावना में डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखित यह अंश अब भी शब्दशः सही नज़र आ रहा है जब देश भर में दलितों, पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण को निष्प्रभावी करने की अनेक घटनाएँ आ रही हैं और ब्राह्मण विद्वानों ने वंचितों को मिलने वाले आरक्षण को आर्थिक आधार पर करने का अभियान चला रखा है।

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आरक्षण जातीय आधार पर नहीं

आरक्षण ख़त्म करने के अनेक तर्क रखे जा रहे हैं। पहला तर्क है कि भारतीय संविधान में कोई प्रावधान नहीं है कि जाति आधारित आरक्षण अनिवार्य है। संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में यह कहा गया है कि अनुच्छेद 16 या अनुच्छेद 29 का कोई भी प्रावधान राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों को या अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के उन्नयन के लिए कोई विशेष प्रावधान करने से नहीं रोकता।

अनुसूचित जाति और जनजाति को अंग्रेज़ों के समय ही चिह्नित कर लिया गया था। समाज में जिसे अछूत माना जाता था उन्हें अनुसूचित जाति और जिन्हें घुमंतू माना जाता था उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में चिह्नित कर उन्हें संसद सहित विभिन्न जगहों पर प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान किया गया था।

संविधान के इसी मूल अधिकार के आधार पर अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को चिह्नित किया गया जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए थे। मंडल कमीशन ने तमाम सरकारी और ग़ैर सरकारी संगठनों के विद्वानों से एक मानक तैयार कराया कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का क्या आधार हो और उस आधार पर ओबीसी को चिह्नित किया गया।

यह कहना धूर्तता के सिवा कुछ नहीं है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का चयन जातीय आधार पर किया गया है। ओबीसी का चयन तो बिल्कुल ही जातीय आधार पर नहीं किया गया है क्योंकि अगर ऐसा होता तो उत्तर प्रदेश के गिरि और गोसाईं ब्राह्मण ओबीसी की सूची में शामिल नहीं होते। सर्वे में पाया गया कि गिरि और गोसाईं सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए हैं और उन्हें ओबीसी आरक्षण में शामिल कर लिया गया।

भारत में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान जातीय आधार पर करना आसान है क्योंकि सदियों से यहाँ जातीय आधार पर शोषण होता रहा है और एक बड़ी आबादी को शासन प्रशासन से वंचित रखा गया और महज कुछ जातियों को शासन-प्रशासन का अधिकार दिया गया था।

इसे देखते हुए सामाजिक शैक्षणिक पिछड़े का चयन करने में जाति समूह चिह्नित करने का तरीक़ा अपनाया गया, न कि किसी को कोई जाति विशेष का होने की वजह से संवैधानिक आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

क्या ओबीसी को प्रतिनिधित्व मिल गया?

दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि ओबीसी आज पिछड़े नहीं हैं, (हालाँकि वे 1947 से पहले पिछड़े थे) और इसलिए उनके लिए आरक्षण पूरी तरह अनुचित है। यह नई धूर्तता सामने आई है। इस बात का न तो कोई प्रामाणिक आधार है, न सरकार जातीय जनगणना कराने को तैयार है कि जिन्हें सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानकर आरक्षण दिया गया, 30 साल बाद आज उनकी स्थिति क्या है।

जब यूपीए-1 के शासनकाल में 2008 में केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने की बात हो रही थी तो ब्राह्मण विद्वान पुष्पेश पंत ने लिखा, ‘जिन पिछड़ी जातियों ने अब तक शिक्षा को नकारा, उन्हें अब विशेषाधिकार क्यों दिया जाए?’ हरियाणा व पंजाब के जाटों-सिखों का उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा कि वह तो पढ़ना ही नहीं चाहते और अब सरकारी नौकरियाँ पाने के लिए आरक्षण चाहते हैं। (मंडल कमीशनः राष्ट्र निर्माण की सबसे बड़ी पहल, पेज 22)।

इसके पहले काका कालेलकर ने 1955 में यही बात लिखी थी कि पिछड़े वर्ग को अब सद्बुद्धि आ गई है और वे पढ़ना चाहते हैं तो उनके जाति वाले चंदा जुटाकर स्कूल खोलें और उनको पढ़ाएँ। ब्राह्मणों की वर्गीय हित से जुड़ी इस तरह की जातिवादी टिप्पणियाँ नई नहीं हैं और इसे आरक्षण दिए जाने के बाद शिक्षा और नौकरियों में ओबीसी के मामूली रूप से बढ़ते हुए प्रतिनिधित्व और ब्राह्मण समाज को अपनी कुर्सी छिन जाने का डर ही शायद यह कहलवाने को मजबूर कर रहा है कि ओबीसी अब पिछड़े नहीं रह गए हैं।

हालाँकि उनके पास अब भी इस बात का कोई उत्तर नहीं है कि ओबीसी आरक्षण लागू होने के 30 साल बाद भी केंद्र सरकार की नौकरियों, जाने माने शिक्षण संस्थानों में 80 और 90 प्रतिशत तक ब्राह्मणों का क़ब्ज़ा कैसे बना हुआ है और पिछड़े वर्ग को जगह क्यों नहीं मिल पा रही है। इस बात पर वह चर्चा ही नहीं करना चाहते कि वह कौन सी जाति है जिसने अपनी जातीय दबंगई के कारण हर क्षेत्र में अपनी धांधलियों से क्रीम पदों पर क़ब्ज़ा जमा रखा है।

कुछ ही लोगों को आरक्षण के लाभ पर सवर्णों के पेट में मरोड़ क्यों?

एक हास्यास्पद तर्क यह है कि अनुसूचित जाति के केवल 1 प्रतिशत से कम लोगों को ही आरक्षण लाभ देता है। सवाल वहीं अटक जाता है कि अगर केवल 1 प्रतिशत से कम अनुसूचित जातियों को ही आरक्षण का लाभ मिल रहा है तो आरक्षण से पेट में मरोड़ उठने की क्या बात है? क्या सिर्फ़ ऊँची जातियों को ही आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए और हर जगह उन्हीं का क़ब्ज़ा होना चाहिए? आरक्षण को मनोवैज्ञानिक वैशाखी बताने वालों के लिए आईआईटी के छात्र रहे दारा सिंह दोहरे का उदाहरण देना उचित होगा जिन्होंने क़रीब 10 साल पहले मुझसे बातचीत में कहा था-

अगर कोई तरीक़ा हो तो मुझे ब्राह्मण बना दिया जाए, मुझे किसी आरक्षण की ज़रूरत नहीं है, किसी सरकारी नौकरी की ज़रूरत नहीं है, केवल एक यह सुविधा मिल जाने पर लॉबीईंग से पूरे देश को मैं लूट सकता हूँ क्योंकि हर उस पद पर इस जाति का क़ब्ज़ा है जहाँ से सुख सुविधाएँ और राजस्व आता है।


आईआईटी के छात्र रहे दारा सिंह दोहरे

आरक्षण से बनी है ख़ूब पढ़ने की धारणा

एक तर्क है कि आरक्षण से एससी युवाओं में एक धारणा बन जाती है कि उन्हें अध्ययन करने और कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ऐसा किए बिना भी उन्हें प्रवेश या नौकरी मिल जाएगी। जबकि स्थिति इसके विपरीत है। एससी, एसटी, ओबीसी युवा अब कहीं बहुत ज़्यादा अध्ययन करने लगे हैं। ख़ासकर 1991 के बाद उत्तर प्रदेश में ओबीसी वर्ग में आरक्षण ने एक उत्साह जगाया है कि कम से कम 27 प्रतिशत पदों पर वह चयनित हो सकते हैं, सवर्णों का संपूर्ण क़ब्ज़ा नहीं होगा। इसका परिणाम यह हुआ कि यूपी बोर्ड से लेकर पहले मेडिकल प्रवेश के लिए होने वाली सीपीएमटी (अब इसके लिए केंद्रीय स्तर पर नीट परीक्षा होने लगी जिसमें ओबीसी आरक्षण को लेकर चल रही धांधली पर सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री को हाल में पत्र लिखा था) की परीक्षाओं में शीर्ष 10 रैंक में 80 से 90 प्रतिशत विद्यार्थी ओबीसी तबक़े से आने लगे।

आरक्षण और फूट डालो व राज करो

निश्चित रूप से इससे सहमत हुआ जा सकता है कि आरक्षण फूट डालो और राज करो की नीति में सहयोग दे रहा है। उच्च जातियों के लोगों ने जातीय श्रेष्ठता को एक ऐसी बहुमंजिला इमारत का रूप दिया है जिसमें हज़ारों मंजिलें हैं और कोई सीढ़ी नहीं है। इसके शीर्ष पर ब्राह्मण को बिठाया गया है और उनमें भी सैकड़ों उपजातियाँ हैं। इस व्यवस्था में जिस जाति के लिए जो मंजिल या फ्लोर आरक्षित हो गया है, वह न तो उससे ऊपर आ सकती है, न नीचे जा सकती है। इसकी वजह से जो जातीय आधार पर मलाई खा रहे हैं, पुरोहित वर्ग के हैं या शासक वर्ग के हैं, उन्होंने अपनी गिरोहबंदी कायम कर ली है और अपने आरक्षण को बचाए हुए हैं।

अगर किसी भी तरीक़े से कोई अपनी मंजिल से थोड़ा ऊपर जाने की कवायद करता है तो रोस्टर प्रणाली में बदलाव कर, एकल सीट घोषित करके नीचे वाली जाति को ऊपर चढ़ने से वंचित कर देता है जिससे उसका क़ब्ज़ा मलाई पर बरकरार रहे।

इस समय सरकारी नौकरियाँ ख़त्म हो रही हैं और जो थोड़ी बहुत नौकरियाँ बची हुई हैं, वहाँ गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। ऐसे में यह तर्क देना कि एक उच्च जाति का युवा जिसे परीक्षा में 90% मिला, उसे प्रवेश/नौकरी से वंचित किया जाता है जबकि अनुसूचित जाति/अन्य पिछड़ा वर्ग जिसे 40% अंक ही प्राप्त हुए, केवल आरक्षण के आधार पर उसे वह स्थान दिया जाता है, इस पर बगैर आँकड़ों के ऊल जुलूल बात करना मानसिक दिवालियापन ही कहा जा सकता है। पिछले 5-6 साल में राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय अख़बारों, वेब पोर्टलों पर हज़ारों ख़बरें आ चुकी हैं, जहाँ आरक्षण में बेइमानियों के चलते ओबीसी, एससी, एसटी वर्ग को ज़्यादा नंबर पाने पर नौकरियाँ नहीं दी जा रही हैं। 

जहाँ आरक्षण सही तरीक़े से लागू भी है, वहाँ अगर 200 मार्क की परीक्षा है तो सामान्य वर्ग की मेरिट अगर 168 पर ठहरती है तो बमुश्किल 165 अंक पर ओबीसी मेरिट और 155-60 अंक पर एससी, एसटी मेरिट अटक जाती है और उससे कम अंक पाने वालों का चयन नहीं हो पाता।

आरक्षण और वोट बैंक की राजनीति

हिंदी पट्टी में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल पर खासकर आरोप लगाया जाता है कि वे वोटबैंक की राजनीति के लिए आरक्षण का इस्तेमाल करते हैं। यह सत्य है कि इन दलों ने गड़बड़ की है। समाजवादी पार्टी के सत्ता में रहते हुए उसके मंत्रिमंडल में मलाईदार मंत्रालयों में 40 प्रतिशत तक ब्राह्मणों का आरक्षण कर दिया गया। इसी तरह बीएसपी प्रमुख मायावती ने पिछड़े वर्ग व अल्पसंख्यकों की उपेक्षा कर ब्राह्मणों को लोकसभा और विधानसभा में ज़्यादा सीटें आरक्षित कीं जिससे कि उनका वोट मिल सके। यही हाल आरजेडी का रहता है और उसमें ओबीसी या एससी-एसटी तबक़े को समायोजित करना कठिन हो जाता है। वोट बैंक की राजनीति के लिए इन दलों ने ब्राह्मणों को लुभाने की कवायद की। वहीं भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने पर स्वतःस्फूर्त तरीक़े से देश में ब्राह्मण विधायकों, सांसदों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है, क्योंकि वहाँ अपर कास्ट आरक्षण स्वतःस्फूर्त तरीक़े से लागू है। इस तरह के आरक्षणों से राजनेताओं को लाभ पहुँच रहा है लेकिन वंचित तबक़े के लोग वंचित ही रह जा रहे हैं। जब ऊँची जाति का सांसद या विधायक या मंत्री होता है तो वह खुलकर अपने लोगों को थाने से लेकर प्रशासन और ठेके पट्टी में अपनी जाति के लोगों को मदद करता है और इस वजह से अभी भी अच्छी कमाई का सबसे बेहतरीन साधन विभिन्न तरह की ठेकेदारी में सवर्णों का आरक्षण बना हुआ है।

जातिगत आरक्षण बढ़ा रहा है जातिवाद?

सत्ता के शीर्ष स्थानों पर ब्राह्मणों का क़ब्ज़ा जातिवाद बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहा है। पूरी दुनिया में पुरोहित वर्ग सबसे ताक़तवर माना जाता रहा है। हालाँकि फ्रांस की क्रांति और चर्च के ख़िलाफ़ विद्रोह के बाद विकसित देशों में पुरोहितों की ताक़त कम हुई। उनका समाज समावेशी बना और मलाईदार पदों पर समाज की 100 प्रतिशत आबादी से योग्यता के आधार पर चयन होने लगा और वे सभ्य व विकसित देश बन गए। वहीं भारत में पुरोहिती पर ब्राह्मणों का जातीय आरक्षण बना हुआ है। मंदिरों में, पूजा-पाठ कराने में क़रीब 100 प्रतिशत ब्राह्मणों का आरक्षण है। आप इस ताक़त का अंदाज़ा इससे लगा सकते हैं कि अन्य जातियों के लोग ब्राह्मणों की इच्छा के मुताबिक़ अपने बच्चे का नाम रखते हैं। अगर ब्राह्मण कह दे कि लड़की लड़के की कुंडली नहीं मिल रही है तो उनका विवाह नहीं हो सकता। मृत्यु के बाद के तरीक़े तक ब्राह्मण तय करते हैं। 

इस तरह से देखें तो बच्चे के पैदा होने से लेकर मृत्यु तक उसकी ज़िंदगी पर ब्राह्मणों ने क़ब्ज़ा कर रखा है। इससे समाज में जातीय असंतोष लगातार फैल रहा है कि एक मामूली सी आबादी 85 प्रतिशत आबादी की ज़िंदगी पर क़ब्ज़ा कैसे जमा सकती है।

देश की 85 प्रतिशत आबादी को बच्चा पैदा करने का प्राकृतिक हक है लेकिन वह ब्राह्मण के बगैर न तो उसका नाम रख सकता, न उसकी शादी कर सकता और न मरने पर ब्राह्मण के बगैर उसकी लाश जला सकता है। सदियों से चल रहा है यह आरक्षण।

1933 में श्रम मंत्री के रूप में पंचायत में दलितों के नामांकन विषय पर चर्चा के दौरान डॉ. आंबेडकर ने कहा था, ‘एक ब्राह्मण न्यायाधीश जब ब्राह्मण प्रतिवादी और ग़ैर ब्राह्मण मुअक्किल के बीच फ़ैसला करने बैठता है तो वह केवल न्यायाधीश के रूप में फ़ैसला नहीं करता। मैं जानता हूँ कि हमारे यहाँ किस प्रकार की न्यायपालिका है। इस सदन के सदस्यों में धैर्य है तो मैं अनेक ऐसी कहानियाँ सुना सकता हूँ कि न्यायपालिका ने अपनी स्थिति का दुरुपयोग किया है और अनैतिकता बरती है।’

विचार से ख़ास

शीर्ष न्यायालय में कोलेजियम प्रणाली ने उच्चतम और उच्च न्यायालय की स्थापना के समय से ही ऊँची जातियों या कहें कि कुछ खानदानों का न्यायपालिका पर क़ब्ज़ा करा दिया है और बड़े पैमाने पर न्यायालयों में भाई-भतीजावाद और जातिवाद बना हुआ है। अगर इन जगहों पर दलितों-पिछड़ों के लिए संवैधानिक आरक्षण का प्रावधान लागू करा दिया जाए तो प्रत्याशियों के चयन में खुली प्रतियोगिता होगी और संभवतः वंचित तबक़े को प्रतिनिधित्व मिलने के साथ शीर्ष न्यायालयों को इस अप्राकृतिक ख़ानदानी आरक्षण से भी मुक्ति मिल सकेगी।

अब समय आ गया है कि देश की 85 प्रतिशत आबादी आँकड़े सार्वजनिक करने की आवाज़ उठाए कि सरकारी व ग़ैर सरकारी पदों पर किन लोगों का क़ब्ज़ा बना हुआ है?

आवाज़ उठनी चाहिए कि सभी आरक्षण लागू होने के बावजूद हर जगह एक ही जाति प्रभावशाली क्यों हो गई? 

स्वतंत्रता के समय कायस्थों का प्रशासनिक पदों पर प्रतिनिधित्व सबसे ज़्यादा था लेकिन बाद में उनके हकों को कौन खा गया? 

अंग्रेज़ों के जाने के बाद देश पर किनका क़ब्ज़ा है?

और क़ब्ज़ेदार अगर यह कहने की कवायद करता है कि एकमात्र क़ाबिल वही है तो फिर इस पर पूरे देश में खुली बहस हो कि सत्ता के पायदानों पर क़ब्ज़ा क़ाबलियत के आधार पर है या कुछ और कारण है? 

85 प्रतिशत आबादी पर अपनी क़ाबिलियत का अहसान जताना बंद हो।

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प्रीति सिंह

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