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मिशन चम्बल घाटी -3: काश! पान सिंह तोमर चंबल की जगह पंजाब में पैदा होता

आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद चम्बल नदी और उसके बीहड़ चम्बल सेंड, क्षेत्र के पिछड़ेपन और कंधे पर बंदूक लटकाये 'बाग़ियों' के लिए याद किये जाते रहे हैं। सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, वायदे उसके चाहे जितने रंगीन और लुभावने हों, चम्बल घाटी का न तो पिछड़ापन दूर हुआ है, न यहाँ विकास की कोई धारा बही है और न कभी डाकू समस्या से इसे निजात मिली है। अनिल शुक्ल ने चम्बल के इन बीहड़ों का व्यापक अध्ययन किया है और इस इलाक़े से जुड़े रहे वरिष्ठ प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिज्ञों, और पूर्व डाकुओं से लम्बी बातचीत की है। चम्बल के इस समूचे परिदृश्य को हम सिलसिलेवार शृंखला में आपके समक्ष पेश कर रहे हैं।
अनिल शुक्ल

‘मिल्खा सिंह सौभाग्यशाली था जो पंजाब में पैदा हुआ, चंबल के बीहड़ों में जन्म लेता तो एनकाउंटर में मारा जाता। पानसिंह तोमर दुर्भाग्यशाली था जो चम्बल में पैदा हुआ, पंजाब में जन्म लेता तो अर्जुन पुरस्कारों से सम्मानित होता और फ़्लाईंग राजपूत कहलाता।’ 

भोपाल के अपने कार्यालय में बैठे मध्य प्रदेश के हैंडलूम कमिशनर राजीव शर्मा जिस समय यह वक्तव्य दे रहे थे, उनके चेहरे पर विशाद की गहरी रेखाएँ उभर रही थीं। सन 1965 में, अपने जन्म से लेकर पूरी पढ़ाई के दौरान श्री शर्मा भिंड (चंबल प्रभाग) के बाशिंदे बने रहे लेकिन 1988 में आईएएस में नियुक्ति के बाद उन्होंने कभी चंबल प्रभाग में अपनी नियुक्ति के किसी भी प्रस्ताव को फ़लीभूत न होने दिया। कारण पूछने पर वह बड़ी सादगी से जवाब देते हैं, ‘इंदौर, उज्जैन और ग्वालियर जहाँ अभी भी राजाओं का राज है, वहाँ चाटुकारिता का ज़ोर है और एक अच्छा अधिकारी वहाँ सर्वाइव नहीं कर सकता।’ 

चंबल का पूरा प्रखंड बीहड़ों से अटा पड़ा है। वैसे तो यह मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान की धरती में बिखरा हुआ है लेकिन इसकी असली जड़ें बिखरी हैं मध्य प्रदेश की धरती पर। बालू और मिट्टी के इन मिले-जुले टीलों और ख़ारों ने क्षेत्र के पूरे विकास को जैसे थाम रखा है। इन्हीं ख़ारों और टीलों के बीच से जन्म लेता है भय, अविश्वास, प्रतिशोध, बेरोज़गारी, आर्थिक विपन्नता और डाकू। इन बीहड़ों का प्रसार बढ़ रहा है, निरंतर बढ़ रहा है। आज़ादी से ठीक पहले हुए भूमि सर्वे (सन 1944) में इनका विस्तार 2.8 लाख हेक्टेयर मापा गया था। आज यह 7 लाख हेक्टेयर में फैल गए हैं। यह तेज़ी के साथ अपने आस-पास के मैदानों को चाटता जा रहा है, उन्हें बीहड़ों में तब्दील करता जा रहा है। 

आज़ादी के बाद से लेकर आज तक जितने दल और जितने रंग की सरकारें बनी हैं उन्होंने इसकी सूरत और सीरत बदल देने की बहुत क़समें खाई हैं, लेकिन इतिहास गवाह है, न तो बीहड़ बदले और न बदली इनकी तक़दीर।

दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े डॉ. विश्वराज शर्मा पर्यावरणविद हैं और चंबल-यमुना बीहड़ के अध्ययन से जुड़े हैं। चंबल के बारे में उनका कहना है कि कोटा को छोड़ दें तो कोई बड़ा शहर इसके किनारे पर नहीं है इसीलिये उत्तर भारत की नदियों में यह सबसे ज़्यादा साफ़ है। लेकिन इसके पानी की तासीर ऐसी है कि यह बीहड़ों को जन्म देता जाता है। बीहड़ के इस बदलाव को थामा जा सकता है बशर्ते वहाँ वनस्पति की ऐसी प्रजातियों की पैदावार को बढ़ाया जाए जो इस भूमि क्षरण को रोकने में कारगर हैं। वह कहते हैं कि इज़रायल और चीन के पठार इसका प्रबल उदाहरण हैं।

ज़मीन को समतल करना समाधान?

बीहड़ों की इस धरती के समतलीकरण की कई बार कोशिशें हुई है। बीते 40 सालों में 4800 वर्ग किमी की धरती पर फैले बीहड़ के 600 वर्ग किमी हिस्से को समतल बनाया गया। मौजूदा दशक में सर्वाधिक तेज़ समतलीकरण हुआ है। दिक़्क़त लेकिन यह है कि एक ओर जितना समतलीकरण हो रहा है, दूसरी ओर उससे ज़्यादा क्षरण की रफ़्तार है। उधर इस पूरी प्रक्रिया से किसान संतुष्ट नहीं हैं। अध्ययन बताते हैं कि एक ओर समतलीकरण की मशीनों के किराये आदि के भुगतान किसान की जेब पर बहुत भारी पड़ते हैं दूसरा उसका कहना है कि नई प्राप्त भूमि पर संतोषजनक पैदावार नहीं हो पाती है। समतलीकरण से जुड़ा जो एक और ख़तरा है वह है भूमि के कृषिगत उपयोग से बदल कर औद्योगिक उपयोग शुरू कर देने का। यह प्रक्रिया कहीं-कहीं शुरू हो चुकी है और यह ख़तरनाक इस मायने में है कि पर्यावास असंतुलन से धरती का क्षरण और बढ़ जायेगा।  (पढ़ें- मिशन चम्बल घाटी-1 और मिशन चम्बल घाटी-2)

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भिंड-दतिया से पूर्व सांसद और रिटायर्ड आईएएस डॉ. भागीरथ प्रसाद कहते हैं कि कांस और बांस की बड़े पैमाने पर बुआई की उन्होंने योजना चालू करने की कोशिश की थी। इससे एक ओर भूमि क्षरण रुकता दूसरी यह स्थानीय किसानों की आय का संसाधन बनता, यह लेकिन लोकप्रिय नहीं हो सकी। 

उनका कहना है कि फल और सब्ज़ी की पैदावार की कोशिशें की गयीं लेकिन किसानों ने रूचि नहीं दिखाई। ‘दरअसल किसानों में एक प्रोग्रेसिव सेक्शन को डेवलप किये जाने की ज़रूरत है जिसे कोई सरकार अभी तक नहीं कर सकी।’ निराश स्वर में वह कहते हैं।

बड़े पैमाने पर होने वाले समतलीकरण के चक्कर में शामिलात भूमि का लोप होता जा रहा है। इसका सबसे ज़्यादा नुक़सान निर्धन किसान या या कृषि श्रमिक को हो रहा है। इस चक्कर में चरागाह पूरे तौर पर ग़ायब होते जा रहे हैं जिससे पशु पालन को गहरा धक्का लग रहा है। यह चंबल क्षेत्र का ख़ास व्यवसाय है।

‘कम्बल दान दें, बंदूक़ का लाइसेंस लें’

13वीं पशु संगणना के ब्यौरे अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं। 12वीं पशु संगणना (सन 2012) के अनुसार प्रदेश में कुल पशुओं की तादाद 3 करोड़, 63 लाख, 33 हज़ार है। चम्बल क्षेत्र इसका लगभग 15% है। जिस तरह का कृषिगत ढाँचा संकट है, उसे देखते हुए पशु पालन को ख़ूब प्रोन्नत किये जाने की ज़रूरत है। ऐसा लेकिन बिलकुल नहीं हो रहा है। उल्टा पशु पालन प्रमोशन को लेकर सरकारी अधिकारियों का नज़रिया क्या है, इसका एक उदाहरण देखिये- बीते जाड़े में ग्वालियर के तत्कालीन कलेक्टर अनुराग जैन ने पशुपालन प्रेम का एक नया फ़ॉर्मूला जारी किया- जिस किसी को बंदूक़ का लाइसेंस चाहिए, वह गायों के लिए 10 कम्बल दान दे। आगे चलकर कलेक्टर कार्यालय ने लोगों के लिए यह सुविधा भी मुहैया करा दी कि वे नाहक कहाँ बाज़ार-बाज़ार कम्बल ढूंढते फिरेंगे, यदि चाहें तो कैश भी जमा करवा सकते हैं। जैसे-जैसे जाड़ा ज़्यादा बढ़ता गया, कलेक्टर स्टाफ़ को कैश की गर्मी राहत देती चली गयी। बताते हैं कि ग्वालियर डिविज़न के 5 ज़िलों में पशुप्रेम का जम कर शोर उठा। 

लेकिन चम्बल डिविज़न के 3 ज़िलों में बंदूक़ लाइसेंस बरास्ता रेडक्रॉस सोसायटी आया। लाइसेंस चाहिए तो 'रेडक्रॉस' सोसायटी' में दान दो। सोसायटी प्रमुख, ज़ाहिर है कलेक्टर साब नहीं होंगे तो कौन होगा? चम्बल डिविज़न पशु पालन के मामले में ग्वालियर से ज़्यादा है- संख्या और चेतना दोनों दृष्टि से।

उधर सामाजिक कार्यकर्ता रमन कहते हैं ‘कर्नाटक में वे 200 किमी पानी खींच कर ले जाते हैं। हमारे यहाँ दरवाज़े पर पर चंबल बह रही है। यदि इसके एक भाग के पानी को हम रोक लें तो बहुत कुछ उपजा सकते हैं।’ वह कहते हैं कि एमएसएमई मंत्री नितिन गडकरी से लेकर जल निगम के चेयरमैन तक को प्रेजेंटेशन दे चुके हैं जिसमें इस पूरे बीहड़ क्षेत्र में शहतूत से लेकर मलबरी रेशम, सोशल फॉरेस्ट्री, डेरी फ़ार्मिंग, मछली पालन, मेडिसिनल प्लांटेशन का पूरा प्रोजेक्ट शामिल था। वह सहमत भी हो गए लेकिन बाद में सब ‘गड्ढे’ में डाल दिया गया। यह पूछने पर कि किसके कहने से ऐसा हुआ, वह राजनीति से जुड़े राजपरिवार की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, ‘अगर आपको यह चिंता हो कि विकास हो गया तो मेरे दर पे कौन धोक लगाएगा तो सचमुच कुछ नहीं हो सकता।’

बीहड़ में विकास!

पत्रकार शंकरदेव तिवारी लंबे समय से बाह (आगरा) से लेकर भिंड और ग्वालियर में प्रमुख अख़बारों में 'डेवलपमेंट बीट' पर रिपोर्टिंग करते रहे हैं। बीहड़ में प्रगति की बाबत पूछने पर वह कहते हैं- चंबल के बीहड़ तो 4 दशक से अपनी अवनति की गाथा रो रहे हैं। वह कहते हैं ‘जरार की गल्ला और दाल मंडी ख़त्म की गई, सैकड़ों रोज़गार ख़त्म हुए। सुप्रीम कोर्ट की रोक से बीहड़ का पर्यटन चौपट हो गया, सभी मार्गों पर केवल सरकारी परिवहन चलाने से लोगों का बड़े पैमाने पर धंधा चौपट हुआ।’ बीहड़ में हर जगह भैंस दिखती हैं। यहाँ के पुरुष और महिलाएँ भैंस पालन के विशेषज्ञ हैं। ‘पहले दूध की कोऑप्रेटिव्स बड़े पैमाने पर उन्हें रोज़गार देते थे। अब सब ख़त्म होने और प्राइवेट डेरियों को ओने-पौने दामों पर दूध बेचने के लिए वे अभिशप्त हैं। उनके लिए न तो कभी बैंक लोन हुए और न सरकार को पशुपालन हेतु सब्सिडी का ख़याल आया।’

किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए जिन 3 प्राथमिक चीज़ों की ज़रूरत होती है वे हैं- शिक्षा, स्वास्थ्य और उद्योग। चंबल के बीहड़ में दुर्भाग्य से तीनों सिरे से ग़ायब हैं।

भिंड, मुरैना आदि क्षेत्र में ऐसा एक भी ‘स्पेशलाइज़्ड संस्थान’ नहीं है जहाँ युवक-युवतियाँ शिक्षा ले सकें। कृषि और पशु पालन शिक्षा के बड़े संस्थानों की यहाँ सख़्त ज़रूरत है, जबकि इस दिशा में कभी नहीं सोचा गया। इसी तरह बीहड़ और भूमि क्षरण संबंधी शिक्षा संस्थान यदि यहाँ होते तो न सिर्फ़ छात्रों को विशिष्ट शिक्षा मिलती बल्कि यहाँ होने वाली शोध से इलाक़े का भी भला होता। आज़ादी के 73 साल बाद भी इस समूचे क्षेत्र में न तो कोई बड़ा मेडिकल शिक्षा संस्थान बना और न ही कोई बड़ा अस्पताल। गंभीर हालत में परिजन या तो ग्वालियर भागते हैं या फिर आगरा। बीहड़ के पूरे इलाक़े में उद्योगों के विकास को कभी एजेंडा नहीं बनाया गया। 'मालनपुर औद्योगिक क्षेत्र' बाहरी परिधि में इस तरह बनाया गया कि उसका लाभ हर तरह से बाहर वालों को ही मिले।

क्या डाकू ख़त्म हो गए?

डाकुओं के आत्म समर्पण से जुड़े रहे वरिष्ठ सर्वोदयी एसएन सुब्बाराव कहते हैं- ‘अभी तक 354 डाकू समर्पण कर चुके हैं लेकिन हम आज भी यह नहीं कह सकते कि अब डाकू नहीं होंगे। बापू की डेढ़ सौवीं जयंती है पर हम आज भी उस स्रोत को नहीं रोक सके हैं जो डाकू पैदा करता है।’ पटवारियों की भूमि पट्टों की छोटी-मोटी हेराफेरी ही पान सिंह, मोहर सिंह, मलखान सिंह जैसे पचासों डाकुओं को जन्म देती आई है। डाकू समस्या का हल कैसे हो, पूछने पर आत्मसमर्पित डाकू बलवंत सिंह तोमर ने इस संवाददाता से कहा- ‘ग्राम प्रधान, पटवारी और थानेदार, अगर सिर्फ़ इन तीन जनों को सुधार दो, भगवान कसम, कभी कहीं कोई डाकू न पैदा होगा।’ आज़ादी के पहले से लेकर आज़ादी के बाद के 70 सालों के इतिहास में चंबल में डाकुओं की बंदूक़ें गरजती रही हैं। डाकुओं को लेकर एक पुराने वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की एक सीख का पुलिस हल्क़ों में आज भी बड़ा 'सम्मान' किया जाता है। 

सीख यह है कि- डाकू पैदा करो, लूट में हिस्सा लो, इनाम बढ़ाओ, एनकाउंटर करो और राष्ट्रपति पुलिस मेडल पाओ। ‘इस लोक को भी तारो और उस लोक को भी।’

दोष न हज़ार किमी लम्बी चंबल का है न इसके पानी का और न इसकी बालू का। यदि इसकी भौगोलिक संरचना इसे देश के घड़ियालों का सबसे बड़ा केंद्र बनाती है तो इसकी आर्थिक विवशता के बीच जन्म लेते हैं डाकू। यदि अकेले भिंड, मुरैना से 400 डाकू पैदा होते हैं तो यह इसकी सामाजिक संरचना का कमाल है कि अकेले इन दोनों ज़िलों के 40 से ज़्यादा नौजवान अपने सीने पर आईएएस का गौरवपूर्ण तमग़ा लहरा कर देश भर में छिटक जाते हैं। जहाँ तक इसकी सांस्कृतिक संरचना का सवाल है, भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार सुबोध अग्निहोत्री की मानें तो भोपाल में सक्रिय श्रमजीवी पत्रकारों का 60% अकेले इन दोनों ज़िलों से आता है। क्या इसे सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ माना जाए कि मध्य, उत्तर और पश्चिम रेलवे में दौड़ने वाली रेलगाड़ियों की केटरिंग सेवाओं में कार्यरत युवाओं में 50% आपको इसी चंबल क्षेत्र के मिलेंगे तो क्या यह भी महज़ इत्तिफ़ाक़ है कि 25 हज़ार प्राइवेट हथियारों का लाइसेंस रखने वाले अंचल में फ़ौज और सुरक्षा बलों की ओर आकर्षित होने वालों की तादाद 2500 भी नहीं!

विचार से ख़ास

मूलतः मलयाली भाषी विजय रमन मध्य प्रदेश कैडर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। पानसिंह तोमर की मुठभेड़ ने उन्हें रातों-रात सारी दुनिया में प्रसिद्धि दिलाई थी। आगे चलकर वह सीआरपीएफ़ में 'एंटी माओइस्ट ऑपेरशन' के स्पेशल डीजे हुए और 7 राज्यों के बीच के समन्वय को देखते थे। सेवानिवृत्ति के बाद अब पुणे में बस गए हैं लेकिन चंबल की गतिविधियों पर गहरी नज़र रखते हैं क्योंकि यह उनकी शुरुआती नियुक्तियों की जगह है जहाँ से उन्होंने प्रशासन करने के ढेरों गुण सीखे। 

एसपी भिंड के अपने कार्यकाल को याद करते हुए वह थाना उमरी से सम्बद्ध एक गाँव की एक घटना का ज़िक्र करते हैं- ‘एक दलित लड़का शादी करके अपनी पत्नी को लेकर गाँव लौटा तो रास्ते में एक ठाकुर लड़के ने उसकी पत्नी को लेकर एक भद्दा कमेंट कर दिया। लड़का अपने घर पहुँचा। सारे रिचुअल्स पूरे किये। कपड़े बदले और लौट कर गाँव में आया। उस ठाकुर लड़के की उसने हत्या कर दी। अब यह न तो शहरी समाज में संभव है न यूपी, बिहार के गाँवों में, यह सिर्फ़ चंबल में ही हो सकता है।’ वह कहते हैं ‘हम अर्बन सोसाइटी वालों की तुलना में चंबल के लोगों का वेल्यू सिस्टम बहुत हाई है। यही वजह है कि अपनी औरत, अपनी ज़मीन और अपने मवेशी के लिए वे मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं।’

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