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मिशन चम्बल घाटी -2: आत्मसमर्पित डाकू- बीहड़ लांघने को तैयार तीसरी पीढ़ी

आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद चम्बल नदी और उसके बीहड़ चम्बल सेंड, क्षेत्र के पिछड़ेपन और कंधे पर बंदूक़ लटकाये 'बाग़ियों' के लिए याद किये जाते रहे हैं। सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, वायदे उसके चाहे जितने रंगीन और लुभावने हों, चम्बल घाटी का न तो पिछड़ापन दूर हुआ है, न यहाँ विकास की कोई धारा बही है और न कभी डाकू समस्या से इसे निजात मिली है। अनिल शुक्ल ने चम्बल के इन बीहड़ों का व्यापक अध्ययन किया है और इस इलाक़े से जुड़े रहे वरिष्ठ प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिज्ञों और पूर्व डाकुओं से लम्बी बातचीत की है। चम्बल के इस समूचे परिदृश्य को हम सिलसिलेवार शृंखला में आपके समक्ष पेश कर रहे हैं।
अनिल शुक्ल

‘बा दिना सबेरे सेइ तेज लूह चल रई थी। जेठ को महीनो, सबेरे आठ बजे सेइ लग रओ कि फुल दोपहरिया है गयी है। राकेस दीक्षित जी ने मेई ड्यूटी पास के जैन मंदिर बारे केम्प में लगाय दयी जामें सबई बागी अपने अस्लाह (हथियार) संग पहुँच रये थे। बिनके काजे महां खाना-पीना और ठंडे पानी वगेरा को इंतज़ाम हतो। जैन मंदिर केम्प में बागीयन को आना बड़े सबेरे से चालू ओ। सबसे पहले लाल सिंह पहुंचो। जे तगड़ा, काला जबर! बाके संग बाके गेंग बारे हते। फिर जनक सिंह पहुंचो। बाके पीछे कामता, फिर हेतसिंह ....एक एक करके 11 गेंग बा केम्प में पहुँच गए। भीड़ बढ़ती जाय रई हती। पेड़ों के नीचे, खुले में, जिधर देखो आदमी ही आदमी। लाख -दो लाख से ज्यास्ती आदमी। जब भी कोई बागी मंच पे आतो, गाँधी जी की फोटू के सामने हथियार धरतो, भीड़ नारा लगती- हर हर महादेव!’

वयोवृद्ध सामाजिक कार्यकर्ता रामसिंह आज़ाद बताते ही जा रहे हैं। एक के बाद एक, उनकी आँखों में पुराने दृश्य जैसे जीवंत होते जाते हैं। यह नज़ारा यमुना के बीहड़ों में बने सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थल बटेश्वर (उप्र) का है जहाँ 3 जून 1976 को चम्बल-यमुना के बीहड़ों में आतंक का पर्याय बने 11 गिरोहों के 75 डाकुओं ने सर्वोदयी नेता एस एन सुब्बाराव की पहल पर यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायन दत्त तिवारी के समक्ष आत्मसमर्पण किया था। इस मौक़े पर केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री प्रकाशचंद सेठी भी मौजूद थे। (पढ़ें- मिशन चम्बल घाटी-1)

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इतिहास साक्षी है कि सरकार के वायदों की चकाचौंध में कन्धों से उतार कर अपने ऑटोमेटिक हथियारों को बापू के चरणों में समर्पित करते जा रहे चम्बल के इन खूंखार डाकुओं की आँखों में इस समय सुधारात्मक भविष्य के समंदर में तैरते हुए सपने थे। ठीक इसी समय जून की दोपहर से भी ज़्यादा तपिश वाले पुलिस और हुक़ूमत के डंडों के नीचे लम्बे समय से दबे-सहमे वहाँ मौजूद उनके परिजनों के मन में शीतल हिमगिरि से सुनहरे ‘कल’ उपज रहे थे।

इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि समर्पण के बाद के इन 44 सालों में इन परिजनों में चंद ही हैं जो अपने उद्यम के बल पर खड़े हो पाए, बाक़ी सब बुरे हाल में हैं। उनके भीतर यह कुंठा भी बलवती हो गयी है कि उन्हें 'डाकू परिवार' के नाम से जाना जाता है। सरकार अपने वायदों को भूल चुकी है और स्थानीय स्तर पर सर्वोदय के 'चम्बल घाटी शांति मिशन' की देखरेख करने वाला कोई ऐसा क़द्दावर नेता है नहीं जो उसे उनके वायदों की याद दिला सके।

महेंद्र (पप्पू) बताते हैं कि आत्मसमर्पण के समय उनके पिता के साथ वायदे बहुत से किये गए थे लेकिन उन पर अमल के नाम पर सिर्फ़ इतना हुआ कि उन्हें बाह क़स्बे में मकान बनाने के लिए आधा बीघा से भी कुछ कम ज़मीन दी गयी है। वे 4 भाई थे जिनमें से किसी को सरकारी रोज़गार नहीं दिया गया जबकि वायदा पुलिस में नौकरी देने का किया गया था। महेंद्र के पिता अतरसिंह अपने समय के कुख्यात डाकू सरगना थे और चम्बल में उनकी बंदूक़ की धमक आज भी इस क्षेत्र के बुज़ुर्गों को याद है। इसी तरह डकैत सरगना हेत सिंह के पुत्र राजेश की शिकायत है कि बहुत चाहने के बावजूद धन के अभाव में वह उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर सके जबकि बच्चों को शिक्षा में शीर्ष स्तर तक वज़ीफ़ा देने की बात की गयी थी। 

राजेश को मलाल है कि उपलब्धि के नाम पर तो ख़ास हासिल हुआ नहीं, उनके ऊपर डाकू पुत्र होने का जो सामाजिक ठप्पा लगा है, वह नहीं छूटता।

वह कहते हैं, "आज भी हाल जे है कि रोड पर चलते बखत अगर 'बाहन' चेकिंग हो रही हो तो कागजातों में पिताजी का नाम देखकर हर पुलिस वाला छूटते ही पूछ बैठेगा-अच्छा तो हेतसिंह डाकू के मौड़ा (बेटा) हो।"

ओमप्रकाश शर्मा भी उन समाजसेवियों में हैं जो 44 साल पहले अपनी युवावस्था में सुब्बाराव की स्थानीय कमेटी के सहायक के रूप में मंच पर मौजूद थे। तिवारी जी ने अपने भाषण में वहाँ मौजूद सभी बाग़ियों और उनके घरवालों को सांत्वना दी। इसके बाद पीसी सेठी बोले। उन्होंने भारत सरकार और मध्य प्रदेश सरकार की ओर से हर तरह की मदद का आश्वासन दिया। सन 1972 में जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में हुए समर्पण के समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री वही थे जिसमें दस्यु सरगना मोहरसिंह और माधोसिंह सहित 167 डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया था। शर्मा जी का कहना है कि बाग़ियों और वहाँ मौजूद जनता में सेठी जी की बड़ी धाक थी क्योंकि उन्होंने ही सन 1972 के बाग़ियों के पुनर्स्थापन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। श्री शर्मा बताते हैं कि बटेश्वर में डाकुओं को समर्पण के लिए तैयार करवाने में माधोसिंह, मोहरसिंह और लुकमान दीक्षित (लुक्का) ने सुब्बाराव की बड़ी मदद की थी। बीहड़ों के दस्यु सरगनाओं में इनका बड़ा सम्मान था और ये तीनों ही थे जिन्हें विशेष पेरोल इसलिए दिया गया था ताकि जंगल-जंगल घूमकर वे इन दस्यु सरगनाओं से आत्म समर्पण की मंजूरी हासिल कर सकें।

4 जून 1976 के मंच पर ये तीनों भी मौजूद थे। श्री शर्मा बताते हैं "समर्पण करने वाले सभी बाग़ी मंच पर सेठी जी, तिवारी जी और सुब्बाराव जी के साथ-साथ इन भूतपूर्व बाग़ियों के भी पाँव छूकर आशीर्वाद ले रहे थे।

डकैतों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास

वस्तुतः सन 1960 में सर्वोदय नेता विनोबा भावे और सन 1972 में जेपी के समक्ष हुए आत्मसमर्पण की तुलना सन 1976 में हुए आत्मसमर्पण से की जाए तो तीनों की प्रकृति में एक मौलिक अंतर दिखाई देता है। पहला समर्पण आज़ादी के बाद की विकासवादी और संभावनाओं से भरे देश में डकैतों को मुख्यधारा में वापस लाने की ऐसी कोशिश थी जिसमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर देश की आम जनता तक की इच्छाएँ और सहयोग की भावनाएँ शामिल थीं। उनके सामने कोई शर्त नहीं रखी गयी थी बल्कि न्याय और न्यायपालिका का 'साहस के साथ' सामना करने की नसीहत दी गयी थी। यही वजह है कि समर्पण के बाद इन डाकुओं को समाज की मुख्यधारा में लाने का काम दोनों ही पक्षों के स्तर पर बड़े ही सुनियोजित लेकिन सहज और स्वाभाविक तरीक़े से लागू किया गया।

सन 1972 में हुए समर्पण में इन डाकुओं के सामने लुभावनी शर्तों का एक आकर्षक 'पैकेज' रखा गया था। बताया गया था कि उनका कारावास 8 वर्ष की अधिकतम सीमा का होगा, उन्हें समुचित कृषि योग्य भूमि के अलावा आवास स्थल हेतु भूमि, बच्चों की शिक्षा आदि के लिए बड़े वज़ीफ़े और वयस्क संतानों को सरकारी नौकरियों में स्थान दिया जाएगा। 

बताते हैं कि इस आत्म समर्पण के लिए समूचे प्रस्ताव को लेकर जब जेपी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी से मिले तो शर्तनामा देखकर उन्होंने भी एक शर्त लगा दी थी। उन्होंने कहा, ‘आप अगर मोहरसिंह को समर्पण के लिए मना लेंगे तभी मैं इस पर आदेश जारी करूंगी।’

यद्यपि 'चम्बल घाटी' में विनोबा भावे को जैसा सम्मान मिलता था, शुरू में वह स्थिति जेपी की नहीं थी लेकिन भूतपूर्व डाकू तहसीलदार सिंह और लुकमान दीक्षित ने बीहड़ों में घूम-घूम कर उनकी जो हैसियत बनाई उसी का परिणाम था कि 2 लाख के इनाम वाला माधोसिंह भेष बदल कर उनसे मिलने पटना पहुँच गया और उसने समर्पण की अगुवाई का उनसे अनुरोध किया।

सन 1976 की तसवीर बिलकुल जुदा है। पिछले 2 समर्पण मध्य प्रदेश की धरती पर हुए थे। इस बार जिस बटेश्वर को चुना गया, वह उत्तर प्रदेश (ज़िला आगरा) की सरज़मीं थी। वस्तुतः बटेश्वर यमुना के ऐसे मुहाने पर है जो चम्बल से महज़ 15 किमी दूर है। इतना ही नहीं, इटावा का वह संगम जहाँ चम्बल यमुना में प्रवाहित हो जाती है, वह भी बटेश्वर से ज़्यादा दूर नहीं। बटेश्वर शिव की नगरी है इसीलिये यहाँ के 101 मंदिरों में किसी न किसी शिव भक्त डाकू की भेंट स्वरूप पीतल के विशालकाय घंटे लटके ज़रूर मिलेंगे। यह आपातकाल का दौर था। पी सी सेठी कहने को 'कैमिकल और पेट्रोलियम' मंत्री थे लेकिन संजय गाँधी से निकटता के चलते केबिनेट में उनकी हैसियत 'मंत्री' से कुछ ज़्यादा थी। संजय गाँधी की रज़ामंदी से उन्होंने तत्कालीन रक्षामंत्री बंसीलाल के समक्ष चम्बल के बीहड़ों में डाकुओं के ठिकानों पर हवाई जहाज़ से बम गिराने का प्रस्ताव रखा। बताते हैं कि श्रीमती गाँधी के हस्तक्षेप से यह प्रस्ताव तो मंज़ूर नहीं हो सका लेकिन न मालूम कैसे ठन्डे बस्ते में जाने से पहले प्रेस में लीक हो गया।

जैसा कि स्वाभाविक है, बीहड़ों में इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई और डाकुओं का बड़ा हिस्सा इस अनहोनी की संभावना से घबरा गया। तब आनन-फानन में समर्पण का यह प्रस्ताव अमल में लाया गया। स्वाभाविक है इस बार दोनों ही पक्ष समर्पण के लिए उस तरह से तैयार नहीं थे। 

मोहरसिंह, माधोसिंह को झटपट पेरोल पर रिहा किया गया और उन्होंने 2 सप्ताह में बीहड़ों में घूम कर जिन 11 गिरोहों को तैयार कर लिया, उनके नाम इस प्रकार हैं-(1) जनक सिंह यादव, (2) अतरसिंह गूजर, (3) हेतसिंह यादव, (4) लालसिंह चौहान, (5) कामता प्रसाद यादव, (6) भोगी/पुत्तन, (7) तुलसीराम यादव, (8) जयदयाल /श्रीकृष्ण, (9) गोपी जाटव, (10) पंडित नेक्से और (11) नेत्रा। ये उस समय चम्बल के बीहड़ों में सक्रिय सभी छोटे-बड़े गैंग थे। नेत्रा इनमें सबसे ज़्यादा 'सीनियर' था। वह सन 1958 में बाग़ी बना था। उसने रूपा पंडित (60 का दशक) और माधोसिंह के गिरोह में लम्बे समय तक शिरक़त की थी। इन सबके समर्पण के बाद मान लिया गया कि आने वाले 10-15 साल बीहड़ों में शांति रहेगी लेकिन यह कल्पना बहुत लम्बा विस्तार न ले सकी, कुछ ही समय में चंबल में फिर बारूद गरजने लगा।

विचार से ख़ास

बीहड़ में वापसी

नई एंट्री की बात तो दरकिनार, इन आत्मसमर्पित गैंगों में से 2 (पंडित नेक्से और गोपी जाटव) तो कुछ ही समय बाद फिर से बीहड़ में कूद गए। भगता जैसे छिटपुट इक्का-दुक्का डाकू भी फतेहगढ़ की खुली जेल से फ़रार होते रहे हैं। नेक्से को छोड़कर बाक़ी लोगों की शिकायत थी कि उनसे की गई शर्तों को पूरा नहीं किया जा रहा है। नेक्से पंडित की फ़रारी की कहानी बड़ी दिलचस्प है। बटेश्वर के समर्पण में नेक्से को कोई सज़ा नहीं हुई। उसे सिर्फ़ ‘निम्न काल' काटना पड़ा। उसके बाद घर पर आकर वह स्वतंत्र रूप से जीवन यापन कर रहा था। एक पुराना प्रतिद्वंद्वी अपराधी बदन सिंह फ़रार चल रहा था। नेक्से उसके ग़लत कामों का विरोध करता था। प्रशासन से बदन सिंह को मदद मिलती रहती थी और नेक्से को उपेक्षा। बदन सिंह ने नेक्से के बहनोई की खुले आम हत्या कर दी।  पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की और तब नेक्से अपने 2 भाइयों के साथ 'चम्बल कूद' गया। बाद में नेक्से को पुलिस ने मुठभेड़ में मार डाला।

फ़िलहाल 2-3 लोगों को छोड़ कर इन 75 लोगों में कोई नहीं बचा है लेकिन उनके परिजन बड़ी तादाद में हैं। वे हैं और इनमें भी बड़ी तादाद उन लोगों की है जो बुरे हाल में हैं। अगर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो इनमें से कइयों की तीसरी पीढ़ी के ‘चम्बल में कूदने' की संभावना हर समय बनी रहेगी।

सर्वोदयी नेता एस एन सुब्बाराव बहुत निराश भरे स्वर में कहते हैं ‘जल्दबाज़ी में सरकार ने ग़लत पट्टे दे दिए। 44 साल से मैं उन्हें लिख-लिख कर दे रहा हूँ। थक गया हूँ। मेरे आवेदन उनकी रद्दी की टोकरी में चले जाते हैं। यह अहसास तो मुझे हो गया है कि चम्बल के बीहड़ सरकारों की प्राथमिकता सूची में न थे और न हैं।’

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