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अफ़ग़ानिस्तान: ग़नी-डॉ. अब्दुल्ला में खिंची तलवारें, राजनीतिक संकट गहराया

अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति चुनावों के नतीजों को लेकर प्रतिद्वंद्वी नेताओं के बीच उभरे मतभेदों के बाद देश का राजनीतिक भविष्य और गहरा गया है। ऐसे वक्त में जब अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा जनतांत्रिक सरकार को तालिबान के साथ बातचीत में एकजुटता दिखानी चाहिए थी, इसके दो ताक़तवर नेताओं डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला और अशरफ़ ग़नी के बीच आपसी मतभेदों ने तालिबान का मनोबल बढ़ाने वाला काम किया है। 

राष्ट्रपति चुनावों के नतीजे पिछले महीने के मध्य में घोषित किये गए थे जिसमें वर्तमान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी को 50.64 प्रतिशत वोट और चीफ़ एक्जीक्यूटिव डॉ. अब्दुल्ला को 39.4 प्रतिशत वोट मिले। इसके आधार पर अशरफ़ ग़नी को दूसरे कार्यकाल के लिये अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रपति घोषित किया गया। लेकिन डॉ. अब्दुल्ला ने इसे यह कह कर स्वीकार नहीं किया कि इसमें धांधली की गई है।

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चुनाव नतीजों को नामंजूर करते हुए डॉ. अब्दुल्ला ने 9 मार्च को काबुल में राष्ट्रपति पद का एक समानांतर शपथ ग्रहण समारोह आयोजित कर खुद को अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर दिया। इसी दौरान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने भी राष्ट्रपति पद के दूसरे कार्यकाल के लिये शपथ ली। हालांकि डॉ. अब्दुल्ला को राष्ट्रपति के तौर पर किसी देश ने मान्यता नहीं दी है। 
Controversy between Ashraf Ghani and Dr. Abdullah in president election in Afghanistan  - Satya Hindi
शपथ लेते डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला।
भारत सरकार ने पिछले महीने ही राष्ट्रपति चुने जाने के लिये अशरफ़ ग़नी को बधाई संदेश भेजा था। लेकिन डॉ. अब्दुल्ला की अपने इलाक़े में लोकप्रियता और स्वीकार्यता को देखते हुए अफ़ग़ान सरकार और किसी भी अन्य देश के लिये उन्हें नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा। 
डॉ. अब्दुल्ला अफ़ग़ानी राजनीति में एक अहम खिलाड़ी बने रहेंगे और तालिबान से मुक़ाबला करने में उनकी अहमियत को कम करके नहीं आंका जा सकता है।

अफ़ग़ानिस्तान में पिछले साल 28 सितम्बर को राष्ट्रपति चुनाव हुए थे और पांच महीने बाद अफ़ग़ानिस्तान के चुनाव आयोग ने नतीजे जारी किये। पिछली बार भी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों पर डॉ. अब्दुल्ला ने शक जाहिर किया था। लेकिन सत्ता में इस शर्त पर वह भाग लेने को तैयार हुए थे कि उन्हें चीफ़ एक्जीक्यूटिव जैसा शक्तिशाली पद दिया जाएगा। 

डॉ. अब्दुल्ला को मनाने की कोशिश

इस बार भी राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने अब्दुल्ला अब्दुल्ला को सरकार में बने रहने के लिये समझौते की पेशकश की है। इसमें कहा गया है कि दोनों मिल कर साझेदारी से सरकार चलाएंगे और इसमें  अफ़ग़ान कैबिनेट में 40 प्रतिशत हिस्सा देने के अलावा सुरक्षा और शांति-प्रशासन में अहम भूमिका देने का भी प्रस्ताव है। डॉ. अब्दुल्ला ने इसे स्वीकार करने के कोई संकेत नहीं दिये हैं लेकिन उन्हें मनाने की कोशिशें जारी हैं।

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अशरफ़ ग़नी को भी पता है कि डॉ. अब्दुल्ला को साथ लिये बिना उनकी सरकार अधिक दिनों तक नहीं चल सकती। खासकर ऐसे वक्त में जब अफ़ग़ानी सरकार के सीने पर तालिबानी बंदूक तान कर कहा जा रहा है कि अफ़ग़ानी लोग आपस में बातें कर अपने मसले सुलझाएंगे। इसलिये यह न केवल पूरी अफ़ग़ान कौम बल्कि दोनों प्रतिद्वंद्वी नेताओं के निजी राजनीतिक हितों के मद्देनजर भी उचित होगा कि दोनों प्रतिद्वंद्वी नेता साथ मिल कर चलें।  

29 फ़रवरी को तालिबान और अमेरिका के बीच जो समझौता हुआ था उसके अनुरुप 10 मार्च को अफ़ग़ानी तालिबान और अफ़ग़ान सरकार के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत शुरू होनी थी। स्वाभाविक है कि अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा सरकार जब तक अपने मसले नहीं सुलझा लेती है तब तक तालिबान के साथ बातचीत शुरू नहीं हो सकती।

फिर भिड़े अमेरिका और तालिबान 

तालिबान ने बातचीत शुरू होने से पहले ही अपने पांच हज़ार जेहादियों को अफ़ग़ानी जेलों से रिहा करने की मांग रख दी थी जिसे अफ़ग़ानी राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने यह कह कर नामंजूर कर दिया कि दोनों पक्षों के बीच बातचीत में कोई प्रगति होने के बाद ही जेहादियों को जेलों से रिहा किया जा सकता है। राष्ट्रपति ग़नी के इस रुख के बाद तालिबान ने भी अपने तेवर कड़े कर लिये और एक आतंकवादी हमले में कई अमेरिकी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। गुस्साये अमेरिका ने भी तालिबानी ठिकानों पर हवाई हमले किये और उन्हें भारी नुक़सान पहुंचाया। 

तालिबान-अमेरिका समझौते की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि तालिबान, अमेरिका और अफ़ग़ान सरकार ने अपने कड़े तेवर दिखाने शुरू कर दिये और अफ़ग़ानी पक्षों के बीच वार्ता करवाने की संधि की भावना तोड़ दी।

ऐसे में यदि अफ़ग़ानिस्तान सरकार के नेताओं के बीच आपसी एकता नहीं दिखाई देगी तो उसके प्रतिनिधि एक कमजोर पक्ष के तौर पर तालिबान से बात करते वक्त सौदेबाजी नहीं कर सकेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि तालिबान ने अमेरिका के साथ समझौता तालिबान के नाम पर नहीं बल्कि इसलामी अमीरात ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान के नाम से किया है। इसलिये तालिबान जब अफ़ग़ान सरकार से सौदेबाज़ी करेगा तो अफ़ग़ान सरकार की कैबिनेट में कुछ तालिबानी नेताओं को शामिल कर मंत्री बनाने के लिये नहीं बल्कि वह राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी से पूरी सरकार छोड़ने को कहेगा।  

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद उसे सरकार चलाने के लिये वित्तीय संसाधन की ज़रूरत होगी जिसे अमेरिका जारी नहीं रखना चाहेगा। जो यूरोपीय देश मौजूदा अफ़ग़ान सरकार को वित्तीय मदद दे रहे हैं, वे भी अपना हाथ खींच लेंगे और अफ़ग़ानी तालिबान सरकार एक बार फिर पाकिस्तान और चीन की मदद की मोहताज हो जाएगी।

अफ़ग़ानिस्तान में फिर होगा गृहयुद्ध!

अफ़ग़ानिस्तान से जान छुड़ाकर अमेरिका भले ही अपनी फौज़ स्वदेश भेज दे लेकिन वह पूरे इलाक़े को नये सिरे से युद्ध की ज्वाला को भेंट कर जाएगा। अफ़ग़ानिस्तान में करीब तीन लाख क्षमता वाली जो अफ़ग़ानी नैशनल आर्मी खड़ी की गई है अमेरिकी फौज़ के लौटने के बाद वह ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगी और पूरा देश एक बार फिर गृहयुद्ध की ज्वाला में धधकने लगेगा। अमेरिका इसकी आंच से कब तक बचा रह पाएगा यह कहना कठिन है। यह पूरा इलाक़ा एक बार फिर आतंकवादी संगठनों की शरणगाह बन जाए तो हैरानी नहीं होगी।

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रंजीत कुमार

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