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मोदी जी! लॉकडाउन बढ़ाइए लेकिन फँसे लोगों को उनके घर पहुँचाइए

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आधिकारिक घोषणा जब करेंगे तब करेंगे, लेकिन कोरोना के तेज़ होते कहर के चलते महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, तेलंगाना और उड़ीसा ने 30 अप्रैल तक तथा पंजाब ने 1 मई तक अपने यहाँ लॉकडाउन बढ़ाने का आधिकारिक एलान कर दिया है। दिल्ली और हरियाणा ने भी इसके लिए कमर कस ली है। आसार इस बात के हैं कि इस बार केंद्र की तरफ़ से कृषि, मत्स्यपालन गतिविधियों और आवास सुविधा वाली औद्योगिक इकाइयों को थोड़ी छूट मिल सकती है तथा ज़रूरी सेवाओं से जुड़े पुलिसकर्मी, स्वास्थ्यकर्मी, मीडियाकर्मी, सफ़ाईकर्मी आदि को ही काम पर बाहर निकलने दिया जाएगा। ऐसे में लॉकडाउन के चलते घर से सैकड़ों मील दूर बुरी तरह फँसे लोगों की चिंताएँ जस की तस हैं कि आख़िर उन्हें कौन सकुशल निकालेगा!

पहले से जारी 21 दिनों के लॉकडाउन को 14 अप्रैल से आगे बढ़ाना केंद्र और सभी राज्यों के लिए यक़ीनन एक बेहद मुश्किल, तकलीफदेह और चुनौतीपूर्ण फ़ैसला होगा। इसके बावजूद केंद्र सरकार को आर्थिक गतिविधियों में कुछ छूट देकर तथा अप्रभावित इलाक़ों में लगी पाबंदियों को थोड़ा ढीला करके यह कड़वी गोली खानी ही पड़ेगी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल का हालिया बयान है कि अगर देश में लॉकडाउन लागू नहीं किया गया होता तो कोरोना वायरस संक्रमण के मामले 41 प्रतिशत बढ़ जाते और 15 अप्रैल तक देश में 8.2 लाख से ज़्यादा मामले सामने आ सकते थे!

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आज ज़रूरत इस बात की है कि लॉकडाउन की वजह से देश के कोने-कोने में फँसे सभी लोगों को उनके गाँव-घर पहुँचाने की व्यवस्था की जाए। इनमें मज़दूरों समेत इलाज के लिए बाहर गए मरीज, सेल्समैन, पर्यटक और प्रोफ़ेशनल्स ही नहीं, विभिन्न संस्थानों के हॉस्टलों और गेस्ट हाउस में रहने तथा कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ने वाले अनगिनत विद्यार्थी भी शामिल हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया, गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, कोटा और इंदौर के आवासीय कोचिंग संस्थानों का नज़ारा दारुण है। इन होस्टलों और विश्वविद्यालयों में न तो पहले जैसा पढ़ाई-लिखाई का कोई माहौल बचा है और न ही कोई घर लौटने में सक्षम है। 

अब जबकि बहुत सारे विश्वविद्यालय परिसरों को क्वरेंटाइन क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है, तमाम छात्र-छात्राओं को वहाँ से हटाना अपरिहार्य है।

बेंगलुरु में अटके बेबस मज़दूरों की दुर्दशा के वीडियो वायरल हैं। जमुई ज़िला के तीन दर्जन लोग सहित बिहार के 135 प्रवासी सूरत जैसे व्यापारिक केंद्र में फँसे हैं और दाने-दाने को मोहताज हैं। लेकिन सूने में फँसी विशाल निरक्षर आबादी, जिसके पास अपनी व्यथा को सामने लाने के कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं, उनका पुरसाहाल कौन होगा? कोरोना से बुरी तरह प्रभावित राज्य महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने पिछले टीवी संबोधन के दौरान राज्य में फँसे सभी मज़दूरों की पूरी ज़िम्मेदारी ली थी। यक़ीनन वह अपनी तरफ़ से कोई कसर नहीं छोड़ रहे होंगे, लेकिन मुंबई शहर और आस-पास के नवी मुंबई, ठाणे, कल्याण, पनवेल और पालघर इलाक़े में ही यूपी, एमपी, बिहार और राजस्थान के लाखों मज़दूर फँसे हुए हैं।

मेरी जानकारी में मुंबई महानगरपालिका के स्लम एरिया- धारावी, नागपाड़ा, मदनपुरा, ताड़देव, वर्ली, रे रोड, मझगांव डॉक, वडाला, अंटाप हिल, चेम्बूर, गोवंडी, मानखुर्द, शिवाजी नगर, कुर्ला, बांद्रा, सांताक्रूज, साकीनाका, जोगेश्वरी, मालाड (पूर्व), मालवणी तथा बीएमसी के बाहर कलवा, मुम्ब्रा, भिवंडी, दहिसर, मीरा रोड, भायंदर, नालासोपारा, वसई, विरार में ही दस लाख से ज़्यादा मज़दूर फँसे हुए हैं, जो बैग निर्माण, लेदर और जरी व एम्ब्रॉयडरी वर्क, रेडीमेड गारमेंट, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन, वाचमैन का काम, टैक्सी-ऑटो चलाना का काम, वड़ा पाव और सब्जियों की फेरी तथा दुकानों की खुदरा सेल्समैन का काम करते हैं। 

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मज़दूरों के सामने भूखे मरने की नौबत

उन महिलाओं की संख्या भी बहुत बड़ी है जो लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा लगाकर, अमीरों के छोटे बच्चों की देखभाल और बंगलों में माली का काम करके, कारें धोकर, गलियों में फूल और महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधन का सामान बेच कर तथा हज़ार तरह के छोटे-मोटे काम करके अपना पेट पाल रही थीं। इन सबकी जेब खाली हो चुकी है और सरकारी सहायता पाने के लिए अधिकतर के पास ज़रूरी काग़ज़ात भी नहीं हैं। दिल्ली, कोलकाता, इंदौर, सूरत, लुधियाना जैसे रोजी-रोटी देने वाले कई शहरों में लाखों मज़दूर दड़बों में बंद हैं और बाहर न निकल पाने के कारण उनके भूखे मरने के हालात पैदा हो गए हैं।

ऐसे में सरकार का फर्ज बन जाता है कि फँसे हुए सभी लोगों के खाने-पीने की उचित व्यवस्था करके सकुशल उनको अपने-अपने घर पहुँचाया जाए।

लेकिन घर पहुँचने के बाद भी आर्थिक तौर पर सबसे निचले पायदान पर खड़े इन मेहनतकशों के सामने सबसे विकट समस्या दो वक़्त का भोजन जुटाने की होगी। केंद्र सरकार तथा यूपी, बिहार, दिल्ली जैसी कुछ और राज्य सरकारें बीपीएल व निराश्रित पेंशन धारकों, मनरेगा के मज़दूरों, महिला जनधन खाताधारकों को नकदी और राशन का सहारा देने का सराहनीय उपक्रम कर रही हैं। लेकिन करोड़ों ग़रीब ऐसे हैं, जो इन सभी दायरों से बाहर हैं। मात्र नेकनीयती और समाजसेवा के दम पर इन्हें भूखे मरने से नहीं बचाया जा सकता! 

लॉकडाउन का असर यह है कि आवागमन के साधन अचानक ठप हो जाने के कारण जो जहाँ था, वहीं फँस गया है। नई मुसीबत यह है कि विश्व बैंक ने 12 अप्रैल की अपनी ताज़ा रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि प्रवासी मज़दूरों का हुजूम अन्य राज्यों और गाँवों में कोरोना वायरस का आसान रोगवाहक बन सकता है। ऐसे में हम छात्र-छात्राओं को भी निरापद नहीं मान सकते। देशबंदी की अगली अवधि में इन सबको उनके मौजूदा स्थलों और गृह-राज्यों की सीमाओं पर संपूर्ण परीक्षण के बाद ही तमाम सावधानियाँ बरतते हुए प्रवेश देना होगा।

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मैं यह डराने के लिए नहीं लिख रहा हूँ लेकिन भारत के लिए ख़तरे की घंटी बज चुकी है और अपने देश में कोरोना संक्रमित मरीजों की मृत्यु दर चीन, अमेरिका और फ्रांस से ज़्यादा हो चुकी है। भारत में जब 7000 लोग संक्रमित थे तब उनमें से 249 मौतें हुई थीं। जर्मनी, दक्षिण कोरिया और अमेरिका में संक्रमण की संख्या 7000 पहुँचने पर मौत का आँकड़ा क्रमशः 13, 54 और 100 का था। चिंताजनक बात यह है कि कोरोना पर पूरी तरह नियंत्रण पाकर लॉकडाउन खोलने का दावा करने वाले चीन में कल 100 से ज़्यादा नए मामले दर्ज किए गए हैं। अपने देश में भी कोरोना पीड़ितों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। लेकिन यह वक़्त डराने, भयातुर होने और आँकड़ेबाज़ी करने का नहीं है, और न ही यह किसी की नुक्ताचीनी करने का मौक़ा है। यह सबके बचने और बचाने का वक़्त है और जैसा कि पीएम मोदी जी ने कहा है कि ‘जान है तो जहान है’ वाले मुहावरे को लॉकडाउन की बढ़ी हुई अवधि में ‘जान भी जहान भी’ के रूप में देखना और अमल करना पड़ेगा।
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विजयशंकर चतुर्वेदी

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