लॉकडाउन की वजह से प्राइवेट कंपनियों में काम करने वाले लोग इन दिनों वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं। वर्क फ्रॉम होम कर्मचारियों और संस्थानों दोनों के लिए मुफीद साबित हो सकता है।
क्या 14 अप्रैल के बाद लॉकडाउन ख़त्म होगा। लेकिन इससे अहम सवाल है कि केंद्र और राज्य सरकारें लॉकडाउन के बाद पैदा होने वाले हालात से निपटने के लिए तैयार हैं?
कोरोना वायरस से व्याप्त वर्तमान माहौल में सबसे नाजुक स्थिति विभिन्न आयु-समूहों के बच्चों और विद्यार्थियों की है। वायरस से बचाने के लिए बच्चों के स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए गए हैं और वे बड़ों के साथ घरों में कैद रहने को मजबूर हैं।
लॉकडाउन के कारण महानगरों को छोड़कर जा रहे मजदूरों की खिल्ली उड़ाने वाले लोग दंभ से भरे हुये हैं। शायद ये भूल गये हैं कि इन महानगरों को इन्हीं लोगों ने खड़ा किया है।
जब चीन और अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश कोरोना वायरस का मुक़ाबला नहीं कर पा रहे हैं तो हम कैसे करेंगे? मुश्किल यह है कि हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं भी बेहद ख़राब हैं।
चुनाव में उम्मीदवारों का चयन सिर्फ़ एक योग्यता पर होता है कि वे बस किसी भी क़ीमत पर जीत सकते हों भले ही वे दागी ही क्यों न हों। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे लेकर सख़्ती दिखाई है।
साल 2020 की फ़रवरी में हुए दिल्ली के हालिया दंगे को देख कर कलेजा मुँह को आता है। दंगों का ज्वार थमने के बाद मीडिया और पुलिस का रवैया भी कुछ ठीक नहीं है।
‘द इकोनॉमिस्ट ग्रुप’ की इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट की ओर से जारी लोकतंत्र सूचकांक 2019 की वह वैश्विक सूची, जिसमें भारत पिछले वर्ष के मुक़ाबले 10 पायदान लुढ़क कर 51वें स्थान पर जा गिरा है।
धार्मिक भेदभाव को हवा देने वाले नागरिकता क़ानून और एनआरसी के विरोध में करोड़ों भारतीय नागरिकों के साथ हिंदू-मुसलिम महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर देशव्यापी आंदोलन कर रही हैं।
नागरिकता संशोधन विधेयक के पारित होने के बाद से सोशल मीडिया पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का जो मौहाल तैयार किया जा रहा है, क्या वह स्वतस्फूर्त है या इसके पीछे किसी की साजिश है?
महाराष्ट्र में सूखे के कहर से चौतरफ़ा कोहराम मचा हुआ है। राज्य के 26 ज़िलों में सूखे की स्थिति है। पीने के पानी की किल्लत तो है ही किसानों की पूरी फ़सल बर्बाद हो गई है। तो कौन है इसका ज़िम्मेदार?
जिस देश की 60 फ़ीसदी आबादी रोजाना तीन डॉलर यानी 210 रुपये से कम की आमदनी में अपना गुजारा करती है, वहाँ एक अनुमान के मुताबिक़ 2019 के आम चुनाव में प्रति वोटर आठ डॉलर यानी 560 रुपये ख़र्च होने जा रहा है।
पुलवामा हमले में भारतीय ख़ुफ़िया-तंत्र की विफलता पर कोई सवाल न उठाकर, कश्मीरियों को इसका ज़िम्मेदार क्यों माना जा रहा है? उन्हें मार-पीट कर खदेड़े जाने की घटनाएँ क्यों हो रही हैं?