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कोरोना वैक्सीन पर क्यों लटकी फ़तवे की तलवार?

पोलिया ड्रॉप के मामले में देखा गया है कि मुसलिम समाज के बड़े तबक़े ने अपने बच्चों को दवाई नहीं पिलाई। इस बारे में अफवाह फैलाई गई कि यह मुसलिम बच्चों की प्रजनन क्षमता को ख़त्म करने की साज़िश है। नतीजा यह रहा है कि अब जब भी कहीं पोलियो के मामले सामने आते हैं तो उनमें 99 फ़ीसदी बच्चे मुसलमान होते हैं। कोरोना वैक्सीन पर फ़तवे की तलवार लटका कर समाज के बड़े तबक़े को इससे दूर करने की साज़िश है। 
यूसुफ़ अंसारी

देश में कोरोना वैक्सीन अगले महीने से लगनी शुरू होनी है। लेकिन इससे पहले ही इस पर फ़तवे की तलवार लटक गई है। मुसलिम धर्म गुरुओं नें कोरोना वैक्सीन के हलाल या हराम होने को लेकर बहस छेड़ दी है। इससे मुसलिम समाज में इसे लगवाने या नहीं लगवाने का असमंजस पैदा हो गया है। मुसलिम समाज इसे लेकर पोलियो ड्राप्स की तरह दो ख़ेमों में बँटता नज़र आ रहा है।

कोरोना वैक्सीन पर बहस की शुरुआत आए दिन बात-बात पर फ़तवा देने के लिए बदनाम हो चुकी मुंबई की रज़ा अकादमी ने की है। अकादमी से जुड़े मौलाना सईद नूरी ने कहा कि पहले वह चेक करेंगे कि वैक्सीन हलाल है या नहीं। उनकी मंजूरी के बाद ही मुसलमान इस दवा को लगवाने के लिए आगे आएँ। मौलाना सईद नूरी ने अपने वीडियो बयान में कहा है, ‘भारत सरकार से हमारी गुज़ारिश है कि वो चीन में बनी कोरोना वैक्सीन न मँगाए क्योंकि इसमें सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया गया है। किसी दूसरे देश में बनी वैक्सीन या अपने देश में बनी वैक्सीन के कंटेंट भी हमारे उलेमा किराम को दिखाए जाएँ ताकि हम भी आश्वस्त होकर यह ऐलान कर सकें कि इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।’

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ग़ौरतलब है कि जब से कोरोना वैक्सीन आने की सुगबुगाहट हुई है तभी से दुनिया भर के मुसलमानों के बीच इसके हलाल या हराम होने को लेकर चर्चा है। ऐसे ही सवाल पूर्व में पोलियो की दवाई आने और ख़सरा के टीके को लेकर भी उठे थे। ऐसे सवाल हर दवाई या टीके पर उठते रहे हैं। पिछले कुछ दशकों में यह देखा गया है कि हर नई दवाई या टीका सामने आने के बाद उसमें सुअर की चर्बी के इस्तेमाल के नाम पर पहले कुछ उलेमा इसे हराम बताते हैं। फिर कुछ उलेमा इसके समर्थन में आगे आकर कहते हैं कि जान बचाने के लिए इसके इस्तेमाल में कोई हर्ज नहीं है। इस तरह मुसलमानों के लिए हराम चीज़ के हलाल होने में कई साल लग जाते हैं।

आज कोरोना को लेकर भी दुनियाभर के मौलाना-मुफ्तियों में असमंजस बना हुआ है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह हलाल विधि से बनी है या हराम तरीक़े से? अगर इसमें सुअर के मांस या चर्बी का इस्तेमाल हुआ है तो क्या क़ुरआन के तहत इसे लगवाना जायज़ होगा या नहीं? इस बहस पर इस्लामिक स्कॉलर अतीक़ुर्रहमान रहमान का कहना है, ‘अल्लाह ताला ने जान बचाने के लिए हराम की चीजों के इस्तेमाल की इजाज़त दी है। उनका मानना है, मुसलिम धर्म गुरुओं का काम समाज को जागरूक करना है। इसलिए इस काम में यानी कोरोना वैक्सीन लगाने के अभियान में कोई रुकावट नहीं आनी चाहिए।’

लखनऊ के मौलाना ख़ालिद रशीद फिरंगी महली ने अपने समुदाय के लोगों से किसी अफ़वाह में आने के बजाए बेफ़िक्र होकर वैक्सीन लगवाने की सलाह दी है। उन्होंने कहा कि जान की हिफाजत सबसे बड़ी चीज है इसलिए सभी सामान्य तरीक़े से वैक्सीन लगवाएँ।

वैक्सीन को पार्टी या लीडर या राजनीति के चश्मे से देखना सरासर ग़लत है। इसी साल वजूद में आए मुसलिम बुद्धिजीवियों के थिंक टैंक इंपार के चेयरमैन डॉ. एम जे ख़ान भी कहते हैं कि मुसलमानों को किसी अकादमी या किसी मज़हबी संगठन के फ़तवे के चक्कर में पड़कर कोरोना से लड़ी जा रही लड़ाई को कमज़ोर नहीं करना चाहिए। कोरोना वैक्सीन मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों को बचाने के लिए है।

coronavirus pork gelatin controversy and muslim fatwa - Satya Hindi

ग़ौरतलब है कि यह बहस सिर्फ़ भारत में ही नहीं चल रही है। पूरी मुसलिम दुनिया इसकी चपेट में है। सबसे ज़्यादा मुसलिम आबादी वाले देश इंडोनेशिया में भी इस पर बवाल मचा हुआ है। राष्‍ट्रपति जोको विडोडो कोरोना वैक्‍सीन को लेकर जल्‍दबाज़ी के हक़ में नहीं हैं। वहाँ पहले साल 10 करोड़ से अधिक लोगों को टीका लगाने का वादा किया था, लेकिन अब बड़ी चुनौती बता रहे हैं। राष्‍ट्रपति ने कहा कि टीकाकरण के पहले वह यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि वैक्सीन पूरी तरह हलाल है। ग़ौरतलब है कि 2018 में इंडोनेशिया उलेमा काउंसिल ने एक फ़तवा जारी कर खसरे के टीके को हराम घोषित किया था।

दरअसल, क़ुरआन में मुसलमानों को कुछ चीज़ों को खाने से सख़्ती से मना किया गया है यानी उन्हें हराम क़रार दिया गया है। सूरः अलक़रा की आयत न. 173 में कहा गया है, ‘उसने तो केवल मुर्दार (मरा हुआ जानवर), ख़ून, सुअर का मांस और ऐसा जानवर जिसे अल्लाह के अलावा किसी और के नाम पर ज़िबह किया गया हो। इस पर जो बहुत मजबूर और विवश हो जाए, वह अवज्ञा करने वाला न हो और सीमा से आगे बढ़ने वाला न हो तो उस पर कोई गुनाह नहीं। बेशक अल्लाह दयावान और माफ़ करनेवाला है।’

क़ुरआन की इसी आयत को आधार बनाकर रज़ा अकादमी ने कोरोना वैक्सीन को हराम क़रार दिया है। वहीं इसी के आधार पर संयुक्त अरब अमीरात के शीर्ष इस्लामी निकाय ने इसे जायज़ क़रार दे दिया है।

यूएई फ़तवा काउंसिल ने क्या कहा?

यूएई फ़तवा काउंसिल ने कोरोना वायरस टीकों में पोर्क (सुअर के मांस) के जिलेटिन का इस्तेमाल होने पर भी इसे मुसलमानों के लिये जायज़ क़रार दिया है। काउंसिल के अध्यक्ष शेख़ अब्दुल्ला बिन बय्या ने कहा कि अगर कोई और विकल्प नहीं है तो कोरोना वायरस टीकों को इस्लामी पाबंदियों से अलग रखा जा सकता है क्योंकि पहली प्राथमिकता मनुष्य का जीवन बचाना है।

काउंसिल ने कहा है कि इस मामले में पोर्क-जिलेटिन को दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाना है न कि भोजन के तौर पर। ऐसे में मुसलमान कोरोना वैक्सीन को आराम से लगवा सकते हैं। बताया जा रहा है कि टीकों में सामान्य तौर पर पोर्क जिलेटिन का इस्तेमाल होता है। इससे उन मुसलिमों की चिंता बढ़ गई है जो पोर्क से बने उत्पादों के प्रयोग को 'हराम' मानते हैं। इस सोच के उलेमा ने चॉकलेट, चिप्स, पिज्जा, बर्गर और कई ऐसे उत्पादों को हराम क़रार दे रखा है जिनमें सुअर की चर्बी के इस्तेमाल का शक है। कई मुसलिम देशों में इन पर पाबंदी भी लगी हुई है।

सुअर के मांस का प्रमाण नहीं

हालाँकि कोरोना वैक्सीन के मामले में अभी तक यह बात प्रामाणिक रूप से सामने नहीं आई है कि इसमें सुअर के मांस या चर्बी का इस्तेमाल हुआ है। किसी फ़ार्मा कंपनी या मेडिकल एक्सपर्ट ने इसकी पुष्टि नहीं की है। फिर भी इसमें पोर्क जिलेटिन के इस्तेमाल की चर्चा दुनिया भर में है। मेडिकल साइंस के विशेषज्ञों का कहना है कि जब किसी पशु से एंटीबॉडी लेकर वैक्सीन बनाई जाती है तो उसे वेक्टर वैक्सीन कहा जाता है। लेकिन कोरोना के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं है। स्वदेशी कोरोना वैक्सीन भारत बायोटेक के साथ रिसर्च करने वाले शोधकर्ता डॉक्टर चन्द्रशेखर गिल्लूरकर का कहना है कि सुअर और कोरोना वैक्सीन का कोई संबंध नहीं है।

सवाल यह है कि जो मुसलिम संगठन वैक्सीन की जाँच करके यह बताने का दावा रहे हैं कि मुसलमानों के लिए इसका इस्तेमाल जायज़ है या नहीं, वे जाँच करेंगे कैसे?

क्या उनके पास यह जाँचने का कोई तरीक़ा है कि वैक्सीन में पोर्क जिलेटिन का इस्तेमाल हुआ है या नहीं। क्या दुनिया की किसी इस्लामी विश्वविद्यालय में ऐसी कोई लैब बनाई गई है जो इस बात की पुष्टि कर सके कि वैक्सीन इस्लामी तरीक़े से बनाई गई या नहीं। अगर उलेमा को इस बात की इतनी ही चिंता है तो उन्हें हायतौबा मचाने के बजाए इसलामी शिक्षा केंद्रों में ऐसे अनुसंधान केंद्र खोलने चाहिए जहाँ इसलामी तरीक़े से दवाइयाँ, वैक्सीन और इंजेक्शन वगैरह बनाए जा सकें।

coronavirus pork gelatin controversy and muslim fatwa - Satya Hindi

पोलिया ड्रॉप के मामले में देखा गया है कि मुसलिम समाज के बड़े तबक़े ने अपने बच्चों को दवाई नहीं पिलाई। इस बारे में अफवाह फैलाई गई कि यह मुसलिम बच्चों की प्रजनन क्षमता को ख़त्म करने की साज़िश है। नतीजा यह रहा है कि अब जब भी कहीं पोलियो के मामले सामने आते हैं तो उनमें 99 फ़ीसदी बच्चे मुसलमान होते हैं। कोरोना वैक्सीन पर फ़तवे की तलवार लटका कर समाज के बड़े तबक़े को इससे दूर करने की साज़िश है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि यह साज़िश वो कर रहे हैं जिन पर मुसलमानों को जागरूक करने की ज़िम्मेदारी है।

इससे मुसलमानों के ख़िलाफ़ कट्टरपंथी हिंदू संगठनों को एक और हथियार मिल जाएगा। इससे निश्चित तौर पर कोरोना के ख़िलाफ़ जंग कमज़ोर होगी। इसके लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। उन पर हमले होंगे। इससे बचने के लिए ज़रूरी है कि कोरोना वैक्सीन को फ़तवेबाज़ी करके विवाद का विषय न बनाया जाए। मुसलमानों को इस पर ग़ौर करना चाहिए कि अगर अल्लाह ने क़ुरआन में जान बचाने के लिए हराम चीज़ें खाने की छूट दे दी है तो अल्लाह की दी हुई इस छूट को ख़त्म करने का अधिकार किसी को नहीं है। लिहाज़ा मुसलमान उलेमा की बजाए अपनी अक़्ल का इस्तेमाल करके ख़ुद को कोरोना और फजीहत से बचाएँ।
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