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दिल्ली के चुनाव में राम भक्तों पर कैसे भारी पड़े हनुमान भक्त केजरीवाल?

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी यानी आप ने क़रीब-क़रीब 2015 का अपना प्रदर्शन दोहराया है। वहीं बीजेपी के प्रदर्शन में भी सुधार हुआ है और पार्टी का न सिर्फ़ मत प्रतिशत बढ़ा है, बल्कि पिछले चुनाव की तुलना में ज़्यादा सीटें भी मिली हैं। बीजेपी की धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाले भले ही दिल्ली के चुनाव परिणाम से अति उत्साहित हों, लेकिन परिणाम भारतीय राजनीति में ख़तरे की घंटी है।

ऐसा कहा जा रहा है कि दिल्ली में विकास की राजनीति जीती है। मुफ़्त बस सेवा, मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी, मोहल्ला क्लीनिक, बेहतर स्कूल मुहैया कराने की राज्य के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की रणनीति काम आई है। संभव है कि इसका थोड़ा बहुत असर पड़ा हो। इस तरह के मुफ़्त का वादा सिर्फ़ आप ने नहीं बल्कि कांग्रेस और बीजेपी ने भी किया था। कांग्रेस के शासनकाल में भी स्कूल में पढ़ने वाली बच्चियों को मानदेय, उनके जन्म के समय खाते में पैसे डालने जैसी योजनाएँ चलती रही हैं। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने तो पीएम-किसान से लेकर मुफ़्त गैस कनेक्शन, मुफ़्त बिजली कनेक्शन देने जैसे तमाम क़दम उठाए हैं। साथ ही बीजेपी ने विधानसभा में जीत के बाद भी छूटों की बौछार करने के वादे किए थे। ऐसे में यह मान लेना कि आप की मुफ़्त बिजली-पानी की रणनीति उसे चुनाव जिताने में कामयाब रही है, यह सिर्फ़ एक बयानबाज़ी है।

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क्या दिल्ली में सचमुच विकास मसला है?

दिल्ली में विकास की राजनीति करने के लिए कुछ ख़ास नहीं होता है। नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे और शीला दीक्षित दिल्ली में मुख्यमंत्री थीं तो उन्होंने बड़ा दिलचस्प बयान दिया था कि शीला जी देश की एकमात्र मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें सिर्फ़ फीते काटना होता है, राज्य में न किसानों की समस्या है, न सिंचाई की। यह सच है। दिल्ली देश की राजधानी है और केंद्र की कवायद रहती है कि यहाँ वैश्विक स्तर की बुनियादी ढाँचा-सुविधाएँ उपलब्ध रहें, चाहे वह क़ानून व्यवस्था का मसला हो, बिजली का मसला हो, पानी का मसला हो या सड़क का। दिल्ली हमेशा से बिजली कटौती से मुक्त रहा है, जब बिहार जैसे राज्यों की राजधानी में 8 घंटे बिजली कटौती होती थी। यहाँ की सड़कों व अस्पतालों पर देश के अन्य राज्यों की तुलना में प्रति कर्मचारी या प्रति बेड कई गुना ज़्यादा ख़र्च किए जाते रहे। आशय यह कि दिल्ली में कोई भी सरकार रहे, विकास होना ही होना है। इस मामले में भी यहाँ करने के लिए कुछ भी नहीं है।

जहाँ तक दिल्ली के स्लम का मसला है, पैसे वाले लोगों के पास दया भी बहुत होती है। कंपनियों के हज़ारों कार्यक्रम चलते हैं, क्योंकि उन्हें कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी यानी सीएसआर दिखानी होती है। यह रिस्पॉन्सिबिलिटी अगर वह कहीं बिहार के पिछड़े इलाक़े में दिखाएँ तो मीडिया में नहीं दिखेगी। सीएसआर दिखे, इसके लिए ज़रूरी है कि या तो दिल्ली में काम किया जाए, या किसी ऐसे इलाक़े में काम किया जाए, जहाँ लोग बिल्कुल ही भूख से मरने के कगार पर हों। कंपनियों के लिए दिल्ली में काम करना आसान है। इसके अलावा यहाँ लंगर कल्चर भी है, जो दिल्ली का लोवर मिडिल व अपर मिडिल क्लास दिखावे के लिए या ईश्वर की कृपा और पुण्य लाभ के लिए गली-गली में चलाता रहता है। ऐसे में ग़रीब तबक़े को भी खाने-पीने को मिल जाता है। ऐसे में दिल्ली विकास का कोई मसला है ही नहीं।

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धार्मिक ध्रुवीकरण

दिल्ली के चुनाव के पहले ही नहीं, 2014 के चुनाव में भारी जीत के बाद से बीजेपी लगातार दिल्ली को धार्मिक ध्रुवीकरण के केंद्र के रूप में इस्तेमाल करती रही है। महज 10,000 विद्यार्थियों की क्षमता वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को धार्मिक ध्रुवीकरण का बड़ा अखाड़ा बनाया गया। जेएनयू में पाकिस्तान के समर्थन वाले और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ नारे लगते हैं, यह बताकर बीजेपी ने देश भर में लोगों को गोलबंद किया। देश के तमाम इलाक़ों में जहाँ जेएनयू का पूरा नाम भी नहीं जाना जाता है, वहाँ भी बीजेपी ने घर-घर पहुँचा दिया कि जेएनयू ऐसी जगह है, जहाँ भारत विरोधी नारे लगते हैं और बीजेपी ही इस ख़तरे से बचा सकती है। 

इस तरह का ही एक केंद्र दिल्ली के शाहीन बाग़ को बनाया गया। शुरुआत में आप के विधायक अमानतुल्ला ख़ान की शाहीन बाग़ में सक्रियता की ख़बरें आईं। उसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शाहीन बाग़ को लेकर कुछ भी नहीं बोला। 

केजरीवाल आख़िरकार हनुमान चालीसा पर केंद्रित होकर सॉफ़्ट हिंदू बन गए। बहुत रणनीतिक तौर पर मनीष सिसोदिया ने शाहीन बाग़ के पक्ष में बयान दिया, जिससे कहीं कोई कन्फ्यूज़न न रह जाए कि मुसलमानों की असली रक्षक आप है, उसे कांग्रेस का विकल्प चुनने की ज़रूरत नहीं है।

बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ा

चुनाव में बीजेपी बुरी तरह हारी। लेकिन अगर मत प्रतिशत देखें तो 2015 के 32.10 प्रतिशत की तुलना में 2020 में बीजेपी पर 38.51 प्रतिशत लोगों ने भरोसा जताया है। वहीं आप का मत प्रतिशत 2015 के 54.30 प्रतिशत से घटकर 2020 में 53.57 प्रतिशत पर आ गया है। इसमें कांग्रेस व अन्य दलों को भारी नुक़सान उठाना पड़ा है और तीसरा पक्ष पूरी तरह से सिमट गया है। 

साफ़ है कि दिल्ली में इस तरह से भयानक धार्मिक गोलबंदी हुई है। ग़ैर-बीजेपी में आप एक ऐसे विकल्प के रूप में उभरी है जो बीजेपी को हरा सकती है। यही 2015 के चुनाव में भी हुआ था, जब केजरीवाल ने एक चैनल से बातचीत में कहा कि लिखकर दे रहा हूँ कि कांग्रेस को शून्य सीटें मिलन जा रही हैं और साफ़ तौर पर बीजेपी की धार्मिक राजनीति के ख़िलाफ़ गोलबंदी हुई और आप की बंपर जीत हुई। ऐसा ही बिहार के विधानसभा चुनाव में लंबे समय से हो रहा है, जहाँ लालू प्रसाद के दल के मत तो फ़िक्स रहते हैं, लेकिन उनके ख़िलाफ़ मतों की गोलबंदी कर नीतीश कुमार का दल जीत जाता है।

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बीजेपी कहाँ चूकी

विधानसभा चुनाव में बीजेपी की यह लगातार कवायद रही कि मुसलमानों को लेकर डर का माहौल बना रहे। बीजेपी के सांसदों ने यह डर लोगों के घरों में घुसाने की कवायद भी की और परोक्ष रूप से कहा कि दिल्ली में बीजेपी सरकार नहीं आई तो मुसलमान हिंदुओं के घरों में घुसकर उनकी बहू-बेटियों को उठा ले जाएँगे। इतना ही नहीं, देश के गृह मंत्री ने भी शाहीन बाग़ के धरने को मसला बनाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो पाकिस्तान को कंपाने तक पहुँच गए। कुल मिलाकर बीजेपी की रणनीति मुसलमान व पाकिस्तान से हिंदुओं को डराने की ही रही और पूरा मुद्दा इसी पर केंद्रित रहा। बीजेपी लोगों को डराने में कामयाब भी रही और कम से कम दिल्ली के 6.4 प्रतिशत अतिरिक्त मतदाता मुसलमानों और पाकिस्तान से डरे और उन्होंने बीजेपी का मत प्रतिशत 38.51 पर पहुँचा दिया। बीजेपी की असफलता की बड़ी वजह यह रही कि वह इतने लोगों को नहीं डरा सकी कि लोग उसे जीत तक पहुँचा दें।

कुछ लोगों को बीजेपी की यह रणनीति ख़राब लगी और उन्होंने गोलबंद होकर आप को मतदान कर दिया, जो संभवतः कांग्रेस, बसपा या निर्दलीय समेत अन्य विकल्पों पर जाना पसंद करते। लेकिन उनके मन में संभवतः यह डर हुआ कि बीजेपी अगर सत्ता में आती है तो दंगे जैसा माहौल रहेगा और कामकाज सामान्य नहीं हो पाएगा।

इस तरह से देखें तो धार्मिक ध्रुवीकरण ने ही दिल्ली विधानसभा चुनाव में अहम भूमिका निभाई है। पाकिस्तान और मुसलमानों के संभावित हमले से बचने के लिए एक वर्ग ने बीजेपी का साथ दिया, वहीं इस तरह की राजनीति से डरे लोगों ने बीजेपी को हराने के लिए आप के पक्ष में मतदान कर दिया। इसके अलावा दिल्ली चुनाव में कोई मसला नहीं रहा। बीजेपी की हार की मुख्य वजह यह रही कि वह डर को अपने पक्ष में इतने मतदान में कनवर्ट नहीं करा सकी कि उसे सत्ता की चाबी मिल जाए। लेकिन इस चुनाव में भी बीजेपी इस प्रयोग में सफल रही है कि अगर एक मज़बूत चेहरा दिया जाए और धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति की जाए जो वह भारत में सबसे सफल राजनीति बनी हुई है। लोकसभा चुनाव में ऐसा करना बीजेपी के लिए घाटे का सौदा नहीं होगा।

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प्रीति सिंह

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