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पत्रकारिता, सर्वोच्च मान्यताओं के अजातशत्रु थे ललित सुरजन

ललित जी का जाना मेरे लिए बहुत बड़ा व्यक्तिगत नुक़सान है। उनके साथ ख़ान मार्केट के बाहरी संस की किताब की दुकान पर जाना एक ऐसा अनुभव है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह मेरे लिए एक शिक्षा की यात्रा भी होती थी। जो भी किताब छपी उसको उन्होंने अवश्य पढ़ा। अभी राष्ट्रपति बराक ओबामा की किताब आई है, उसका इंतज़ार वह बहुत बेसब्री से कर रहे थे।  
शेष नारायण सिंह

ललित सुरजन जी चले गए। 74 साल की उम्र भी जाने की कोई उम्र है लेकिन उन्होंने हमको अलविदा कह दिया। देशबंधु अख़बार के प्रधान संपादक थे। वह एक सम्मानित कवि व लेखक थे। सामाजिक मुद्दों पर बेबाक राय रखते थे, उनके लिए शामिल होते थे इसलिए उनके जानने वाले उन्हें एक सामाजिक कार्यकर्ता भी मानते हैं। वह साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सद्भाव व विश्व शांति से सम्बंधित मुद्दों पर हमेशा बेबाक राय  रखते थे। दुनिया भर के देशों की संस्कृति और रीति-रिवाजों की जानकारी रखने का भी उनको बहुत शौक़ था।  उनके स्तर का यात्रा वृत्तान्त लिखने वाला मैंने दूसरा नहीं देखा। ललित सुरजन एक आला और नफीस इंसान थे। देशबन्धु अख़बार के संस्थापक स्व. मायाराम सुरजन के बड़े बेटे थे।

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मायाराम जी मध्य प्रदेश के नेताओं और पत्रकारों के बीच बाबू जी के रूप में पहचाने जाते थे। वह मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के मार्गदर्शक माने जाते थे। उन्होंने मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन को बहुत ही सम्मान दिलवाया। वह नए लेखकों के लिए ख़ास शिविर आयोजित करते थे और उनको अवसर देते थे। बाद में उनमें से बहुत सारे लेखक बहुत बड़े साहित्यकार बने, उनमें से एक महान साहित्यकार प्रोफ़ेसर काशीनाथ सिंह भी हैं। ‘अपना मोर्चा‘ जैसे कालजयी उपन्यास के लेखक डॉ. काशीनाथ सिंह ने मुझे एक बार बताया कि मायाराम जी ने उनको बहुत शुरुआती दौर में मंच दिया था। महान लेखक हरिशंकर परसाई जी से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे। 

स्व. मायाराम जी के सारे सद्गुण ललित जी में भी थी। उन्होंने 1961 में  देशबन्धु में एक जूनियर पत्रकार के रूप में काम शुरू किया। उनको साफ़ बता दिया गया था कि अख़बार के संस्थापक के बेटे होने का कोई विशेष लाभ नहीं होगा, अपना रास्ता ख़ुद तय करना होगा, अपना सम्मान कमाना होगा, देशबंधु केवल एक अवसर  है, उससे ज़्यादा कुछ नहीं। ललित सुरजन ने वह सब काम किया जो एक नए रिपोर्टर को करना होता है। और अपने महान पिता के सही अर्थों में वारिस बने। पिछले साठ साल की मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की हर राजनीतिक गतिविधि को उन्होंने एक पत्रकार के रूप में देखा, अपने स्वर्गीय पिता जी को आदर्श माना और कभी भी राजनीतिक नेताओं के सामने सर नहीं झुकाया।

द्वारिका प्रसाद मिश्र और रविशंकर शुक्ल उनके पिता स्व. मायाराम जी सुरजन के समकालीन थे, इस लिहाज़ से उनको वह सम्मान तो दिया लेकिन उनकी राजनीति का हथियार कभी नहीं बने, अपने अख़बार को किसी भी नेता के हित के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया।

जब दिसंबर 1994 में मायाराम जी का स्वर्गवास हुआ तो अख़बार की पूरी ज़िम्मेदारी उनके कन्धों पर आ गयी। दिल्ली, रायपुर, बिलासपुर, भोपाल, जबलपुर, सतना और सागर से छपने वाले अख़बार को  मायाराम जी की मान्यताओं के हिसाब से निकालते रहे।

ललित जी बहुत ही विनम्र और दृढ़ व्यक्ति थे अपनी सही मान्यताओं से कभी समझौता नहीं किया। कई बार बड़ी क़ीमतें भी चुकाईं। अख़बार चलाने में आर्थिक तंगी भी आई और अन्य परशानियाँ भी हुईं लेकिन यह अजातशत्रु कभी झुका नहीं। उन्होंने कभी किसी से दुश्मनी नहीं की। जिन लोगों ने उनका नुक़सान किया उनको भी हमेशा माफ़ करते रहे। ललित सुरजन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कभी भी बदला लेने की भावना से काम नहीं किया।

ललित जी अपने भाइयों को बहुत प्यार करते। सभी भाइयों को देशबंधु के अलग-अलग संस्करणों की ज़िम्मेदारी दे दी। आजकल वानप्रस्थ जीवन जी रहे थे लेकिन लेखन में एक दिन की भी चूक नहीं हुई। कोरोना के दौर में उनको कैंसर का पता लगा, विमान और ट्रेन सेवाएँ ठप थीं लेकिन उनके बच्चों ने उनको विशेष विमान से दिल्ली में लाकर इलाज शुरू करवाया। वह कैंसर से ठीक हो रहे थे। उनकी मृत्यु ब्रेन हैमरेज से हुई। कैंसर का इलाज सही चल रहा था लेकिन काल ने उनको ब्रेन हैमरेज देकर उठा लिया।

ललित जी का जाना मेरे लिए बहुत बड़ा व्यक्तिगत नुक़सान है। उनके साथ ख़ान मार्केट के बाहरी संस की किताब की दुकान पर जाना एक ऐसा अनुभव है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह मेरे लिए एक शिक्षा की यात्रा भी होती थी।

जो भी किताब छपी उसको उन्होंने अवश्य पढ़ा। अभी राष्ट्रपति बराक ओबामा की किताब आई है, उसका इंतज़ार वह बहुत बेसब्री से कर रहे थे।  उनके जन्मदिन पर बधाई सन्देश का  मैसेज करने के बाद मैं उनके फ़ोन का इंतज़ार करता रहता था कि अब फ़ोन आने वाला है। हुआ यह था उनके असली जन्मदिन और फ़ेसबुक पर लिखित जन्मदिन में थोड़ा अंतर था।

अगर ग़लत वाले दिन मैसेज लिख दिया तो फ़ोन करके बताते थे, शेषजी आपसे ग़लती हो गयी। जब किसी साल सही वाले पर मैसेज दे दिया तो कहते थे कि इस बार आपने सही मैजेस भेजा। अब यह नौबत कभी नहीं आयेगी क्योंकि अब उनके जीवन में कराल काल ने एक पक्की तारीख़ लिख दी है। वह उनकी मृत्यु की तारीख़ है। इस मनहूस तारीख़ को उनका हर चाहने वाला कभी नहीं भुला पायेगा। उनके अख़बार में मैं काम करता हूँ लेकिन उन्होंने यह अहसास कभी नहीं होने दिया कि मैं कर्मचारी हूँ। आज उनके जाने के बाद लगता है कि काल ने मेरा बड़ा भाई छीन लिया। आपको कभी नहीं भुला पाऊँगा ललित जी।

(शेष नारायण सिंह की फेसबुक वॉल से)

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शेष नारायण सिंह

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