सचिन पायलट की बग़ावत ठंडी करने में कामयाबी क्या कांग्रेस में युवा खेमे की रणनीतिक जीत है? कम से कम पायलट प्रकरण को निपटाने संबंधी विवरण जो मीडिया में छनकर आ रहा है उसके पीछे तो यही संदेश देने की कोशिश दिख रही है। विशेषकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी की पायलट और उनके साथी विधायकों के साथ मास्कजड़ित तसवीर साफ़ जता रही है कि राजस्थान में कांग्रेस की टूट को बचाकर कांग्रेस के युवा खेमे ने सिर्फ़ पार्टी की एकता ही नहीं राज्य में अपनी सरकार को भी बचा लिया है। इससे प्रियंका गाँधी, राहुल गाँधी, के सी वेणुगोपाल, सुष्मिता देव, मिलिंद देवड़ा आदि युवा नेताओं की कार्य कुशलता का संदेश देने की कोशिश की गई है।
ग़ौरतलब है कि पिछले दिनों राज्यसभा सदस्यों की बैठक में आंतरिक चर्चा में हुए बहस मुबाहिसे के बहाने कांग्रेस में युवा बनाम अनुभवी ख़ून के टकराने की ख़बरें मीडिया में बड़े जोरशोर से नुमाया हुई थीं। उसको पायलट प्रकरण से जोड़ कर कांग्रेस के नेतृत्व को कमज़ोर और पार्टी के बिखराव का शिकार होने की छवि बनाने की चर्चा भी छेड़ी गई। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी सहित राहुल एवं प्रियंका ने चुप्पी साधकर सूझबूझ दिखाई और परदे के पीछे पायलट प्रकरण के शांतिपूर्ण निपटारे की कोशिश तेज़ की। अब सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों को प्रियंका गाँधी, अहमद पटेल और वेणुगोपाल के साथ सबके सामने पेश करके कांग्रेस संगठन के लचीलेपन और उसमें आंतरिक लोकतंत्र ज़िंदा होने का सबूत दिया जा रहा है।
क्या इसे राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सहित कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, टी एस सिंहदेव, आनंद शर्मा, गुलाम नबी आज़ाद आदि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के लिए चेतावनी माना जाए? क्योंकि पार्टी में पुराने बनाम नए ख़ून की खींचतान में मुख्यत: इन्हीं नेताओं के बयान सुर्खियों में आए हैं। ख़ासकर गहलोत के लिए यह दूरगामी संदेश है जिन्होंने सचिन को राजनीतिक ही नहीं, व्यक्तिगत रूप में बेइज्जत करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उसके बावजूद प्रियंका गाँधी द्वारा सचिन का साथ देने का संदेश देकर आलाकमान ने गहलोत के सामने उनका भविष्य साफ़ कर दिया है।
गहलोत को दरअसल उन्हीं की व्यूह रचना में फँसाकर आलाकमान ने राजस्थान में न सिर्फ़ अपनी सरकार बचाई है बल्कि सचिन जैसे जुझारू युवा नेता को पार्टी में बरकरार रखकर युवा नेताओं की कद्र होने का व्यापक संदेश भी दिया है।
इसमें पार्टी के भीतर ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे महत्वाकांक्षियों के लिए भी सबक है कि जल्दबाज़ी दिखाकर वे अपनी साख ही ख़राब करेंगे। पार्टी ने गहलोत द्वारा सचिन को निकम्मा कहने, उन्हें पार्टी एवं मंत्रिमंडल के पदों से हटाने और फिर विधानसभा अध्यक्ष द्वारा बाग़ी विधायकों को नोटिस देने तक उन्हें पूरी छूट दी। सचिन की जगह गोविन्द सिंह डोटासरा को प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया और अदालतों में सिंघवी का साथ दिलाकर गहलोत को अपने पत्ते खुल कर खेलने का मौक़ा दिया। राज्यपाल ने जब विधानसभा सत्र बुलाने में आनाकानी की तो भी आलाकमान ने बयानबाज़ी में गुरेज नहीं की मगर पायलट का नाम लेकर उनके ख़िलाफ़ आलाकमान की त्रयी ने एक भी बयान नहीं दिया।
गहलोत को चिंता हुई या नहीं?
राज्यपाल द्वारा 14 अगस्त को सत्र बुलाना मुकर्रर करने के बाद गहलोत को भी अपने भविष्य की चिंता हुई और उन्होंने आलाकमान की रज़ामंदी होने पर बाग़ियों को फिर गले लगाने की बात कह दी। ज़ाहिर है कि सचिन और उनके साथी विधायकों की मुख्यधारा में वापसी की दिशा में वो पहला प्रयास साबित हुआ। हो सकता है कि वह बयान आलाकमान के निर्देश पर ही गहलोत ने दिया हो ताकि अपने समर्थकों के सामने सचिन भी अपने क़दम पीछे हटाने की कोई वाजिब वजह दे सकें।
गहलोत के उस बयान से ही कयास लग गया था कि आलाकमान और सचिन के बीच बातचीत चल रही है और उसका नतीजा सही समय पर सार्वजनिक किया जाएगा।
इस बीच बीजेपी द्वारा अपने विधायकों की गुजरात और जयपुर के पाँच सितारा होटल में बाड़ेबंदी से यह भी साफ़ हो गया कि वह भी आंतरिक गुटबाज़ी से मुक्त नहीं है। वसुंधरा के दिल्ली दौरे और उससे पहले केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत की कांग्रेस के बाग़ी विधायकों से सौदेबाज़ी की बातचीत उनकी आवाज़ में सार्वजनिक होने और गहलोत द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपनी सरकार बचाने की गुहार आदि बातों ने बीजेपी पर भी इतना दबाव बना दिया कि उसने अपनी उँगलियाँ जलाने के बजाए दलबदल से कांग्रेस को और एक राज्य में सत्ता से बाहर करने के अपने मंसूबे फ़िलहाल ठंडे कर लेने में ही राजनीतिक भलाई समझी।
कांग्रेस में सचिन के भविष्य पर भी कयासबाज़ी शुरू हो गई है जबकि इस बारे में बात गहलोत के भविष्य की होनी चाहिए। सचिन को पार्टी का दरवाज़ा दिखाने के लिए गहलोत द्वारा एड़ी—चोटी का ज़ोर लगाने के बावजूद पार्टी आलाकमान ने जिस लगन से सचिन से बातचीत का चैनल खुला रखा, उनसे अपना मुँह बंद रखवाया और राजस्थान की राजनीतिक आंधी गुज़र जाने का सब्र से इंतज़ार किया उससे साफ़ है कि वह राजस्थान के मुख्यमंत्री के समानांतर नेतृत्व राज्य में बरकरार रखना चाहता है। इसलिए गहलोत और उनके समर्थकों को अब अपना हरेक क़दम फूँक फूँक कर रखना पड़ेगा। ज़रा सी चूक भी उन्हें भविष्य में भारी पड़ सकती है। रही बात सचिन की तो ज़ाहिर है कि उनके पास अपनी राजनीतिक पारी खेलने के लिए लंबा समय है और आलाकमान अवश्य ही उनकी सांगठनिक योग्यता का रचनात्मक इस्तेमाल करेगा।
उनके समर्थकों को तो गहलोत को विभिन्न लाभ के पद देने ही पड़ेंगे क्योंकि आलाकमान उन्हें याद दिलाएगा कि यदि वे पार्टी के बाहर से विधायकों को तोड़ते तो उन्हें भी पदों की रेवड़ियाँ बाँटते! ऐसे में यदि अपने ही निशान पर चुने विधायक बग़ावत के बजाए पार्टी की सरकार का समर्थन कर रहे हैं तो उन्हें पद देने में गुरेज क्यों? राजस्थान में सरकार बचने और पार्टी विधायक दल में एका बहाल होने से छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार में भी ठहराव आएगा।
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