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अंतिम साँस में राम को पुकारने वाले महात्मा गांधी के बिना राम मंदिर कैसे?

'मरते दम यदि राम का नाम मुख से निकले तभी सच्चा मनुष्य कहलाऊंगा।' यह बात महात्मा गांधी ने अपने शहादत स्थल दिल्ली के बिड़ला निवास में धार्मिक कट्टरपंथी के हाथों चली गोली से अपनी हत्या के एकाध दिन पहले ही संध्या प्रार्थना सत्र में कही थी।
प्रार्थना के बाद बापू वहाँ जमा हुए लोगों से बातचीत और उनके सवालों के जवाब भी दे दिया करते थे। गोडसे की गोली जैसे ही बापू के सीने में धंसी उनके मुंह से यही आखिरी सदा निकली, 'हे राम'। 
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राम भक्त गांधी

इसके क्या मायने लगाए जाएँ? क्या गांधी जी राम के इतने बड़े भक्त थे कि उनके अंतिम समय में वे उनकी जिह्वा पर विराजमान हो गए? 
हमारी आध्यात्मिक गाथाओं और ग्रंथों में प्राण निकलते समय प्रभु का नाम लेने पर सीधे भगवान विष्णु के वैकुंठ में वास मिलने की घुट्टी पिलाई गई है। हमसे पिछली पीढ़ी तक लोग बच्चों के नाम इसीलिए ईश्वरीय पर्यायवाचियों के नाम पर रखते थे। तो उस हिसाब से राष्ट्रपिता सीधे वैकुंठ गए होंगे! 
यदि ऐसा है तो राम के आधुनिक 'राजनीतिक' भक्त महात्मा गांधी और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहर लाल को 'रामद्रोही' कह कर गालियां देते, चरित्रहनन करते और हरेक कमी के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते क्यों नहीं अघाते?

राम मंदिर में गांधी की तसवीर

क्यों ये कथित 'राम भक्त' कण कण में बसे अजर-अमर ईष्ट के बजाए भारतीय इतिहास के सबसे बड़े सपनों के सौदागर मगर नश्वर व्यक्ति के भक्त होकर रह गए? क्यों ये महात्मा गांधी के नाम से ऐसे भड़कते हैं मानो लाल कपड़ा देखकर सांड? 
क्यों बापू के निजी और सार्वजनिक स्वच्छता अभियान को महज ज़मीनी गंदगी मिटाने तक सीमित करके स्वच्छता अभियान चलाने वालों को उसका प्रतीक चिन्ह बापू की झाड़ू लगाने वाली तसवीर के बजाए मात्र उनकी ऐनक बनाने की ही सूझी?
क्या सौगंध राम की खाकर बाबरी मसजिद की जगह पर मंदिर बनाने वालों को शिलान्यास के दौरान महात्मा गांधी की तसवीर नहीं लगानी चाहिए? क्या उस तसवीर पर वैसे ही 'हे राम' अंकित नहीं करना चाहिए जैसा बापू की समाधि राजघाट पर अंकित है?
क्या बापू की 'हे राम' अंकित मूर्ति मंदिर में अलग मंडप में नहीं लगानी चाहिए? क्या पिछली एक सदी में भारत ही नहीं पूरी दुनिया में राम की तरह सत्यपालन के बूते बापू से बड़ा बना कोई और राजनेता दिखाई पड़ता है? 

क्या ये रामभक्त हैं?

शायद ऐसा करने के लिए राम के इन राजनीतिक भक्तों को अपनी संकुचित राजनीति दृष्टि से उबर कर भगवान राम के विराट आदर्श दर्शन करने होंगे। अपने पिता दशरथ की नाइंसाफी के बावजूद बेशिकन राजपाट त्यागने वाले युवराज राम की भक्ति के दावेदार लोगों की तो सत्ता हड़पने की भूख ही नहीं मिट रही! तो फिर वे राम के कैसे भक्त हैं? क्या उन्होंने राम को त्याग और सत्य के आदर्शों और नैतिकता रहित रूप में अपनाया है?
मगर मोहनदास के राम का तो ऐसा कोई रूप अकल्पित है। राम तो पिता की आज्ञा के पालन में पूरे 14 साल जंगलों में यानी आम जनजीवन में व्याप्त बुराई मिटाने के लिए नंगे पांव अपनी अंर्धांगिनी और छोटे भाई समेत हजारों कोस पैदल विचरण करते रहे। 
उनके नाम पर राजनीतिक रोटियाँ सेक कर सत्ता पाने और उसे बढ़ाने के लिए ही राजनीतिक राम भक्त राम को जनमानस से काट कर सजे-धजे कंक्रीट के ढाँचे में बंद करने पर उतारू हैं।
राम ने तो शबरी के जूठे बेर खाकर, अहिल्या को पुनर्जीवित करके और सुग्रीव को उसका छिना हुआ राजपाट वापस दिलाकर समाज में व्याप्त ढकोसले को सरेआम चुनौती दी। वे निजी त्याग की असाधारण मिसाल पेश करके दबे-कुचले वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए लड़े। उनके प्रति सदाशयता और सहिष्णुता का अनुपम आदर्श स्थापित किया। 

राम की विरासत

राम की विरासत के मौजूदा दावेदार उनके इन आदर्शों का क्या लेशमात्र भी पालन कर रहे हैं? जाहिर है कतई नहीं। उल्टे दलितों-पिछड़ों-महिलाओं सहित दबे-कुचलों को संविधानप्रदत्त सुविधा और बराबरी पर लाने के अधिकार एक-एक करके प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में समाप्त किए जा रहे हैं!
राम ने लक्ष्मण को अपने धुर विरोधी मगर महापंडित रावण से भी नीति-अनीति का अंतर पूछने और शास्त्रीय ज्ञान लेने को प्रेरित किया मगर उनके कथित भक्त क्या कर रहे हैं?

पोरबंदर के राम भक्त

पोरबंदर के राम भक्त मोहनदास करमचंद गांधी तो वैष्णव जन उनको मानते रहे जो परायों की पीर को भी अपनी समझते हों। वैष्णव जन तो तेने कहिए.....भजन के इस भाव से गांधी जी सिर्फ भाव विभोर ही नहीं हुए बल्कि उन्होंने आजीवन इसका पालन भी किया। उनके द्वारा परचुरे शास्त्री की जो सेवा शुश्रुशा की गई वह इसका भौतिक उदाहरण है। पराई पीर से द्रवित होकर उनके मानवाधिकारों की रक्षा के लिए पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में किए गए उनके सत्याग्रह इसी का परिणाम हैं।
जरा सोचिए, भगवान राम ने भी तो लंका पर चढ़ाई की, परम प्रतापी महापंडित रावण के अन्याय और त्रास का अंत किया और अपनी पत्नी सीता को मुक्त कराया। गांधी जी ने भी दक्षिण अफ्रीका में नस्लवादी गोरों के शोषण और भेदभाव के त्रास से काले प्रवासियों को मुक्त करने के लिए अहिंसक सत्याग्रह किया, उनके अधिकार दिलाए। राम ने जहाँ वनवासी का बाना चौदह साल पहना, वहीं मोहनदास ने 1914 में भारत वापसी पर तिलक स्वराज्य फंड से आयोजित भारत दर्शन के बाद जो लंगोटी पहनी तो आजीवन संन्यासी ही रहे। 
संन्यासी बनने और बने रहने के लिए उनके सत्यवादी प्रयोगों में ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग इसका प्रमाण है। उनकी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में ब्रह्मचर्य के प्रश्न पर उनकी पत्नी कस्तूरबा से उनके विवाद के पर्याप्त उदाहरण आज़ादी की लड़ाई वास्ते अपनी संन्यस्तता की रक्षा के लिए राम की प्रतिज्ञा की तरह उनके दृढ़संकल्प के प्रतीक हैं। 

दक्षिण अफ्रीका

राम के त्याग और सत्याग्रह ने जैसे उनकी साख को त्रेता युग से लेकर आज कलियुग तक बरकरार रखा है, वैसे ही दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के 114 साल बीतने के बावजूद मोहनदास को पूरी दुनिया महात्मा कहने में गुरेज नहीं करती। दक्षिण अफ्रीका में उन्हीं के सत्याग्रह के बीज से उपजी क्रांति ने अंतत:गोरों के नस्लवादी राज से मुक्त कराके अश्वेत नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में 1994 में लोकतांत्रिक शासन स्थापित करवाया।
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के मानवाधिकार उन्हें वापस दिलाने के लिए 1914 में इंडियंस रिलीफ़ बिल पारित कराने के बाद गोखले के आग्रह पर भारत लौट कर महात्मा गांधी ने स्वदेश को गोरों की ग़ुलामी से आज़ाद कराने में जिंदगी होम कर दी।

संन्यासी का बाना

आज़ादी की लड़ाई में गांधी जी ने राम की तरह ही सबसे पहले संन्यासी का बाना धारण किया ताकि तमाम दबे-कुचले लोग उन्हें अपने जैसा समझ कर उनकी बात पर ध्यान दें। राम ने भी तो वनवास में समाज के विभिन्न वंचित तबकों को लामबंद करके स्थानीय आक्रांताओं और फिर रावण जैसे शक्तिशाली आततायी को हराकर जनता को राहत पहुँचाई थी। 
ठीक उन्हीं की तरह मोहनदास ने भी पेशावर से बंगाल की खाड़ी तक फैले विराट इंडिया यानी हिंदुस्तान के विभिन्न जाति, धर्मों, वर्गों में बंटे विवश लोगों को अहिंसा और भाईचारे का संदेश देकर सत्याग्रह के लिए एकजुट किया।

राम का दर्शन

'हिंदू-मुसलिम-सिख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई' के दर्शन में यकीन जताने के बावजूद उन्होंने राम को कभी नहीं बिसराया। राम तो उनकी दैनिक प्रार्थना में शामिल थे, मगर उसका स्वरूप कुछ ऐसा था, 'रघुपति राघव राजा राम- पतित पावन सीता राम, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम-सबको सन्मति दे भगवान'। इस तरह बापू ने जनता को यह समझाया कि राम उनके लिए सिर्फ ईश्वर ही नहीं अल्ला भी हैं। 
इसका मोटा अर्थ यह निकला कि राम सिर्फ उन्हीं के नहीं हैं जो उन्हें ईश्वर मान कर पूजते हैं, बल्कि उनके भी शुभचिंतक हैं, जो अल्लाह के नाम की नमाज पढ़ते हैं।
इसी दर्शन को प्रचारित करने के कारण अंग्रेजों के विरूद्ध दशकों लंबे अहिंसक आंदोलन में महात्मा गांधी को सीताराम जपने के बावजूद हिंदुओं के अलावा भारत के दूसरे मतावलंबियों ने कभी पराया अथवा संकीर्ण नहीं समझा। 

हिन्दू राष्ट्रवादी?

हालांकि अनेक अंग्रेजी संवाददाताओं एवं संपादकों द्वारा उन्हें हिंदू नेशनलिस्ट लीडर और कांग्रेस को हिंदू नेशनलिस्ट पार्टी कहा जाता था। गांधी जी फिर भी समूची हिंदुस्तानी अवाम के नेता थे। इस सत्य को उन्होंने बँटवारे के समय छिड़े सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए सत्याग्रह और पदयात्राओं के जरिए ही साबित नहीं किया बल्कि अपनी जान भी क़ुर्बान कर गए।
सांप्रदायिक एकता के लिए उनकी तपस्या का ही परिणाम था कि मरते दम भी 'हे राम' पुकारने के बावजूद कोई उन्हें हिंदू कट्टरपंथी अथवा सांप्रदायिक नहीं ठहरा पाया। तो बताइए, राम के ऐसे सच्चे राममय भक्त को राम की विशाल एवं भव्य अट्टालिका में एक गज की कोठरी तो नसीब  होनी चाहिए ना?  
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अनन्त मित्तल

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