आज भारत में मीडिया के एक बड़े वर्ग ने जनता का सम्मान खो दिया है और वह सत्ताधारी दल के लिए 'गोदी मीडिया' (बेशर्म, बिका हुआ, चाटुकार प्रवक्ता) बन गया है। चौथे स्थान पर रहने और भारतीय लोगों की सेवा करने के बजाय, यह काफी हद तक पहले स्तंभ का हिस्सा बन गया है, जैसा कि प्रख्यात पत्रकार और मैग्सेसे पुरस्कार के विजेता रवीश कुमार ने कहा है। यह बात मौजूदा किसानों के आंदोलन में इनकी भूमिका से भी स्पष्ट है। मीडिया का बड़ा वर्ग सरकार का भोंपू बन गया है।
मीडिया की सही भूमिका क्या होनी चाहिए? इसे न्यूयॉर्क टाइम्स बनाम यूएस, 1971 (पेंटागन पेपर्स केस) में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के मिस्टर जस्टिस ह्यूगो ब्लैक के इन शब्दों में समझा जा सकता है -
“फर्स्ट अमेंडमेंट में राष्ट्र के निर्माताओं ने फ्री प्रेस को वह संरक्षण दिया जो हमारे लोकतंत्र में अपनी आवश्यक भूमिका को पूरा करने के लिए होना चाहिए। प्रेस को जनता की सेवा करनी है न कि शासकों की। प्रेस को सेंसर करने की सरकार की शक्ति को समाप्त कर दिया गया ताकि प्रेस सरकार की हमेशा निंदा करने के लिए स्वतंत्र रहेगी। प्रेस को संरक्षित किया गया था ताकि वह सरकार के रहस्यों को सामने ला सके और लोगों को सूचित कर सके। केवल एक स्वतंत्र प्रेस प्रभावी रूप से सरकार के धोखे का पर्दाफाश कर सकती है।”
मिस्टर जस्टिस ह्यूगो ब्लैक ने आगे कहा, “एक स्वतंत्र प्रेस की जिम्मेदारियों में सर्वोपरि यह कर्तव्य है कि सरकार के किसी भी हिस्से को लोगों को धोखा देने और विदेशों में और विदेशी गोली और बम से मरने से रोके। मेरे विचार में, उनकी साहसी रिपोर्टिंग के लिए न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और अन्य अख़बारों की इस उद्देश्य की सेवा के लिए सराहना की जानी चाहिए जिनको राष्ट्र के निर्माताओं ने इतने स्पष्ट रूप से दर्शाया है। सरकार के कामकाज का खुलासा करने में वियतनाम युद्ध के दौरान अख़बारों ने ठीक वही किया जिसकी उम्मीद राष्ट्र निर्माताओं को थी और भरोसा भी कि वे करेंगे।”
मीडिया की शुरुआत
ऐतिहासिक रूप से, 17वीं और 18वीं शताब्दी में सामंती उत्पीड़न के खिलाफ जनता के एक उपकरण के रूप में इंग्लैंड और फ्रांस में मीडिया की शुरुआत हुई। उस समय सत्ता के सभी उपकरण सामंती अधिकारियों (राजाओं, ज़मींदारों आदि) के हाथों में थे। इसलिए जनता को नए उपकरण का निर्माण करना पड़ा जो उनके हितों का प्रतिनिधित्व करते हों और मीडिया (संसद के अलावा), इन नए उपकरण में से एक था।
यूरोप और अमेरिका में मीडिया भविष्य की आवाज का प्रतिनिधित्व करता था। यह पुराने और ऐसे सामंती उपकरणों के विपरीत था, जो यथास्थिति बनाए रखना चाहते थे।
मीडिया की भूमिका
वोल्टेयर, रूसो, टामस पाइन आदि जैसे महान लेखकों ने मीडिया का उपयोग किया (तब केवल प्रिंट मीडिया था, और वह भी, नियमित समाचार पत्र के रूप में नहीं, बल्कि पैम्फ़लेट, पत्रक आदि के रूप में) जिसके द्वारा सामंतवाद, धार्मिक कट्टरता और अंध विश्वास पर प्रहार किया गया। इस प्रकार यूरोपीय समाज को सामंती से आधुनिक समाज में बदलने में मीडिया से बहुत मदद मिली।
भारत का राष्ट्रीय उद्देश्य खुद को अविकसित से विकसित और उच्च औद्योगिक देश में बदलना होना चाहिए अन्यथा हम बड़े पैमाने पर गरीबी, भयानक बेरोजगारी, व्याप्त बाल कुपोषण, जनता के लिए उचित स्वास्थ्य सेवा और अच्छी शिक्षा का लगभग अभाव आदि से कभी निजात नहीं पा सकेंगे।
हमारे मीडिया को इस ऐतिहासिक परिवर्तन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए, जैसा कि यूरोपीय मीडिया ने किया। लेकिन इसके लिए उसे बेशर्म चाटुकारों की तरह व्यवहार करना बंद करना चाहिए और जनता की सेवा करनी चाहिए, न कि शासकों की (जैसा कि जस्टिस ब्लैक ने अपने फैसले में कहा है)।
मीडिया को जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसी सामंती ताकतों पर हमला करना चाहिए, धार्मिक कट्टरता की निंदा करनी चाहिए और हमारे समाज का ध्रुवीकरण करने के प्रयास का जमकर विरोध करना चाहिए।
मीडिया को लोगों में वैज्ञानिक सोच-विचारों, सामाजिक सद्भाव और एकता को बढ़ावा देना चाहिए; लोगों के सामने वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने के प्रयास को रोकना चाहिए।
मुद्दों को किया नज़रअंदाज
हकीकत यह है कि वर्षों से हमारे मीडिया ने जानबूझकर जनता के असल मुद्दों से आँख मूँद ली है। हमारे देश में बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे थे परन्तु मीडिया ने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया। एक बहादुर और ईमानदार पत्रकार, पी. साईनाथ ने अपने निरंतर जमीनी प्रयासों से इसका खुलासा किया। परन्तु यह एक अपवाद ही था।
कुछ साल पहले मुंबई में लैक्मे फैशन वीक में फैशन परेड आयोजित की गई थी जिसमें मॉडल्स ने कॉटन के आउटफिट पहने थे। इस घटना को 500 से अधिक पत्रकारों ने कवर किया, जबकि उस कॉटन का उत्पादन करने वाले किसान इस जगह से कुछ दूरी पर विदर्भ में आत्महत्या कर रहे थे। कुछ स्थानीय पत्रकारों को छोड़कर किसी ने उन आत्महत्याओं को कवर नहीं किया।
मैं विशेष रूप से टीवी मीडिया के बारे में उल्लेख करना चाहता हूं। आज के कई टी.वी एंकर पत्रकारिता नहीं करते हैं, बल्कि वे गोएबल्स की तरह सरकार का प्रचार करते हैं।
तबलीगी जमात का मामला
उदाहरण के लिए, कुछ समय पहले तबलीगी जमात नामक संगठन को हमारे गोदी मीडिया द्वारा कोरोना वायरस को फैलाने वालों के तौर पर पेश किया गया, उन्हें कोरोना जिहादी और कोरोना बम कहा गया। मैंने इस मामले की खुद जाँच की और तब्लीगी जमात पर लगे आरोपों को बिल्कुल गलत पाया।
तबलीगी जमात एक मुसलिम धार्मिक संगठन है जो साल में एक या दो बार दिल्ली में अपने मरकज़ में कार्यक्रम आयोजित करता है, जहाँ कई देशों से मुसलमान आते हैं। इस साल भी कई मुसलिम इंडोनेशिया, मलेशिया, कजाकिस्तान, यूएई आदि देशों से आए थे और उनमें से कुछ जाहिर तौर पर कोरोना से संक्रमित थे। लेकिन यह कहना कि वे जानबूझकर इस बीमारी को अपने साथ भारत में फैलाने के लिए लाए थे, जैसा कि कुछ टीवी एकरों ने प्रचारित किया, वो गलत था। बाद में अदालत ने भी इस बात की तस्दीक़ की।
जमात पर डॉक्टरों की पिटाई और उनपर थूकने, नर्सों के साथ दुर्व्यवहार करने, अस्पताल के वार्डों में शौच करने, मूत्र की बोतलें फेंकने और जानबूझकर कोरोना को पूरे देश में फैलाने का झूठा आरोप लगाया गया।
मेरी खुद की जांच से पता चला कि तबलीगी जमात के सदस्य उच्च चरित्र के लोग हैं और उन चीजों को कभी नहीं करेंगे, जैसे उन पर आरोप लगाए गए थे। हालांकि मैं उनकी विचारधारा (मैं नास्तिक हूं) से असहमत हूं, फिर मेरा मानना है कि उन्हें अपने धार्मिक विचारों को रखने का अधिकार है।
हमारे गोदी मीडिया के दुर्व्यवहार का एक और उदाहरण है- किसान आंदोलन जिसे खालिस्तानियों, पाकिस्तानियों, माओवादियों, देशद्रोहियों और टुकड़े-टुकडे गैंग के आंदोलन के रूप में प्रचारित किया गया है। ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं।
गलती मानेगा मीडिया?
हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि भारतीय मीडिया किसी दिन अपनी वर्तमान शर्मनाक भूमिका पर खेद जतायेगा और उसे अपनी गलती का एहसास होगा। अमेरिका के बदनाम राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के शब्दों में “जनता का दुश्मन” होने के बजाय मीडिया भारतीय जनता के एक सेवक के रूप में उभरेगा। तभी यह जनता के सम्मान को फिर हासिल कर पायेगा।
अपनी राय बतायें