देश इस समय एक अभूतपूर्व संकट से गुज़र रहा है। इसे हमारे राजनीतिक नेतृत्व की खूबी ही माना जाना चाहिए कि जो कुछ भी चल रहा है उसके प्रति लोग स्थितप्रज्ञ अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। अर्थात असीमित दुखों की प्राप्ति पर भी मन में किसी भी प्रकार का कोई उद्वेग नहीं उत्पन्न हो रहा है। कछुए की तरह जनता ने भी अपने सभी अंगों को समेट लिया है। दुनिया की कोई भी हुकूमत ऐसी समर्पित प्रजा पाकर अपने आपको धन्य और कृतार्थ महसूस कर सकती है।
इसे कोई दैवीय चमत्कार ही माना जा सकता है कि जो जनता किसी समय आलू-प्याज़ की अस्थायी क़िल्लत भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं होती थी, वही आज एक-एक साँस के लिए स्वयं से ही संघर्ष करते हुए अपनी जानें दे रही है। कहीं भी कोई हल्ला या शोर नहीं है। देखते ही देखते सब कुछ बदल गया है। यह भी नहीं बताया जा सकता है कि जो और भी गम्भीर संकट भविष्य के पेट में छुपे हुए हैं उनसे निपटने के लिए वे लोग कितनी तैयारी से जुटे हैं जिन्हें नागरिकों ने अपना सर्वस्व सौंप रखा है। चारों ओर डर व्याप्त है कि जो कर्णधार सिर्फ़ बंगाल की हुकूमत पर क़ब्ज़ा करने के लिए तीन साल से ज़बर्दस्त तैयारियों में जुटे थे उन्हें भनक तक नहीं लग पाई कि इधर समूचा देश केवल एक साल के भीतर ही हारने लगेगा और वे मरने वालों की गिनती करते रह जाएँगे।
राज्यों को हिदायत दी गई है कि वे अपनी मेडिकल ऑक्सीजन की ज़रूरत को क़ाबू में रखें। उन्हें आगाह किया गया है कि अगर कोरोना के मामले ऐसे ही अनियंत्रित तरीक़े से बढ़ते रहे तो इससे देश के चिकित्सा ढाँचे पर बड़ा असर पड़ेगा।’ हम राज्य सरकारों के साथ खड़े हैं, लेकिन उन्हें माँग को नियंत्रण में लाना होगा और कोविड को रोकने के लिए ठोस क़दम उठाने होंगे।’ एक चिकित्सक केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्ष वर्धन नहीं बल्कि रेलवे मंत्री पीयूष गोयल ने अपने एक ट्वीट में कहा है कि, ‘पेशेंट को जितनी ज़रूरत है उतनी ही ऑक्सीजन लगाना चाहिए। कई जगह से वेस्टेज के साथ ही पेशेंट को ज़रूरत न होते हुए भी ऑक्सीजन लगाने की ख़बर आ रही है।’
पीयूष गोयल मुंबई जैसे अत्याधुनिक महानगर से हैं और उनसे पूछा जा सकता है कि क्या ऐसा मुमकिन है कि किसी भी मरीज़ को उसके फेफड़ों की क्षमता और ज़रूरत से ज़्यादा ऑक्सीजन दे दी जाए और फिर भी वह स्वस्थ बच जाए? इस सवाल का इंटरनेट पर अंग्रेज़ी में जो उत्तर उपलब्ध है उसका एक पंक्ति में हिंदी सार यह है कि ज़रूरत से ज़्यादा ऑक्सीजन के इस्तेमाल से फेफड़ों और शरीर के अन्य अवययों को क्षति पहुँच सकती है।
ऑक्सीजन के इस्तेमाल को लेकर केंद्रीय मंत्री की चिंता या चेतावनी का ग़लती से एक क्रूर अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि ज़रूरत से अधिक आपूर्ति के ज़रिए कोरोना मरीज़ों की सेहत को जानते-बूझते नुक़सान पहुँच रहा है या पहुँचाया जा रहा है। मनुष्य के फेफड़े आलू-प्याज़ की तरह ऑक्सीजन की जमाख़ोरी नहीं कर सकते। देश के नीति-निर्धारकों में अपने ही चिकित्सकों की योग्यता-क्षमता और नागरिकों के फेफड़ों की ऑक्सीजन-क्षमता को लेकर जानकारी का अभाव होना दुर्भाग्यपूर्ण है।
इस समय हकीकत तो यह है कि ज़रूरत के मुक़ाबले कम आपूर्ति को देखते हुए मरीजों को ऑक्सीजन कम या सीमित मात्रा में दी जा रही है।
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मैंने अपना जीवन जी लिया है, इसे (वेंटिलेटर को) जवान मरीज़ों के लिए सुरक्षित रख लिया जाए।
कोरोना संक्रमित बेल्जियम की एक नब्बे वर्षीय महिला
प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकॉनामिस्ट’ द्वारा रूस के संदर्भ में लिखे गए एक सम्पादकीय का मैंने एक बार ज़िक्र किया था कि लोगों का पेट जैसे-जैसे तंग होने लगता है, सरकारों के पास उन्हें देने के लिए ‘राष्ट्रवाद’ और ‘विषाद’ के अलावा और कुछ नहीं बचता। जो सरकारें अपनी जनता के ख़िलाफ़ भय का इस्तेमाल करती हैं, वे अंततः खुद भी भय में ही रहने लगती हैं। ऐसा दिख भी रहा है।
पहली बार नज़र आ रहा है कि हुकूमत हक़ीक़त में भी डरी हुई है, डरे होने का अभिनय नहीं कर रही है। कहा नहीं जा सकता है कि यह डर जनता के स्वास्थ्य की चिंता को लेकर है या अपनी सत्ता के स्वास्थ्य को लेकर!
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