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फ़ोटो साभार: ट्विटर/रक्षा मंत्रालय

दो बूँद ऑक्सीजन दे न सके, विश्व गुरु क्या बनाओगे! 

जब ये जानलेवा संकट आ रहा था या आने की आशंका थी, तब ये कहाँ थे? तब ये सो रहे थे, कुंभकर्ण की तरह। नहीं, शायद मैं ग़लत कह रहा हूँ। ये सो नहीं रहे थे। ये अपने अंहकार में डूबे थे, आत्म मुग्धता के समुद्र में डुबकियाँ लगा रहे थे, अपनी बेवक़ूफ़ी के दलदल में हँस रहे थे। कोई बेवकूफ ही यह कह सकता है कि उसने कोरोना पर विजय पा ली है।
आशुतोष

विधानसभा के चुनाव तो हो गये। कौन जीतेगा और कौन हारेगा, अब इस अटकल में जाने का कोई मतलब नहीं है। एग्ज़िट पोल ने नतीजों को और कन्फ्यूज कर दिया है। सब की निगाह बंगाल पर है। कोई पोल कह रहा है कि बीजेपी की सरकार बनेगी, कोई कह रहा है कि ममता की। इन अटकलबाज़ियों के बीच जो चीज़ निर्विवाद है वो है कि भविष्य में जब भी इन चुनावों का इतिहास लिखा जाएगा, इस काल का इतिहास लिखा जायेगा तो इतिहास बहुत निर्मम होगा। वो निर्मम होगा चुनाव आयोग को लेकर, उसकी भूमिका को लेकर। वो निर्मम होगा प्रधानमंत्री मोदी को लेकर, वो निर्मम होगा बीजेपी और आरएसएस को लेकर, वो निर्मम होगा विपक्ष को लेकर, वो निर्मम होगा समाज को लेकर, वो निर्मम होगा उन तमाम राजनीतिक दलों को लेकर जिन्होंने चुनाव जीतने के लिये इंसानों की ज़िंदगी की परवाह नहीं की। जब इतिहास यह सवाल पूछेगा कि इन चुनावों की कितनी क़ीमत लोगों ने अपनी जान देकर चुकाई है, तो शायद इन लोगों के पास कोई जवाब नहीं होगा। जब इतिहास यह सवाल पूछेगा कि कुंभ में स्नान करने से कितनों की जान गयी तो कोई जवाब नहीं होगा?

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इस वक़्त जब हम अपने को असहाय पाते हैं, बेबस और संवेदनहीन, मन ने शायद सोचना बंद कर दिया है। जब कहीं फ़ोन बजता है तो मन काँप उठता है, दिल दहशत से भर जाता है, इस आशंका से न जाने कौन मित्र या रिश्तेदार साथ छोड़ जाये, फिर कभी न मिलने के लिये। सोशल मीडिया को खोलते हुए पहले कभी इतना डर नहीं लगा। रोज़, हर घंटे किसी न किसी के बिछड़ने की ख़बर आ रही है। कुछ लोग हैं जो अब भी अपनी जान जोखिम में डाल कर लोगों की मदद कर रहे हैं। कुछ नेता हैं जो अपनी परवाह किये बग़ैर लोगों को ज़िंदगियाँ दे रहे हैं। लोगों के दुख दर्द में शरीक हो रहे हैं। लेकिन हमारे बीच ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा है जो इस आपदा में भी गिद्ध की तरह मौक़े की तलाश में है।

कहीं दो हज़ार की दवा के लाखों वसूले जा रहे हैं तो कहीं ऑक्सीजन के नाम पर लोगों को लूटा जा रहा है। एम्बुलेंस देने के लिये भी हज़ारों की क़ीमत लगायी जा रही है। रेमडेसिविर नामक दवा की जमाख़ोरी हो रही है। महाराष्ट्र के बीजेपी नेता के पास से हज़ारों की संख्या में रेमडेसिविर बरामद की गयी है।

जब बेटा बाप की जान बचाने के लिये अपना बेड छोड़ रहा है, जब कोई अस्सी पार बुजुर्ग किसी जवान के लिये अपना आईसीयू बेड दे रहा है तो ऐसे लोग भी हैं जो अस्पताल वालों से मिलकर बेड पर क़ब्ज़ा किए हुए हैं, इस आशंका में कि अगर उनके घर में कोई बीमार पड़ा तो बेड मिल जायेगा या फिर इस लालच में कि बेड देकर मोटी रक़म कमाई जा सकती है। वे यह नहीं सोच रहे हैं कि उनकी इस घिनौनी हरकत से किसी की जान जा रही होगी। कहीं कोई बीमार तड़प-तड़प के जान दे रहा होगा। उसकी जान बच जाती अगर इन गिद्धों ने अस्पताल के बेड पर नाजायज क़ब्ज़ा नहीं किया होता। 
यक़ीन जानिए मैं निराशावादी नहीं हूँ। लेकिन पहली बार राजनीतिक जमात से विश्वास पूरी तरह से उठ गया है। मुझे उनमें इंसान नहीं दिख रहे हैं। उनकी शक्लों में चारों तरफ़ गिद्ध मंडराते दीख रहे हैं।
ये वो लोग हैं जिनपर मुल्क ने देश को सँभालने की ज़िम्मेदारी दी थी। जिनसे यह उम्मीद मुल्क ने की थी कि जब भी मुसीबत आएगी तो वो समाज के सामने ढाल बन कर खड़े हो जाएँगे। इनसे उम्मीद थी कि ये जान जोखिम में डाल कर मासूम जनता की जान बचायेंगे। आज जब इनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है तो इनमें से अधिकांश ग़ायब हैं। जनता को उसके हाल पर छोड़ दिया है। हो सकता है ये डरे हुए हों। हो सकता है इन्हें हमारी तरह अपनी जान का ख़तरा हो। हो सकता है उन्हें अपने परिवार वालों की फ़िक्र हो। लेकिन ये आज भी ग़रीब जनता से ज़्यादा सुरक्षित हैं। इन्हें अस्पतालों में एक या दो फ़ोन करने पर वो सुविधा उपलब्ध हो जाएगी, जो आम आदमी को कभी नसीब नहीं होगी।
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उनके इस गुनाह का हिसाब होगा, लेकिन इस गुनाह का हिसाब कब होगा कि जब ये जानलेवा संकट आ रहा था या आने की आशंका थी, तब ये कहाँ थे? तब ये सो रहे थे, कुंभकर्ण की तरह। नहीं, शायद मैं ग़लत कह रहा हूँ। ये सो नहीं रहे थे। ये अपने अंहकार में डूबे थे, आत्म मुग्धता के समुद्र में डुबकियाँ लगा रहे थे, अपनी बेवक़ूफ़ी के दलदल में हँस रहे थे। कोई बेवकूफ ही यह कह सकता है कि उसने कोरोना पर विजय पा ली है। कोई दंभी ही ये मुग़ालता पाल सकता है कि वाइरस उसका कुछ नहीं कर सकता। जब ये अपनी मूढ़ता के जंगल में अठखेलियाँ खेल रहे थे तब वाइरस धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहा था, हमारी-आपकी-और-सबकी ज़िंदगी को लीलने का मंसूबा लिये। यह वक़्त था पूरे देश को आगामी संकट से तैयार करने का, योजना बना कर लड़ने का, युद्ध स्तर पर रणनीति बनाने का। अगर ऐसा होता तो आज भारत देश मौत के दावानल में कराह न रहा होता? उसकी दर्दनाक आवाज़ें हवा में ख़ौफ़नाक तरीक़े से दिलों को कंपा न रही होतीं?  
मन तो कर रहा है कि कह दें कि ये लाशों के व्यापारी हैं। इनके लिये अपने हित सर्वोपरि हैं, चुनाव जीतना सबसे पहली प्राथमिकता है। लोग मरते हैं तो मरें। लोगों के घर उजड़ते हैं तो उजड़ें। इनकी बला से। इसकी सत्ता बनी रहे। इनके पद बने रहें। क्या सत्ता के घोड़ों पर सवार लोगों को यह पता नहीं था कि कोरोना की दूसरी लहर आने वाली है। दूसरी लहर पहले से ज़्यादा ख़तरनाक होगी? अधिक जानलेवा होगी? 
ये वक़्त था तैयारी करने का। अस्पतालों की संख्या बढ़ाने का। बेड, दवा, वैक्सीन और ऑक्सीजन को ज़िले-ज़िले, गाँव-गाँव, बस्ती-बस्ती और अस्पताल-अस्पताल पहुँचाने का, पर ये जश्न में डूबे थे। आत्ममुग्धता के जश्न में। अहंकार के जश्न में। झूठी कामयाबी के जश्न में। अपने हर आलोचक को गरियाते हुए।
हमें आज याद क्यों नहीं आते वो गांधी। जब देश विभाजन का दंश झेल रहा था। जब देश लाशों से पट रहा था, जब इंसान हैवान बन गया था, तब अकेले गांधी थे जो दंगों के बीच थे। जिन्होंने अपनी जान की परवाह नहीं की और दंगों को रोकने की कोशिश की। तब भारत के वायसराय ने कहा था काश हमारे पास दो गांधी होते। पर शायद मैं भूल कर रहा हूँ। गांधी का देश तो ये अब नहीं रहा। अब यहाँ नाथूराम गोडसे के मंदिर बन रहे हैं। गांधी की प्रतिमा को गोली मारी जा रही है। इंसानों को जड़ कर दिया गया है। और जो जीवित नहीं है उनकी करोड़ों रुपये ख़र्च कर मूर्ति बनायी जा रही है। नहीं। ये गांधी का देश नहीं है। वो तो शांति, प्रेम, सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाते थे। आज नफ़रत का बोलबाला है। घृणा की फ़सल बोई जा रही है। इंसान की पहचान उसके धर्म से की जा रही है। हम इंसान नहीं भक्त हो गये हैं। अच्छे और बुरे की तमीज़ भूल गये हैं।
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गांधी धार्मिक थे। पर धर्म उनको डिक्टेट नहीं करता था। वो धर्म का लबादा नहीं ओढ़ते थे। उनके धर्म में  इंसान केंद्र में था। चुनाव जीतना और सत्ता से चिपकना उनकी प्राथमिकता में नहीं था। वो राष्ट्रीय संकट में राष्ट्र को एकजुट करते थे। देश बँटवारे के बाद बनी सरकार में उन्होंने अपने सबसे कट्टर विरोधी बाबा साहेब आंबेडकर को रखने की वकालत की। हिंदू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी को रखने के लिये नेहरू और पटेल को विवश किया। आज अगर कोई पूर्व प्रधानमंत्री अच्छी सलाह देता है तो उसका सार्वजनिक रूप से अपमान किया जाता है। 

मैं फिर ग़लती कर रहा हूँ। मैं फिर गांधी को याद कर रहा हूँ। क्या करूँ बापू आज आप बहुत याद आ रहे हो। शायद आप भी अपने को असहाय पाते। अब ये बेबसी सहन नहीं होती। बापू, क्या इसी दिन के लिए आपने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी। आप ने अंग्रेजों की लाठियाँ खायी थीं, जेल गये थे। आप के साथ पूरे देश ने एक सपना देखा था। जब भारत आज़ाद होगा, हमारा शासन होगा, भाईचारा होगा, इंसान इंसान में फ़र्क़ नहीं किया जायेगा, नेता नहीं मनुष्य के लिये देश होगा, कुर्सी नहीं सत्य की साधना होगी, नफ़रत नहीं प्रेम की पूजा होगी। 

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बापू आपको बताना होगा क्या वो सपना झूठा था? क्यों सब्ज़बाग़ दिखाए? देश आज़ाद नहीं होता तो ये कह कर मन को संतोष दे देते कि ‘ग़ैर’ हमारा दर्द क्या समझे। पर ये तो ‘अपने’ हैं। इन्हें कैसे बताएँ, कैसे समझाएँ कि मरने वाले भी ‘अपने’ हैं। इन्हें बस दो साँस की दरकार थी। लानत है, तुम दो बूँद ऑक्सीजन नहीं दे पाये। देश को विश्वगुरु क्या बनाओगे। तुम लड़ते रहो चुनाव। इतिहास लिखेगा, तुम्हारा भी इतिहास।
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