एक समय ऐसा भी था, बहुत दिन नहीं हुए-सही-सही कहा जाए तो 30 साल से एक साल कम, जब एक ईसाई को पंजाब भेजा गया वह युद्ध लड़ने, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने ‘अलगाववाद से राष्ट्र का संघर्ष’ बताया था। मैंने प्रधानमंत्री के निजी आग्रह पर ‘डीमोट’ होकर केंद्र में गृह मंत्रालय में सचिव स्तर से पंजाब का पुलिस महानिदेशक बनना स्वीकार कर लिया था।
'यह ज़िम्मेदारी ली ही क्यों?'
तत्कालीन गृह सचिव राम प्रधान और मेरे दोस्त व महाराष्ट्र सरकार के मुख्य सचिव बी.जी. देशमुख हैरत में थे। उन्होंने पूछा, ‘यह ज़िम्मेदारी तुमने स्वीकार ही क्यों कर ली?’ तत्कालीन राष्ट्रपति ज़ैल सिंह ने भी फ़ोन पर यही सवाल मुझसे किया। लेकिन कैबिनेट मंत्री अर्जुन सिंह, जो मुझे विशेष विमान से दिल्ली से चंडीगढ़ ले कर आए, उन्होंने कहा कि जब मेरे नाम का एलान हुआ तो पंजाब के हिन्दुओं ने राहत की सांस ली, वे खुश हुए। मेरा मानना है कि जो हिन्दू खुश हुए होंगे, उनमें आरएसएस के वे कार्यकर्ता भी रहे होंगे जिन्हें अलगाववादियों ने सांसत में डाल रखा था। एक दिन सुबह जब आरएसएस के 25 लोगों को योजना बना कर गोली मार दी गई, मैं और पंजाब के राज्यपाल सिद्धार्थ शंकर राय दौड़ कर पीड़ितों के परिजनों से मिलने गए। राय 12 परिवार गए, मैं बाकी के यहाँ गया। राज्यपाल का अनुभव मेरे अनुभव से अलग था। लोगो ने उन्हें गालियाँ दीं और सवाल पूछ-पूछ कर तंग कर दिया, मेरा स्वागत किया गया।
आज 86 साल की उम्र में मैं डरा हुआ हूँ, मुझे कोई नहीं चाहता और मैं अपने ही देश में अनजान बन कर रह गया हूँ। वे लोग जिन्होंने मुझ पर भरोसा किया था कि मैं उन्हें उन ताक़तों से बचा कर निकाल लाऊँ, जिन्हें वे समझ ही नहीं सकते, वे ही आज मेरी निंदा सिर्फ़ इसलिए करते हैं कि मैं उस धर्म को मानता हूँ, जो उनके धर्म से अलग है। मैं अब भारतीय ही नहीं रहा, कम से कम उन लोगों के लिए जो हिन्दू राष्ट्र की बात करते हैं।
क्या यह महज संयोग है या सोची समझी योजना के तहत हो रहा है कि शांतिपूर्ण ढंग से रहने वाले एक छोटे समुदाय को मई में नरेंद्र मोदी की बीजेपी सरकार के सत्ता में आने के बाद ही निशाना बनाया जा रहा है?
निशाने पर ईसाई?
‘घर वापसी’, क्रिसमस को ‘सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने का एलान और दिल्ली में ईसाइयों के गिरजाघरों और स्कूलों पर हमले इस समुदाय की उस भावना को मजबूत करते हैं कि वे चारों तरफ से घिर चुके हैं।हालाँकि मैं ये मानता हूँ कि ईसाइयों ने उतना नहीं जितना पारसियों ने किया है, पर जो भी किया है, वह दिख रहा है। ख़ास कर, शिक्षा में तो उन्हें महारत हासिल है। ईसाइयों ने स्कूल, कॉलेज और ऐसे कई संस्थान स्थापित किए हैं और चला रहे हैं जहाँ नौकरी पाने के लिए हुनर सिखाया जाता है। उनकी बहुत माँग है।
कट्टर हिन्दुओं ने भी ऐसे संस्थानों से संस्थानों दाखिले की कोशिश की है और ईसाई शिक्षकों की प्रतिबद्धता से लाभान्वित हुए हैं। ऐसा नहीं लगता कि इनमें से कोई भी धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन गया है, लेकिन कई लोग ईसाई मूल्यों को ग्रहण कर ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ ज़रूर बन गए हैं।
क्या करें ईसाई?
अस्पताल, नर्सिंग होम, मृत्यु की ओर बढ़ रहे कैंसर रोगियों के लिए वे घर जहाँ अंतिम दिनों में उनकी सेवा-सुश्रुषा हो सके, ऐसी कई चीजें ईसाइयों से जुड़ी संस्थाओं और ईसाइयों द्वारा चलाई जाती है ताकि मानवता की सेवा की जा सके।
क्या उन्हें ये मानवतावादी काम इस डर से नहीं करना चाहिए कि उनकी तारीफ करने वाला, उनकी इज्ज़त करने वाला और उनसे लाभान्वित हुआ कोई आदमी अपनी इच्छा से अपना धर्म न बदल ले?
क्या सिर्फ़ हिन्दुओं को इसकी छूट होनी चाहिए कि वे सहमे हुए लोगों को मानवीय स्नेह दें और उनकी देखभाल करें?
भारतीय सेना का नेतृत्व एक ईसाई जनरल ने की, नौसेना के प्रमुख ईसाई रह चुके हैं और वायु सेना के प्रमुख भी ईसाई रहे हैं। देश की सुरक्षा बलों में अनगिनत ईसाई पुरुष और स्त्री काम करते हैं। संघ परिवार के कुछ गुस्सैल और चिड़चिड़े लोग शुद्ध हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने के लिए इन तमाम लोगों को ग़ैर-भारतीय कैसे क़रार दे सकते हैं?
यह दुखद है कि नफ़रत और अविश्वास के माहौल में इन उग्रवादियों को बर्दाश्त करने की सीमा से अधिक उग्र बनने दिया गया है। सिर्फ़ 2 प्रतिशत जनसंख्या वाले इस समुदाय पर सोची समझी रणनीति के तहत एक के बाद एक कई आघात किए गए हैं। यदि इन उग्रवादियों ने इसके बाद अपना ध्यान मुसलमानों की ओर किया जो इनका लक्ष्य भी है, तो उसका जो परिणाम होगा, वह सोच कर ही इन पंक्तियों का लेखक डर जाता है।
मुझे राहत हुई जब आख़िरकार प्रधानमंत्री ने कुछ दिनों पहले दिल्ली के एक कार्यक्रम में ईसाइयों के बारे में कुछ कहा। लेकिन जब सभी समुदायों और लोगों द्वारा स्वीकृत संत मदर टेरीज़ा के बारे में मोहन भागवत ने जब कहा तो मुझे उसी हिट लिस्ट में डाल दिया गया। यह इसलिए भी हुआ कि मीनाक्षी लेखी जैसे बीजेपी नेताओं ने अपने प्रमुख की बात को उचित ठहराया।
मेरा डीएनए अलग नहीं!
मुझे क्या करना चाहिए? मुझे अपना आत्मविश्वास बहाल करने के लिए क्या करना चाहिए? मेरा जन्म इस देश में हुआ। उसी तरह लगभग 5 हज़ार साल या उससे भी पहले मेरे पूर्वजों का भी जन्म यही हुआ।
यदि मेरा डीएनए टेस्ट किया गया तो यह मोहन भागवत के डीएनए से बहुत अलग नहीं होगा। यह निश्चित तौर पर देश के रक्षा मंत्री जैसा ही होगा, क्योंकि मेरे पूर्वज गोआ लगभग उसी समय आए होंगे जब परशुराम यहाँ आए थे।
शायद अतीत में हम दोनों के पूर्वज एक ही रहे हों। यह इतिहास में महज एक संयोग ही था कि मेरे पूर्वजों ने धर्म बदल लिया और उनके पूर्वजों ने नहीं बदला। मैं नहीं जानता और न ही भविष्य में कभी जान पाऊँगा कि ऐसा किन परिस्थितियों में हुआ होगा।
सबकुछ ख़त्म नहीं
अपने जीवन की सांध्य बेला में मैं यह कैसै मान लूं कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज को देश की भलाई के लिए किए गए मेरे उस छोटे से योगदान की याद आज भी है? कुछ दिनों पहले मैं अपने ग़ैर सरकारी संगठन ‘द बॉम्बे मदर्स एंड चिल्ड्रेन वेलफेयर सोसाइटी’ ने जिस स्कूल को गोद लिया है, उसे देखने के लिए पुणे ज़िले के खेड तालुका स्थि राजगुरुनगर गया। मैंने लोनावला में रुक कर इडली खाई और चाय पी। मेरे सामने की टेबल पर बैठ कुछ अधेड़ लोगों ने मुझे पहचान लिया, वे मेरे पास आए, दुआ-सलाम हुई और वे मुझसे बात करने लगे। वहाँ क़ुवैत से लौट रहा एक ब्राह्मण जोड़ा आया, मुझे पूछने लगा कि मैं वहीं हूँ जो वह समझता है और उसके बाद मेरे साथ तसवीरें खिंचवाईं।
यह जानकर मुझे तसल्ली हुई कि साधारण हिन्दू, जिन्हें मैं नहीं जानता, मेरे बारे में अच्छे विचार रखते हैं और रिटायर होने के 25 साल बाद भी मुझसे दोस्ती रखना चाहते हैं जब मैं उनकी कोई सेवा नहीं कर सकता।
इससे मुझे यह उम्मीद बँधी है कि सामान्य हिन्दू स्त्री और पुरुष उस विचारधारा में नहीं बह जाएंगे जो नफ़रत और अविश्वास फैलाना चाहता है, जिसके नतीजे से हर कीमत पर बचना चाहिए।
('द इंडियन एक्सप्रेस' से साभार, यह लेख कुछ समय पहले प्रकाशित हुआ था।)
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