केरल विधानसभा ने वह काम कर दिया है, जो आज तक देश की किसी विधानसभा ने नहीं किया। मेरी जानकारी में ऐसा कोई तथ्य नहीं है कि केंद्र सरकार और संसद ने स्पष्ट बहुमत से कोई क़ानून पारित किया हो और उस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी हो गए हों, इसके बावजूद किसी राज्य की विधानसभा ने लगभग सर्वानुमति से उस क़ानून को लागू नहीं करने का फ़ैसला किया हो।
यहां असली सवाल यह है कि किसी राज्य का इस तरह केंद्र सरकार और संसद के विरुद्ध जाना क्या उचित है, क्या संवैधानिक है, क्या संघात्मक शासन प्रणाली के अनुकूल है? इन तीनों प्रश्नों का जवाब नकारात्मक हो सकता है और अदालत भी ऐसा कह सकती है।
लेकिन यदि मान लें कि दर्जन भर विधानसभाएं ऐसा प्रस्ताव पारित कर देती हैं तो इसका अर्थ क्या होगा। इसका पहला अर्थ यह होगा कि शरण देने का यह जो क़ानून बना है, यह घोर असंतोषजनक और ग़लत है। दूसरा, यदि कुछ राज्य इसे लागू नहीं करेंगे तो केंद्र क्या कर लेगा? यह क़ानून ताक पर धरा रह जाएगा। तीसरा, इस ग़लत क़ानून की वजह से देश का संघीय ढांचा चरमरा सकता है, उसमें सेंध लग सकती है। केंद्रीय क़ानूनों और संसद की अवहेलना सामान्य-सी बात बन सकती है। यह राष्ट्रीय एकता के लिए ख़तरनाक संकेत है। केंद्र सरकार ने बैठे-बिठाए यह मुसीबत क्यों मोल ले ली है, समझ में नहीं आता।
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