भारत भी कमाल का देश है। इसकी वजह से इसलामी देशों में फूट पड़ गई है। दुनिया के 57 इसलामी देशों का अब तक एक ही संगठन है। इसलामी देशों का संगठन (ओआईसी) लेकिन अब एक दूसरा इस्लामी संगठन भी उठ खड़ा हुआ है। इसका नेतृत्व मलेशिया के राष्ट्रपति महातिर मोहम्मद और तुर्की के राष्ट्रपति रीचप तय्यब इरदोवान कर रहे हैं। इन दोनों नेताओं ने कश्मीर के पूर्ण विलय के मामले में भारत का विरोध किया था।
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लेकिन सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने उसे भारत का आतंरिक मामला कहकर टाल दिया था। इन दोनों देशों के नेता एक-दूसरे के देशों में जाकर गदगद हुए थे और नरेंद्र मोदी को सऊदी और यूएई ने अपने सर्वोच्च सम्मान भी दिए थे।
इसकी काट करने के लिए पिछले हफ़्ते मलेशिया में एक वैकल्पिक इसलामी सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसमें तुर्की के अलावा ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी भी शामिल हुए थे। इस वैकल्पिक इसलामी सम्मेलन के पीछे अमेरिका-विरोधी भाव भी छिपा हुआ है।
इस सम्मेलन के नायक के तौर पर पाकिस्तान को उभरना था, लेकिन सऊदी अरब ने अड़ंगा लगा दिया। उसके इशारे पर इमरान ख़ान ने मलेशिया जाने से मना कर दिया।
अब कश्मीर के सवाल पर इसलामी देशों का संगठन एक नया सम्मेलन आयोजित कर रहा है।
पाकिस्तान और सऊदी अरब दोनों को अपनी नाक बचानी है। लेकिन अभी-अभी पता चला है कि इसलामाबाद में होनेवाले इस सम्मेलन में इस्लामी राष्ट्रों के विदेश मंत्री भाग नहीं लेंगे। उनकी जगह उनके सांसद आएँगे।
इन देशों की सरकारें भारत को कह सकेंगी कि जहाँ तक उनका सवाल है, कश्मीर के मुद्दे पर वे तटस्थ हैं। दूसरे शब्दों में, वे भारत और पाकिस्तान दोनों को खुश करने की तरकीब कर रहे हैं। जाहिर है कि भारतीय विदेश नीति के लिए यह बड़ा धक्का है।
यहाँ प्रश्न यही है कि जैसे पिछले इसलामी सम्मेलन में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को ससम्मान आमंत्रित किया गया था, क्या इस बार भी भारतीय विदेश मंत्री या भारतीय सांसदों को उसमें आमंत्रित किया जाएगा ?
मुझे लगता है कि ये इसलामी राष्ट्र कश्मीर के कारण भारत के विरुद्ध उतना नहीं हैं, जितना नागरिकता क़ानून और नागरिकता रजिस्टर की वजह से हो रहे हैं। भारत सरकार को इस चुनौती का सामना अत्यंत दूरदृष्टि के साथ करना होगा।
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