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बाबरी विध्वंस: सभी सीएम और पीएम ने लिब्रहान आयोग के ख़िलाफ़ ही काम किया था

मशहूर पत्रिका 'द सिटीज़न' ने रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारी और लेखक माधव गोडबोले का यह लेख प्रकाशित किया। प्रस्तुत है उसका हिन्दी अनुवाद। 
माधव गोडबोले
यह बात कई बार कही जा चुकी है कि अदालतें 'क़ानून की अदालतें होती हैं, न्याय की नहीं।' यह बात एक बार और घर कर गई जब विशेष सीबीआई अदालत ने बाबरी मसजिद विध्वंस के मामले में फ़ैसला सुनाया, जिसमें सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया गया। 
पिछले तीन साल से अदालत में सुनवाई चल रही थी। सीबीआई ने जो टनों साक्ष्य व निष्कर्ष निकाले, उनसे अदालत सहमत नहीं हुआ। इस फ़ैसले से कई सवाल खड़े होते हैं। 

सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता

सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने इस मामले को रोस्टर में प्राथमिकता पर रखा और कहा कि इस मामले की रोज़ाना सुनवाई होनी चाहिए। यहाँ तक कि जज को सेवा विस्तार दिया गया ताकि वह अपना काम पूरा कर सकें। लेकिन नतीजे से लोगों को बहुत अचरज हुआ और निराशा हुई। 
लोगों को यह पता नहीं चल रहा है कि क्या अदालत के सामने लिब्रहान आयोग की सिफ़ारिशें रखी गई थीं। इस आयोग में एक जज एक हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश थे। इसे अपना काम करने में ढेर सारी दिक्क़तों का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश सरकार ने ही नहीं, बल्कि जिस यूपीए सरकार ने इसका गठन किया था, उसने भी इसके प्रति असहयोग का रवैया अपना रखा था। 

मुलायम-मायावती का रवैया

इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि सत्ता में कौन राजनीतिक दल था। लिब्रहान आयोग ने जब अपनी रिपोर्ट 2009 में सौंपी थी, उसके पहले 12.5 साल तक दो ग़ैर-बीजेपी मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और मायावती सत्ता में थीं। 
मुलायम सिंह यादव और मायावती, दोनों ही घनघोर धर्मनिरपेक्ष और बीजेपी-विरोधी थे। यह आश्चर्य की बात है कि इन लोगों ने सत्य की खोज करने और बाबरी विध्वंस के पीछे सक्रिय ताक़तों का पता लगाने में लिब्रहान आयोग की मदद नहीं की।

देवेगौड़ा-गुजराल ने क्या किया?

यही बात केंद्र सरकार पर भी लागू होती है। जनता दल के एच. डी. देवेगौड़ा 324 दिन तक प्रधानमंत्री रहे, उनके बाद जनता दल के ही इंद्र कुमार गुजराल 322 दिन तक प्रधानमंत्री रहे। यूपीए के मनमोहन सिंह मई 2004 से 2009 में लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट पेश किए जाने तक प्रधानमंत्री थे। 
आयोग ने कुंठित होकर टिप्पणी की थी, 'मैं खुद को यह कहने से नहीं रोक पा रहा हूं कि आयोग के कामकाज में जानबूझ कर रोड़े अटकाए गए।'

सालों का स्टे ऑर्डर!

दिल्ली और इलाहाबाद हाई कोर्ट से मिले स्थगन आदेश इतने लंबे होते थे कि गवाह को कई साल तक आयोग के सामने पेश होने से छूट मिल जाती थी। इनमें से एक कल्याण सिंह थे, जो घटना के समय मुख्यमंत्री थे और जिन्होंने प्रशासन पूरी तरह अपने हाथ में लेकर बाबरी मसजिद के ध्वंस को संचालित किया था। लिब्रहान आयोग ने कहा था, 

'एक महत्वपूर्ण व्यक्ति कल्याण सिंह कई साल तक आयोग के सामने पेश नहीं हुए और वे हर बार अदालत से स्टे ऑर्डर ले लेते थे। एक दशक बीत जाने के बाद उन्होंने एक बयान जारी कर विध्वंस की साजिश होने की जानकारी होना कबूल किया था।'


लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट का अंश

बयान से मुकर गए मुलायम

आयोग ने इसके बाद टिप्पणी की थी, 'यहां तक कि गवाहों ने पहले जो प्रेस बयान दिए थे, जब उनसे जुड़ी पूछताछ की गई तो वे अपने उन बयानों से मुकर गए। इनमें प्रमुख थे मुलायम सिेंह, कल्याण सिंह और कई दूसरे लोग जिन्होंने प्रेस में बयान दिया था कि उन्हें साजिश की जानकारी थी, लेकिन आयोग के सामने शपथ लेकर पूछताछ में उससे इनकार कर दिया था।' 

तत्कालीन शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से बहुत ही गौरव से कहा था कि बाबरी मसजिद को ढहाने की साजिश में शिवसेना शामिल थी। 

मैं यह जानता हूं कि यह एक न्यायिक आयोग था, इसके निष्कर्ष किसी पर बाध्यकारी नहीं थे, वे महज सलाह के रूप में थे। लेकिन ये निष्कर्ष इस आयोग ने निकाले थे और इसलिए इन पर ध्यान दिया जाना चाहिए था। 

सबूत क्यों खारिज?

सीबीआई अदालत ने उसके सामने पेश किए गए सबूतों को खारिज करते हुए वे कारण बताए थे, जिनकी वजह से उसने उन्हें स्वीकार नहीं किया था। वे थे, ऑडियो कैसेट को किसी फ़ोरेंसिक प्रयोगशाला से सर्टिफाइड नहीं कराया गया था, फोटो के निगेटिव पेश नहीं किए गए थे, वगैरह वगैरह। सीबीआई की लीगल टीम को इन सबूतों को अदालत में पेश करने के पहले इन ज़रूरतों को पूरी करना चाहिए था। 
यह मामला अदालत में 28 साल तक चलता रहा। इस दौरान सीबीआई का रुख बदलता रहा, इसका रुख इस पर निर्भर करता था कि केंद्र में किसकी सरकार है, वह एनडीए है या यूपीए है।

'पिंजड़े का तोता'

सीबीआई के गठन के समय से ही उसके रिकॉर्ड को देख कर यह आश्चर्यजनक नहीं है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी बीच-बीच में कई बार इस पर टिप्पणी की है और उसे 'पिंजड़े में बंद तोता' जैसे विशेषणों से नवाजा है।  

एक मात्र हवाला केस ही मामला था, जिसे लेकर सीबीआई को फटकार लगाई गई थी। सीबीआई के लिए अलग क़ानून बनाने का सवाल पिछले 50 साल से लटका पड़ा है, पर राज्यों के विरोध के कारण इस पर कोई प्रगति नहीं हुई है। केंद्र-राज्य के बीच विश्वास की कमी को देखते हुए यह उम्मीद नहीं की जाती है कि यह निकट भविष्य में पारित कर दिया जाएगा। 

सीबीआई की स्वायत्तता

मैंने बार-बार सलाह दी है कि इस मामले पर अंतर राज्य परिषद में बात होनी चाहिए। ऐसा क़ानून बनना चाहिए जिससे सीबीआई के लिए एक गवर्निंग बोर्ड बने, जिसमें केंद्रीय मंत्री और कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री रोटेशन पर हों। यही एक मात्र रास्ता है, जिससे सीबीआई की स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित की जा सकती है। 
लेकिन बाबरी मसजिद विध्वंस जैसे मामलों में सीबीआई से इतनी सहूलियत होती है कि केंद्र सरकार सीबीआई के लिए अलग क़ानून बनाने की पहल कभी नहीं करेगी। इसलिए यह हमेशा अरण्य रोदन ही रहेगा। 

बाबरी विध्वंस कैसे?

ऐसा लगता है कि सीबीआई ने यह मान लिया कि बाबरी मसजिद के विध्वंस के लिए पाकिस्तान से होने वाली घुसपैठ ज़िम्मेदार है। पर यह आवश्यक है कि इस पर सरकार एक आधिकारिक बयान जारी करे। 
मूल सवाल यह है कि क्या मजबूत ठोस बाबरी मसजिद बग़ैर किसी तैयारी के कारसेवकों द्वारा स्वत: स्फ़ूर्त या तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में 5-6 घंटे में ढहा दी गई।

साजिश?

तैयारी और साजिश में बहुत ही बारीक अंतर है। 

किसी ढाँचे को ढहाने की तैयारी करने के लिए सारे लोगों को एक कमरे में ही एकत्रित होना ज़रूरी नहीं है जैसा सीबीआई अदालत ने मान लिया। सलाह मशविरा फोन या संचार के दूसरे साधनों से भी हो सकता है। 

यह बेहद महत्वपूर्ण है कि राम लला की मूर्ति सजग कारसेवकों द्वारा बहुत ही सावधानी से निकाल ली गई और उसे शाम को 7 बजे फिर से स्थापित कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था?

सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं यह नोट किया था कि बाबरी मसजिद का ढहाया जाना ग़ैरक़ानूनी था। भूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के तहत पूरी ज़मीन हिन्दुओं को सौंप दी गई, इससे यह उम्मीद जगी थी कि कम से कम ढाँचे को ग़ैरक़ानूनी ढंग से गिराने के आपराधिक मामले में ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा मिलेगी। पर यह उम्मीद भी झूठा निकला। 
इस ग़लती को ठीक करने का एक मात्र रास्ता यह है कि इस फ़ैसले के ख़िलाफ अपील इलाहाबाद हाई कोर्ट में और ज़रूरत पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट में दायर की जाए। 

संविधान में बुनियादी बदलाव नहीं

जो विचार मुझे उद्वेलित कर रहे हैं, उनके बारे में भी बताना ज़रूरी है। जब इंदिरा गांधी 1975-77 के दौरान आपातकाल में संविधान में बड़े बदलाव करना चाहती थी, सुप्रीम कोर्ट ने लाल रेखा खींच दी और साफ कह दिया कि संसद संविधान की मूल संरचना में संशोधन नहीं कर सकती है। अदालत ने उस फ़ैसले में इसकी परिभाषा तय नहीं की, पर बाद के फ़ैसलों में उसने संविधान की मूल संरचना को अक्षुण्ण बनाए रखा-इसमें शामिल हैं, संघीय व लोकतांत्रिक शासन, क़ानून का शासन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, सत्ता का बंटवारा, धर्मनिरपेक्षता वगैरह वगैरह। 
लेकिन पिछले कुछ सालों में जो कुछ हुआ है, उससे लगता है कि बुनियादी संरचना को नष्ट करने के लिए संविधान में संशोधन आवश्यक नहीं है। सोच समझ कर किया गया काम इसके लिए काफी है। नतीजा यह है कि हालांकि बुनियादी संरचना अपनी जगह बरक़रार है, भारत वह नहीं रहा, जैसा संविधान में सोचा गया था। 
('द सिटीज़न' से साभार)
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माधव गोडबोले

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