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भारत 1947 में ही हिंदू राष्ट्र बन जाता तो बेहतर होता

एक सच्चा हिंदू राज्य उस छद्म धर्मनिरपेक्ष राज्य से बेहतर होता, जिसने मुसलमानों को सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के मामले में सबसे निचले पायदान पर पहुँचा दिया है।
सईद नक़वी

इस बात के लिए भारत के क़रीब 19 करोड़ मुसलमानों की तारीफ़ करनी पड़ेगी कि किस तरह अपने आप को ‘अधीन’ मानते हुए उन्होंने ख़ुद को ‘वे’ में बदल जाने दिया यानी व्यापक हिंदू समाज के लिए वे उनसे अलग होकर ‘दूसरे’ बन गये। और इस तरह इन ‘वे’ (मुसलमानों) के विरुद्ध व्यापक हिंदू समाज धीरे-धीरे भगवा के विस्तार के भीतर सिमटता गया। जैसे-जैसे यह भगवा विस्तार देश के भूगोल का स्थायी भाव बनता जाएगा, वैसे-वैसे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों की मौजूदा संरचना स्थायी बन जाएगी।

कांग्रेस ने चुपके से वह मंच तैयार किया जहाँ से बीजेपी अब फल-फूल रही है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि वह राजीव गाँधी ही थे जिन्होंने राम मंदिर के ताले खोले थे, 1989 के चुनाव की पूर्व संध्या पर अयोध्या से ‘रामराज्य’ का वादा किया था और अदालत के फ़ैसले का उल्लंघन कर राम मंदिर के लिए आधारशिला रखने की अनुमति दी थी।

विचार से ख़ास

आज हम जो कुछ देख रहे हैं उसका बीज 1947 में ही पड़ गया था। मेरे स्कूल के मित्र, दिवंगत विनोद मेहता, एक ईमानदार संपादक के रूप में, जिन्होंने कभी पवित्र रहे इस पेशे में प्रवेश किया था, इस मामले में अपनी बात रखी थी। उन्होंने कहा था, ‘हमने 800 साल का मुसलिम शासन, 200 साल का ब्रिटिश शासन झेला है और हमने मुसलमानों को एक नया देश, पाकिस्तान दिया है।’ वह थोड़ा-सा रुक कर बोले, ‘अगर हिंदू कभी-कभी कम बदला हुआ महसूस करता है तो आप क्या कहेंगे?’

मुसलिम पाकिस्तान और कांग्रेस

चूँकि मैं 60 साल से विनोद को एक दोस्त के रूप में जानता हूँ, मुझे पक्के तौर पर पता है कि विनोद वास्तव में क्या थे। उस पूरी बातचीत को लिखने में पूरी एक किताब बन जाएगी। फ़िलहाल मुझे उस बिंदु पर आना चाहिए जिस पर हम इस अर्थ में एकमत थे कि हमने अपनी आवाज़ नीची कर ली। यदि कांग्रेस दो-राष्ट्र के सिद्धांत का पुरज़ोर विरोध कर रही थी जिसमें कहा गया था कि हिंदू और मुसलिम दो राष्ट्रों का गठन करते हैं तो इसने अचानक से मुसलिम पाकिस्तान के निर्माण को कैसे स्वीकार किया? साफ़ तौर पर हिंदुओं का एक बड़ा तबक़ा ठगा हुआ महसूस करेगा क्योंकि अगर पाकिस्तान धर्मसम्मत था, तो क्या हिंदुस्तान को भी ऐसा ही करना चाहिए था?

एक सच्चा हिंदू राज्य उस छद्म धर्मनिरपेक्ष राज्य से बेहतर होता, जिसने मुसलमानों को सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के मामले में सबसे निचले पायदान पर पहुँचा दिया है। 2005 की सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी मुसलमानों की स्थिति की यही तसवीर दिखती है।

यह तर्क दिया जाता है कि हिंदू भारत एक अनुदार धर्म शासित राज्य होता। क्या मोदी एक मॉडल धर्मनिरपेक्ष राज्य का पर्यवेक्षण कर रहे हैं? ब्रिटेन एक एंग्लिकन राजशाही है जो अपने सभी नागरिकों को रंग और नस्ल से निरपेक्ष समान अवसर की गारंटी देता है। सादिक़ ख़ान लंदन के मेयर हैं और गृह सचिव के रूप में साजिद जाविद तकनीकी रूप से प्रधानमंत्री बनने की कतार में हैं।

धर्मनिरपेक्षता पर एकमत क्यों नहीं?

ब्रिटिश राज से हिन्दू राज (हिंदुस्तान) में सत्ता लाने के बजाय जवाहरलाल नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता पर ज़ोर दिया, जिसका उनके सहयोगियों ने ही विरोध किया था। पुरुषोत्तम दास टंडन, बाबू राजेंद्र प्रसाद, वल्लभभाई पटेल कभी भी नेहरू के विचारों से सहमत नहीं हुए। यहाँ तक कि महात्मा गाँधी भी नेहरू के विचारों से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा था, ‘मैं खिलाफत का समर्थन करता हूँ क्योंकि वह मोहम्मद अली का धर्म है।’ उन्होंने कहा, ‘और वह मुसलमानों को उस गाय को मारने से रोकेंगे जो मेरा धर्म है।’ गाँधी मूल रूप से हिंदू थे, लेकिन उन्होंने उस धर्मनिरपेक्षता का भी प्रचार किया जो गहरी धार्मिक आस्था वाले इस देश में कायम रहने वाला था। उनके हत्यारों के प्रशंसक अब संसद में हैं, यह अजीब बात है।

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हिंदू धर्म की इस विविधता को बढ़ावा प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने दिया जब उन्होंने राजनीतिक कारणों से मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण को लागू कर दिया। लोकतंत्र और समतावाद के संपर्क में आने पर कठोर जाति-व्यवस्था काफ़ी कमज़ोर पड़ गई थी। मंडल आयोग के बाद राम के जन्म स्थान पर राम मंदिर के निर्माण के लिए एक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में हिंदुत्व की प्रतिक्रिया आई। यह वही जगह है जहाँ पर बाबरी मसजिद खड़ी थी। इससे घातक सांप्रदायिकता फैलने की स्थिति बन गई।

इस राजनीति के पहले लाभार्थी बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी थे। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने पाकिस्तान के साथ संबंधों में तेज़ी लाने, कश्मीर तक पहुँचने और मुसलमानों के साथ बात करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर माहौल बनाया। वह 2004 में चुनाव हार गये और दस साल तक प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के लिए रास्ता साफ़ कर दिया। 

इसलामोफ़ोबिया का दौर

मोदी उस समय सामने आए जब 9/11 की दुनिया भयंकर रूप से इस्लामोफ़ोबिया की चपेट में थी। मोदी ने इस बहती धारा में फ़ायदा देखा। उनकी हार्ड लाइन सांप्रदायिकता वैश्विक रुझानों में बड़े करीने से फ़िट बैठी। उन्होंने पाकिस्तान और कश्मीर के मामले में सख़्ती दिखाई। उन्होंने मुसलमानों द्वारा कथित तौर पर गोमांस बेचने व खाने और ग़ैर-मुसलमानों से शादी करने पर लिंच यानी पीट-पीट कर मार दिये जाने के मामले में भी उच्च स्तर की सहिष्णुता दिखाई। दलितों के ख़िलाफ़ क्रूरता बढ़ गई क्योंकि उन्होंने बीजेपी का विरोध करने वाले जातिवादी नेताओं की ओर रुख़ कर लिया। इसके साथ ही, उनके बढ़ते हुए आत्मसम्मान से उच्च जातियों के लोंगों में नाराज़गी हुई।

इस क़ानून-व्यवस्था की स्थिति, निराशाजनक आर्थिक प्रदर्शन, ग्रामीण संकट, रिकॉर्ड बेरोज़गारी और अनगिनत अन्य विफलताओं के बावजूद मोदी एक प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापस कैसे आए?

‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ 

90 के दशक की सांप्रदायिक राजनीति में एक चुभाने वाला नारा दिया गया था- ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ या ‘हमें गर्व के साथ घोषित करना चाहिए कि हम हिंदू हैं’। मई 2014 में संसद में अपने पहले भाषण में मोदी ने इस हीन भावना के लिए कारणों को गिनाया। उन्होंने हिंदुओं को ‘1,200 साल की ग़ुलामी’ से उबारने का काम अपने कंधों पर लिया। आत्मसम्मान को फिर से पाने के लिए 1,200 साल के मुसलिम और ब्रिटिश शासन का हिसाब को बराबर करना होगा। आक्रोश की एक राष्ट्रीय मनोदशा और गर्व के लिए वीरता को बनाए रखना होगा।

इस उद्देश्य के लिए मीडिया पर एकाधिकार किया गया। यहीं पर क्रोनी कैपिटलिज़्म आता है। एक व्यक्तित्व जो केवल संतों या देवताओं के लिए था उसे बढ़ाया जाना था। कुल मिलाकर यही बात प्रमुख है। दूसरे समाजों में जो ‘सम्मान’ है हिंदू समाज में उसे ‘श्रद्धा’ के रूप में पेश किया जाता है, जो एक स्तर पर देवत्व की हद तक जाता है। एक ऐसे नेता की कल्पना करें जिसे हर चैनल पर बार-बार देखा जाता है, जिसका अथक मंत्र है: ‘आपका हर वोट मोदी के खाते में जाएगा’। वह नेता अपनी ओर इशारा करते हुए ही यह कहता है। लोग अपने टीवी सेट के चारों ओर ऐसे बैठते हैं जैसे एक वेदी या भगवान के चारों ओर बैठकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।

अपने अहंकार में कांग्रेस ने ठीक बीच चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और दिल्ली में आप जैसे दलों को निशाना बनाकर मोदी का बचाव करते हुए सहयोगी की भूमिका निभाई। परिवार और दोस्तों ने राहुल गाँधी को एक जंगली बत्तख का पीछा करने के लिए लगा दिया है।

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