कोरोना की आफ़त की वजह से यदि संविधान का अनुच्छेद 324 निलंबित हो सकता है तो फिर इसी का अनुच्छेद 75(5) क्यों नहीं? अनुच्छेद 324 से ही चुनाव आयोग का जन्म हुआ है। जबकि अनुच्छेद 75(5) में किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के लिए छह महीने के भीतर अपनी विधानसभा या संसद का सदस्य बनना अनिवार्य बनाया गया है। चुनाव आयोग अनुच्छेद 324 के अनुसार सही ढंग से काम कर सके, इसके लिए ‘जन प्रतिनिधित्व क़ानून 1951’ मौजूद है।
अब यदि लॉकडाउन की वजह से चुनाव आयोग को जन प्रतिनिधित्व क़ानून की धारा 151-ए की इस बन्दिश से छूट मिल सकती है कि वो महाराष्ट्र विधान परिषद की ख़ाली पड़ी 9 सीटों के चुनाव को अनिश्चितकाल के लिए टाल दे, तो फिर इसी परम्परा के तहत उद्धव ठाकरे के लिए 6 महीने के भीतर विधायक बनने की संवैधानिक शर्त यानी अनुच्छेद 75(5) में छूट क्यों नहीं दी जा सकती?
साफ़ दिख रहा है कि लॉकडाउन की आड़ में केन्द्र सरकार और बीजेपी की ओर से महाराष्ट्र को ज़बरन संवैधानिक संकट में धकेलने की कोशिश की जा रही है। इसीलिए सहज तर्कों को ताक़ पर रखकर यह शोर-मचाया जा रहा है कि 27 मई के बाद उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने नहीं रह सकते क्योंकि तब तक वो विधायक नहीं बन पाएँगे।
भारत की राजनीतिक सत्ता के संचालन के लिए संविधान के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण क़ानून है उसे जन प्रतिनिधित्व क़ानून, 1951 या Representation of the People Act, 1951 कहते हैं। इस क़ानून में संविधान से भी ज़्यादा बार सुधार या संशोधन हुए हैं। इसी क़ानून को चुनाव आयोग की गीता और बाइबल का दर्ज़ा हासिल है। देश में होने वाले हरेक चुनाव की अच्छाई और बुराई और नेताओं के शील-स्वभाव का सीधा नाता भी इसी क़ानून से है।
इसी जन प्रतिनिधित्व क़ानून में 1 अगस्त 1996 को धारा (सेक्शन) 151-ए का इज़ाफ़ा हुआ। इसमें कहा गया है कि संसद या विधानसभा की हरेक खाली सीट को छह महीने के भीतर भरने की ज़िम्मेदारी निर्वाचन आयोग की है। आयोग ही निर्धारित प्रक्रिया से खालीपन मिटाता है। बशर्ते, खाली स्थान की बची हुई मियाद एक साल से ज़्यादा हो, या फिर केन्द्र सरकार यह अधिसूचित करे कि खाली स्थान के लिए चुनाव करवाना संभव नहीं है।
अब या तो बीजेपी अथवा उसके चहेते राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी एलान करें कि उद्धव ठाकरे की सरकार अपना बहुमत गँवा चुकी है। लिहाज़ा, उन्हें 27 मई के बाद एक पल के लिए भी मुख्यमंत्री और यहाँ तक कि कार्यवाहक मुख्यमंत्री भी बना रहने नहीं दिया जा सकता। या फिर, राज्यपाल अपने ‘विवेकाधिकार’ का इस्तेमाल करते हुए उद्धव ठाकरे को तब तक निर्विघ्न ढंग से मुख्यमंत्री बना रहने दें, जब तक कि खाली सीटों के लिए चुनाव सम्पन्न नहीं हो जाते।
आमतौर पर राज्यपालों के विवेक और अधिकार दोनों ही, कठपुतली की डोर की तरह केन्द्रीय गृह मंत्री और प्रधानमंत्री के हाथों में ही होते हैं। यह ऐतिहासिक तथ्य जितना कांग्रेसियों के ज़माने में सही था, जितना नेहरू, इंदिरा और राजीव के दौर में सही था, उतना ही अटल-आडवाणी और मोदी-शाह काल में भी सही है।
हर दौर में महामहिम राज्यपाल की हैसियत केन्द्र सरकार के उस दरबान जैसी ही रही है जिसे पूरी शान-ओ-शौक़त से राजभवन में सजाकर रखा जाता है। यह परम्परा हमें अँग्रेज़ों से मिली और हम पूरी श्रद्धा और शुद्ध अन्तःकरण से इसका निर्वहन करते चले आ रहे हैं।
राज्यपाल एक ऐसा जन-सेवक होता है, जिसके ‘जन’ का दायरा सबसे संकुचित होता है। यह सिर्फ़ प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के बीच ही सिमटा रहता है।
इसीलिए, मोदी-शाह को यदि यह लगता है कि उद्धव ठाकरे के पास बहुमत नहीं रहा तो उन्हें लॉकडाउन के दौरान वैसा ही ‘फ़्लोर टेस्ट’ करवाने का आदेश राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को देना चाहिए जैसा कि उन्होंने कमलनाथ की सरकार को गिराने और कांग्रेसी विधायकों की 'ख़रीद-फ़रोख़्त' करके शिवराज सिंह चौहान की ताजपोशी करवाने के लिए लाल जी टंडन को दिया था। क्योंकि सिर्फ़ फ़्लोर टेस्ट ही इकलौती ऐसी संवैधानिक व्यवस्था है, जिसे लॉकडाउन के बावजूद टाला नहीं गया।
सब जानते हैं कि देश में पहली बार लॉकडाउन की नौबत आयी। पहली बार ही लॉकडाउन की वजह से चुनाव कार्यक्रम का एलान होने के बाद चुनाव टालना पड़ा। लिहाज़ा, चुनाव टालने का कोई रिवाज़ या परम्परा तो हमारा मार्गदर्शन नहीं कर सकती।
जबकि फ़्लोर टेस्ट को लेकर क़ानून भी है, परम्परा भी और सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला भी। लिहाज़ा, मोदी-शाह को साफ़ कर देना चाहिए कि लॉकडाउन के बावजूद मध्य प्रदेश की तरह महाराष्ट्र में भी बहुमत का फ़ैसला विधानसभा में ही मत-विभाजन के ज़रिये ही किया जाएगा।
दूसरी ओर, यदि अपने ‘मन की बात’ के ख़िलाफ़ जाकर माननीय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री जी यह तय करते हैं कि फ़िलहाल, लॉकडाउन को देखते हुए उद्धव ठाकरे पर वज्रपात करके उन्हें दिये जाने वाले राजनीतिक प्राण-दंड को कुछ दिनों के लिए स्थगित रखा जाए तो भी उन्हें इसका एलान कर देना चाहिए। ताकि उनके समर्थक उनका भरपूर गुणगान कर सकें और थाली-ताली पर्व बना सकें। इस तरह कोरोना से जूझ रही महाराष्ट्र की जनता को ऐसा सियासी पैकेज मिल जाएगा, जैसे यमराज ने किसी को प्राण बख़्शीश में दे दी हो। ऐसे एलान के लिए रात आठ बजे होने वाले ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ की ज़रूरत नहीं है। महज एक ट्वीट से भी क़िला फ़तह किया जा सकता है।
साफ़ है कि जब तक उद्धव सरकार के विधानसभा में बहुमत गँवा देने का तथ्य साबित नहीं हो, तब तक उनकी नियुक्ति को छह महीने वाले दायरे में फँसाकर नहीं रखना चाहिए। संविधान के शब्दों के साथ उसकी मंशा भी देखी जानी चाहिए। क्योंकि आपात दशा में आपात फ़ैसले ही लिये जाते हैं। मौजूदा माहौल में छह महीने की मियाद की दुहाई देकर निर्वाचित सरकार को उसके दायित्व से विमुख नहीं किया जाना चाहिए।
दिलचस्प सवाल तो यह भी है कि महाराष्ट्र में दिख रहे संवैधानिक संकट को, क़ानूनी सवालों को हल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को स्वप्रेरित क़दम क्यों नहीं उठाना चाहिए? उसे किसी याचिका के दायर होने तक का ही इंतज़ार ही क्यों करते रहना चाहिए?
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