मुख्यमंत्रियों के साथ 27 अप्रैल को हुई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो सबसे बड़ी बात कही, उसे उनके चहेते मेनस्ट्रीम (गोदी) मीडिया ने ऐसा ‘अंडर प्ले’ किया कि यह बात सुर्ख़ियों से ग़ायब हो गयी। प्रधानमंत्री ने कहा कि “आर्थिक स्थिति की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था अच्छी है।”
कोरोना की आफ़त के बीच प्रधानमंत्री ने इतनी बड़ी बात कही। लेकिन इसे तवज्जो नहीं मिली। शायद, ऐसी वजहों से ही प्रधानमंत्री को भारतीय पत्रकारिता नापसन्द है। अरे! भले ही अभूतपूर्व संकट की मौजूदा घड़ी में प्रधानमंत्री की मंशा देश को ढाँढस बँधवाने की ही रही हो, लेकिन इतने बड़े, गहरे और दूरगामी बयान को नज़रअंदाज़ करके गोदी मीडिया ने माननीय प्रधानमंत्री को उनके नारे “दो गज़ दूरी, है ज़रूरी” तक सीमित कर दिया।
यह मोदीजी के प्रति घोर अन्याय है। निन्दनीय है।
देश का हर अर्थशास्त्री, रिज़र्व बैंक से लेकर उद्योग जगत तक, ये सभी लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था को लेकर बेहद चिन्तित हैं। चिन्तित लोगों की इस जमात में विपक्षी नेता और टुकड़े-टुकड़े गैंग वाले बुद्धिजीवी शामिल नहीं हैं। क्योंकि इनका तो मोदीजी के चमत्कारों में कभी यक़ीन रहा ही नहीं। लेकिन गोदी मीडिया ने भी इतनी बड़ी ‘ख़बर’ को नहीं समझा, इसे लेकर आश्चर्य है।
टेस्टिंग किट का घोटाला नहीं दिखता!
वैसे भी देश के जाने-माने मीडिया संस्थानों को मुद्दतों से हिन्दू-मुसलिम के सिवाय और कुछ दिखा भी कब है? जो आँखें कभी ऐसे घोटाले भी देख लेती थीं, जो अदालतों में साबित नहीं हो सके, जो आँखें नोटबन्दी और जीएसटी का गुणगान किये बिना नहीं थकती थीं, जिन्होंने सीएए और एनआरसी की शान में आकाश-पाताल एक कर दिया था, उन्हीं आँखों को अब कोरोना की टेस्टिंग किट के आयात में छिपा घोटाला नहीं दिखता। इसे तब रफ़ाल घोटाला भी नहीं दिखा था और अब प्रवासी कामगारों की भुखमरी और दिहाड़ी मज़दूरों की बेरोज़गारी भी नहीं दिख रही है।
कहना मुश्किल है कि गोदी मीडिया रतौंधी से पीड़ित है या मोतियाबिन्द से। ऐसे वक़्त में जब पीएम केयर फंड को छोड़कर अर्थव्यवस्था का हरेक क्षेत्र या तो कराह रहा है या फिर अन्तिम सांसें गिन रहा है, तब प्रधानमंत्री के इस बयान - ‘अर्थव्यवस्था की चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है, वह ठीक है’, की अहमियत कितनी बड़ी है, ये ब्रेक्रिंग नहीं बल्कि धरती को हिला देने वाली ख़बर है!
मोदी जी के अर्थव्यवस्था पर दिए इस बयान के बाद तो भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में बसे हुए भारतवंशियों को अपने-अपने घरों में रहते हुए ताली-थाली वादन करके, शंखनाद करके, दीपक जलाकर जश्न मनाना चाहिए।
हमें मानकर चलना चाहिए कि प्रधानमंत्री ने जनता को खुश करने के लिए रिज़र्व बैंक से सरप्लस फंड को हासिल करने की सीमा को 75,000 करोड़ रुपये से बढ़वाकर 2 लाख करोड़ रुपये करवा दिया है, बार-बार बैंकों के रेपो-रेट कम किये जा रहे हैं, जीडीपी के शून्य तक गिरने और शून्य से भी नीचे जाने की बातें हो रही हैं, ग़रीबों की संख्या में 10 करोड़ लोगों के इज़ाफ़े की बात हुई है, बेरोज़गारों की तादाद में भी 10 करोड़ की वृद्धि का अनुमान लगाया गया है, सरकारी कर्मचारियों की भी तनख़्वाह काटी जा रही है, पेंशनरों से भी कहा गया है कि उन्हें डेढ़ साल तक कष्ट बर्दाश्त करना होगा।
इसके अलावा संगठित क्षेत्र तबाह है, असंगठित क्षेत्र बर्बाद है, जिन किसानों की आमदनी दोगुनी हो चुकी थी उन्हें अब अपनी उपज का आधा दाम भी मिलना मुहाल है, कल-कारखाने, ऑफ़िस-रेस्तरां बन्द हैं, मॉल-बाज़ार बन्द हैं, कुटीर उद्योग ख़त्म हैं, रेल-विमान, ट्रक-बस सब बन्द हैं, फिर भी यदि मोदीजी कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था ठीक है, तो ठीक ही होगी!
किसकी हिम्मत है जो प्रधानमंत्री से पूछ भी ले कि हुज़ूर कैसे ठीक है, क्या-क्या ठीक है, कितना-कितना ठीक है?।
अच्छा, चलिए यह भी बता दीजिए कि जो कुछ लेश-मात्र ठीक नहीं है, वह कब तक ठीक हो जाएगा, कैसे ठीक होगा? बड़ी मेहरबानी होगी, यदि आप इसके बारे में भी कुछ बता सकें तो, देश का मार्गदर्शन कर सकें तो, देशद्रोहियों का कौतूहल शान्त कर सकें तो।
प्रधानमंत्री जी को कौन बताये कि मामला सिर्फ़ देह से दो गज़ की दूरी का ही नहीं है, बल्कि भोजन की थाली से पेट की दूरी का सवाल इससे भी बड़ा है। सबसे बड़ा है। कोरोना का मुक़ाबला करने के लिए भी तो सबसे पहले पेट को रोटी चाहिए। रोटी के लिए पैसा चाहिए। पैसे के लिए धन्धा-रोज़गार चाहिए। धन्धा-रोज़गार है, तभी अर्थव्यवस्था ठीक है। वर्ना, सब कूड़ा है। सफ़ाचट है।
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