केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से ही यह सवाल लगातार पूछा जा रहा है कि क्या देश का मीडिया आज़ाद है? क्या मीडिया को सब कुछ कहने की आज़ादी है? क्या वह सरकार की तीख़ी आलोचना कर सकता है? क्या मीडिया प्रधानमंत्री मोदी की उसी तरह से आलोचना कर सकता है जैसे मनमोहन सिंह के जमाने में की जाती थी? ऐसे आरोप इन दिनों जमकर लगाये जा रहे हैं कि मोदी सरकार बनने के बाद से मीडिया अघोषित आपातकाल से गुज़र रहा है। उसके ऊपर लगातार सरकार का अंकुश रहता है। कभी किसी आलोचक संपादक की छुट्टी हो जाती है तो कभी मीडिया समूह को अचानक सरकार से मिलने वाला विज्ञापन बंद कर दिया जाता है।
ताज़ा वाक़या ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ‘द टेलीग्राफ़’ और ‘द हिंदू’ का है। जिनके सरकारी विज्ञापन अकारण ही रोक दिये गये। ‘द हिंदू’ लगातार सरकार की आलोचना करता रहा है। तो ‘द टेलीग्राफ़’ अपनी दुस्साहसिक हेडलाइन के लिये विख्यात है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया भी गाहे-बगाहे सरकार को चिकोटी काटने से परहेज़ नहीं करता। इस बात पर मीडिया जगत में काफ़ी प्रतिक्रिया है।
अभी यह बहस ख़त्म भी नहीं हुई थी कि वित्त मंत्रालय ने अपने दफ़्तर में सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त पीआईबी पत्रकारों की एंट्री को बैन कर दिया। इस पर काफ़ी हंगामा मचा है। पत्रकारों का कहना है कि यह प्रतिबंध नाजायज़ है और पत्रकारों का ख़बर देने और लेने का जो बुनियादी काम है, उस पर ही चोट पहुँचाई जा रही है। इस बारे में पत्रकारों के कई संगठन प्रेस काउंसिल के चेयरमैन जस्टिस चंद्रमौली कुमार प्रसाद से मिले और अपना विरोध दर्ज कराया और उनसे इस मामले में दख़ल देने की माँग की।
मीडिया संगठनों का कहना है कि यह एक अलोकतांत्रिक कार्रवाई है और इससे पत्रकारों की स्वतंत्रता बाधित होती है। कुछ पत्रकारों ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से भी मुलाक़ात की थी और उन्हें पूरे मामले की जानकारी दी। एडिटर्स गिल्ड ने भी सरकार के इस क़दम की निंदा की है।
दरअसल, देश की अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है। आर्थिक मसलों से जुड़ी ख़बरों की वजह से सरकार की काफ़ी किरकिरी हो चुकी है। लगातार मीडिया में यह ख़बर आ रही है कि सरकार अर्थव्यवस्था की गिरती हालत को संभालने में नाकाम रही है।
बेरोज़गारी को लेकर हुई थी किरकिरी
सबसे बड़ा मसला बेरोज़गारी को लेकर उठा था। सरकारी संस्था नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस (एनएसएसओ) के बेरोज़गारी के आँकड़े ज़ब बिज़नेस स्टैंडर्ड में छपे थे तो देश में हंगामा मच गया था। इन आँकड़ों के मुताबिक़ देश में बेरोज़गारी पिछले 45 साल के सबसे ऊँचे पायदान पर है। इन आँकड़ों ने देश में खलबली मचा दी थी और सरकार को डैमेज कंट्रोल करना पड़ा था। सरकार को यह बताना पड़ा था कि एनएसएसओ के आँकड़े अंतरिम हैं और अभी सरकार ने पूरी तरह से इन्हें अनुमोदित नहीं किया है। जबकि एनएसएसओ एक स्वायत्त संस्था है और उसके आँकड़ों को सरकार की संस्तुति की कोई ज़रूरत नहीं है। फिर सीएमआईई ने भी इन आँकड़ों को जब बेरोज़गारी का आँकड़ा बताया तो सरकार की और किरकिरी हुई। सरकार लगातार इन आँकड़ों को सही बताने से कतराती रही।
इसी तरह से जीडीपी के आँकड़ों पर भी गंभीर सवाल उठे हैं। हाल ही में बजट पेश करने के बाद किस मद में कितना पैसा रखा गया है इसका ज़िक्र नहीं होने पर भी सरकार को तीख़ी आलोचना का शिकार होना पड़ा।
आर्थिक विकास के सारे आँकड़े कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है। पर सरकार एक तो दुनिया की सबसे तेज़ अर्थव्यवस्था होने का दावा कर रही है दूसरी तरफ़ वह यह भी दावा कर रही है कि उसकी वजह से ही भारत इस साल के अंत तक तीन खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनने वाला है और उसका लक्ष्य देश को पाँच खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनाने का है। ये सपने हसीन हैं और सरकार ऐसे सपने जनता को दिखाने में उस्ताद है। पर मौजूदा अर्थव्यवस्था की जो हालत है, वह इस ओर इशारा कर रही है कि अगर जल्द हालात पर क़ाबू नहीं पाया गया तो अर्थव्यवस्था देश को रुला देगी। ज़ाहिर है, सरकार नहीं चाहती कि आर्थिक मोर्चे पर उसकी नाकामी जगज़ाहिर हो। लिहाज़ा वित्त मंत्रालय में पत्रकारों की एंट्री ही बैन कर दी गयी।
अंग्रेजी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने 11 जुलाई के अपने संपादकीय में वित्त मंत्रालय के इस क़दम को ग़लत करार दिया है। अख़बार ने लिखा है - “वह सरकार जो अपना दूसरा कार्यकाल शुरू कर रही है, वह जब मीडिया को मंत्रालय से दूर रखने का काम करती है तो फिर वह ग़लत संदेश देती है। इसका मतलब यह निकलता है कि सरकार असुरक्षित महसूस कर रही है और वह मीडिया पर यक़ीन नहीं करती। इसका साफ़ अर्थ है कि सरकार न तो मीडिया पर विश्वास करती है और न ही अपने अफ़सरों पर।” अख़बार ने आगे लिखा है कि सरकार तक प्रेस की पहुँच आम नागरिक के जानने के अधिकार का मूल है और वित्त मंत्रालय को इस फ़ैसले पर दुबारा विचार करना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि पहली बार पत्रकारों की एंट्री को सरकारी संस्थानों में बैन किया गया हो। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद इसी तरह दिल्ली सचिवालय में पत्रकारों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा था। तब भी हंगामा मंचा था। कांग्रेस की सरकारों के दौरान भी इस तरह के क़दम उठाये गये थे। पर पत्रकारों के विरोध दर्ज कराने के बाद मामला सुलट जाता था।
मौजूदा मामला इसलिये ज़्यादा गंभीर लगता है क्योंकि सरकार को अपनी आलोचना बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं है। ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को।
यह भी सच है कि मीडिया विशेष कर टीवी में मोदी और शाह के ख़िलाफ़ एक लफ़्ज़ भी नहीं चलता। एकाध को छोड़ दें तो कोई चैनल आलोचना करने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता। अधिकतर टीवी चैनलों में सिर्फ़ विपक्ष में भूसा भरा जाता है और उनकी ही ऐसी-तैसी की जाती है।
आज़ादी के बाद का यह पहला वाक़या है, जब सत्ता पक्ष की जगह विपक्ष की जवाबदेही तय की जा रही है और सरकार खुलेआम मस्त घूम रही है। ऐसा लगता है कि 2014 के बाद देश की सभी दिक़्क़तों के लिये विपक्ष ज़िम्मेदार है, सरकार को ज़िम्मेदार ठहराना ईशनिंदा जैसा है। बीजेपी के वरिष्ठ नेता और कभी धाकड़ संपादक रहे अरुण शौरी देश में टीवी चैनलों को “उत्तर कोरिया का मीडिया” कहते हैं। तो कुछ लोगों ने इसे ‘‘गोदी मीडिया’’ का नाम दे दिया है।
हालत कुछ ज़्यादा ही संगीन हैं। सवाल सिर्फ़ वित्त मंत्रालय में बैन का नहीं है। सवाल उस मानसिकता का है जो संदेश दे रही है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में पत्रकारों को अगर पत्रकारिता करनी है तो फिर उसे सरकार के रहमो-करम पर रहना होगा। यह लोकतांत्रिक मूल्य नहीं है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। सरकार की ख़ामियों को उजागर कर जनता के सामने रखना उसका बुनियादी काम है ताकि प्रेस के ज़रिये जनता सरकार पर नियंत्रण रख सके और समय आने पर उसके बारे में सही फ़ैसला कर सके। इसलिये सूचना का रास्ता बाधित करने का मतलब है जनता की सोच पर रोक लगाना जो देश के भविष्य के लिये ठीक नहीं है।
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