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बीजेपी के उत्तराखंड कांड से मोदी-शाह की हनक फीकी पड़ी!

उत्तराखंड का ताज़ा राजनीतिक घटनाक्रम बीजेपी के 'पार्टी विद ए डिफ़रेंस’ यानी अन्य पार्टियों से अलग होने के दावे की ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'डबल इंजन वाली सरकार’ के नारे की बुरी तरह खिल्ली उड़ा रहा है। पार्टी नेतृत्व ने महज 115 दिन पुराने मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को हटा कर पुष्कर सिंह धामी को राज्य का नया मुख्यमंत्री बना तो दिया है लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का पार्टी के भीतर जिस तरह विरोध हुआ है, उससे लगता नहीं कि जिस मक़सद से यह नेतृत्व परिवर्तन किया गया वह मक़सद हासिल हो पाएगा।

हालाँकि पार्टी नेतृत्व सूबे के अपने सभी नाराज़ विधायकों और नेताओं को मनाने में थोड़ी-बहुत मशक्कत के बाद कामयाब रहा और नए मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण भी हो गया, मगर इस पूरे घटनाक्रम से यह तो जाहिर हो ही गया है कि पार्टी नेतृत्व इन दिनों बदहवासी के दौर से गुजर रहा है और उसकी हनक अपने कार्यकर्ताओं के बीच फीकी पड़ रही है। ग़ौरतलब है कि चार महीने पहले भी इसी तरह आनन-फानन में पार्टी नेतृत्व ने चार साल पुराने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया था।

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आम तौर पर छोटे राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता और उठापटक ज़्यादा देखी जाती है तो उसकी वजह यह होती है कि सीटों के लिहाज से छोटी विधानसभा होने से सत्तापक्ष और विपक्ष में संख्याबल में ज़्यादा अंतर नहीं होता। दो-तीन विधायकों के इधर-उधर हो जाने से भी सत्ता का संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे चलती हुई सरकार गिर जाती है और नई सरकार अस्तित्व में आ जाती है।

लेकिन उत्तराखंड में हालिया बदलावों के पीछे ऐसी कोई वजह नहीं रही। सूबे में 70 सदस्यों वाली विधानसभा में बीजेपी को पिछले चुनाव में 57 सीटें मिली थीं यानी तीन चौथाई से भी ज़्यादा का बहुमत हासिल हुआ था। जाहिर है कि इस तरह का प्रचंड बहुमत देने के बाद भी अगर राज्य के मतदाताओं को योग्य, सक्षम और कार्यकाल पूरा करने वाली सरकार नहीं मिलती है तो इसके लिए मतदाताओं को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। निश्चित रूप से इसके लिए सत्तारूढ़ दल, उसका शीर्ष नेतृत्व और प्रबंधन ज़िम्मेदार है। उत्तराखंड के हालिया संदर्भ में यह ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की है जिन्होंने मुख्यमंत्री के तौर पर पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत, फिर तीरथ सिंह रावत और अब पुष्कर सिंह धामी का चयन किया है।

चार महीने पहले नेतृत्च परिवर्तन इस आकलन के आधार पर किया गया था कि त्रिवेंद्र सिंह रावत को लेकर आम लोगों और पार्टी कार्यकर्ताओं में काफ़ी असंतोष है और इसलिए उनके चेहरे पर पार्टी अगला चुनाव नहीं लड़ सकती। 

अब पार्टी नेतृत्व की ओर से तीरथ सिंह रावत को हटा कर उनकी जगह पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर जो दलील दी जा रही है, वह भी बेहद अजीब-ओ-गरीब है।

कहा जा रहा है कि संवैधानिक संकट की वजह से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिह रावत को इस्तीफा देने को कहा गया।

यह हैरान करने वाली बात है कि जब मार्च में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर गढ़वाल सीट के लोकसभा सदस्य तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा था तब क्या किसी के दिमाग में यह बात नहीं आई थी कि उनको छह महीने के अंदर विधायक बनना होगा और अगर नहीं बने तो इस्तीफा देना पड़ सकता है? क्या उस समय बीजेपी के आला नेतृत्व में किसी को यह नियम नहीं मालूम था कि अगर किसी निर्वाचित सदन का कार्यकाल एक साल से कम बचा हुआ हो तो उसकी किसी सीट के लिए उपचुनाव नहीं कराया जा सकता है?

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भाजपा नेतृत्व इतना तो नादान नहीं है कि जो यह सब नहीं जानता था और इसलिए एक सांसद को मुख्यमंत्री बना दिया! दूसरी हैरानी इस बात को लेकर है कि बीजेपी के नेता संवैधानिक संकट का हवाला क्यों दे रहे हैं? सीधे-सीधे यह भी तो कहा जा सकता था कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर का संकट अभी टला नहीं है और इसलिए अभी उपचुनाव कराना ठीक नहीं होगा। इस आधार पर तीरथ सिंह रावत के इस्तीफ़े को जायज ठहराया जा सकता था। लेकिन कोरोना की बजाय संवैधानिक संकट का हवाला दिया जा रहा है। यह भी हैरानी की बात है कि भाजपा नेतृत्व इस संकट का हवाला देकर तीरथ सिंह रावत का इस्तीफा कराता, उससे पहले ही चुनाव आयोग के हवाले से यह ख़बर आती है कि उत्तर प्रदेश की सात और उत्तराखंड की दो खाली विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव नहीं होंगे।

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सवाल है कि क्या चुनाव आयोग ने अपने मन से यह बयान दे दिया था? पिछले कुछ वर्षों के दौरान कई राज्यों में और हाल ही में पश्चिम बंगाल सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का कार्यक्रम जिस ढंग से चुनाव आयोग ने बनाया और जिस ढंग से मतगणना कराई है, उसके बाद तो आयोग के बारे में यह धारणा बन गई है कि वह केंद्र सरकार के एक मंत्रालय के रूप से तब्दील हो गया है और सरकार की मर्जी के बगैर कुछ नहीं करता है। इसीलिए यह भी कहा जा रहा है कि बीजेपी आलाकमान को हर हाल में रावत को हटाना था, इसलिए ऐसे हालात पैदा किए गए। 

वरना अगर सरकार चाहती तो चुनाव आयोग अब भी उपचुनाव कराता, चाहे नियम कुछ भी होते। सवाल है कि बीजेपी नेतृत्व आख़िर तीरथ सिह रावत से क्यों छुटकारा पाना चाहता था?

इसका कारण यह है कि अगले साल फरवरी-मार्च में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और तीरथ सिंह रावत के 115 दिन के कार्यकाल के आधार पर बीजेपी नेतृत्व को अंदाज़ा हो गया था कि उनकी कमान में चुनाव जीतना संभव नहीं है। इसीलिए उनको हटाया गया है। उनके विवादित और अजब-गजब बयानों की वजह से कई समूह नाराज़ थे तो यह भी कहा जा रहा है कि साधु-संतों का समुदाय भी उनसे खुश नहीं था। उनकी स्थिति इतनी कमजोर थी कि वे मुख्यमंत्री रहते गंगोत्री की खाली सीट से उपचुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। वे अपने गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र की किसी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने के इच्छुक थे। इसके लिए किसी बड़े नेता से इस्तीफा कराना होता। कोई बड़ा नेता इसके लिए शायद ही तैयार होता, इसीलिए उनके लिए किसी से इस्तीफा कराने की बजाय पार्टी आलाकमान ने उनसे ही इस्तीफा कराने का फ़ैसला कर लिया।

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चार साल पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाते वक़्त भी विधायकों की राय को महत्व नहीं दिया गया था और चार महीने पहले तीरथ सिंह रावत भी शीर्ष नेतृत्व की पसंद के आधार पर ही मुख्यमंत्री बने थे। इस बार भी बीजेपी नेतृत्व ने विधायकों की राय के आधार पर नहीं बल्कि अपनी मर्जी के आधार पर पुष्कर सिंह धामी को कमान सौंपी है, जिसे पार्टी के कई विधायकों ने मन से स्वीकार नहीं किया है।

फ़िलहाल नाराज़ विधायकों की मान-मनौवल के बाद नई सरकार अस्तित्व में आ गई है, लेकिन देखने वाली बात होगी कि दिल्ली से थोपे गए नए मुख्यमंत्री के नेतृत्व में पार्टी कितनी एकजुट होकर चुनाव में उतरती है और फिर से जनादेश लेने में सफल होती है।

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अनिल जैन

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