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जड़ें बहुत गहरी हैं टीवी चैनलों में टीआरपी के फ़र्ज़ीवाड़े की!

देशभर में अनुमानतः जो बीस करोड़ टीवी सेट्स घरों में लगे हुए हैं और उनके ज़रिए जनता को जो कुछ भी चौबीसों घंटे दिखाया जा सकता है, वह एक ख़ास क़िस्म का व्यक्तिवादी प्रचार और किसी विचारधारा को दर्शकों के मस्तिष्क में बैठाने का उपक्रम भी हो सकता है। वह विज्ञापनों से होनेवाली आमदनी से कहीं बड़ा और किसी सुनियोजित राजनीतिक नेटवर्क का हिस्सा हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं।
श्रवण गर्ग

क्या चिंता केवल यहीं तक सीमित कर ली जाए कि कुछ टीवी चैनलों ने विज्ञापनों के ज़रिए धन कमाने के उद्देश्य से ही अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए उस बड़े फ़र्जीवाड़े को अंजाम दिया होगा जिसका कि हाल ही में मुंबई पुलिस ने भांडाफोड़ किया है? या फिर जब बात निकल ही गई है तो उसे दूर तक भी ले जाया जाना चाहिए? मामला काफ़ी बड़ा है और उसकी जड़ें भी काफ़ी गहरी हैं। यह केवल चैनलों द्वारा अपनी टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने तक सीमित नहीं है।

पूछा जा सकता है कि इस भयावह कोरोना काल में जब दुनियाभर में राष्ट्राध्यक्षों की लोकप्रियता में सेंध लगी पड़ी है, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे चतुर खिलाड़ी भी अपने से एक अपेक्षाकृत कमज़ोर प्रतिद्वंद्वी से ‘विश्वसनीय’ ओपीनियन पोल्स में बारह प्रतिशत से पीछे चल रहे हैं, हमारे यहाँ के जाने-माने मीडिया प्रतिष्ठान द्वारा करवाए जाने वाले सर्वेक्षण में प्रधानमंत्री मोदी को 66 और राहुल गांधी को केवल आठ प्रतिशत लोगों की पसंद बतलाए जाने का आधार आख़िर क्या है?

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मोदी का पलड़ा निश्चित ही भारी होना चाहिए, पर क्या उनके और राहुल के बीच लोकप्रियता का गड्ढा भी अर्णब के ‘रिपब्लिक’ और दूसरे चैनलों के बीच की टीआरपी के फ़र्क़ की तरह ही संदेहास्पद नहीं माना जाए? इस बात का पता कहाँ के पुलिस कमिश्नर लगाएँगे कि प्रभावशाली राजनीतिक सत्ताधारियों की लोकप्रियता को जाँचने के मीटर देश में किस तरह के लोगों के घरों में लगे हुए हैं?

जनता को भ्रम में डाला जा रहा है कि टीआरपी का फ़र्जीवाड़ा केवल विज्ञापनों के चालीस हज़ार करोड़ के बड़े बाज़ार में अपनी कमाई को बढ़ाने तक ही सीमित है। हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। दाँव पर और कुछ इससे भी बड़ा लगा हुआ है। इसका संबंध देश और राज्यों में सूचना तंत्र पर क़ब्ज़े के ज़रिए राजनीतिक आधिपत्य स्थापित करने से भी हो सकता है।

देशभर में अनुमानतः जो बीस करोड़ टीवी सेट्स घरों में लगे हुए हैं और उनके ज़रिए जनता को जो कुछ भी चौबीसों घंटे दिखाया जा सकता है, वह एक ख़ास क़िस्म का व्यक्तिवादी प्रचार और किसी विचारधारा को दर्शकों के मस्तिष्क में बैठाने का उपक्रम भी हो सकता है। वह विज्ञापनों से होनेवाली आमदनी से कहीं बड़ा और किसी सुनियोजित राजनीतिक नेटवर्क का हिस्सा हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं।

क्या कोई बता सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत मामले में मुंबई पुलिस को बदनाम करने के लिए हज़ारों (पचास हज़ार?) फ़ेक अकाउंट सोशल मीडिया पर रातों-रात कैसे उपस्थित हो गए और इतने महीनों तक सक्रिय भी कैसे रहे?

इतने बड़े फ़र्जीवाड़े के सामने आने के बाद सत्ता के गलियारों से अभी तक भी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया सामने क्यों नहीं आई? सोशल मीडिया पर इतनी बड़ी संख्या में फ़र्ज़ी अकाउंट क्या देश की किसी बड़ी राजनीतिक हस्ती या दल के ख़िलाफ़ इसी तरह से रातों-रात प्रकट और सक्रिय होकर ‘लाइव’ रह सकते हैं? निश्चित ही इतने बड़े काम को बिना किसी संगठित गिरोह की मदद के अंजाम नहीं दिया जा सकता। चुनावों के समय तो ये पचास हज़ार अकाउंट पचास लाख और पाँच करोड़ भी हो सकते हैं! हुए भी हों तो क्या पता! ‘रिपब्लिक’ या गिरफ़्त में आ गए कुछ और चैनल तो टीवी स्क्रीन के पीछे जो बड़ा खेल चलता है, उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। वह खेल और भी बड़ा है और उसके खिलाड़ी भी बड़े हैं। उसके ‘वार रूम्स’ भी अलग से हैं।

‘फ़र्ज़ी’ फ़ॉलोअर्स और ‘लाइक्स’ 

सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों पर नामी हस्तियों के लिए जिस तरह से ‘फ़र्ज़ी’ फ़ॉलोअर्स और ‘लाइक्स’ की ख़रीदी की जाती है, वे चैनलों के फ़र्जीवाड़े से कितनी अलग हैं? एक प्रसिद्ध गायक (रैपर) द्वारा यू-ट्यूब पर अपना रिकॉर्ड बनाने के लिए फ़ेक ‘लाइक्स’ और ‘फ़ॉलोइंग’ ख़रीदने के लिए बहत्तर लाख रुपए किसी कम्पनी को दिए जाने की हाल की कथित स्वीकारोक्ति, क्या हमें कहीं से भी नहीं चौंकाती? ऐसी तो देश में हज़ारों हस्तियाँ होंगी, जिनके सोशल मीडिया अकाउंट बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ ही संचालित करती हैं और इसी तरह से उनके लिए ‘नक़ली फ़ालोअर्स’ की फ़ौज भी तैयार की जाती है।

सवाल यह भी है कि एक ख़ास क़िस्म की विचारधारा, दल विशेष या व्यक्तियों को लेकर सच्ची-झूठी ‘ख़बरों’ की शक्ल में अख़बारों तथा पत्र-पत्रिकाओं में ‘प्लांट’ की जाने की सूचनाएँ और उपलब्धियाँ दो-तीन या ज़्यादा चैनलों द्वारा टीआरपी बढ़ाने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों से कितनी भिन्न हैं?

सरकारें अपने विकास कार्यों की संदेहास्पद उपलब्धियों के बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती हैं और मीडिया संस्थानों में उन्हें लपकने के लिए होड़ मची रहती है। राज्यों में मीडिया (पर नियंत्रण) के लिए विज्ञापनों का बड़ा बजट होता है, जिस पर पूरी निगरानी ‘ऊपर’ से की जाती है। लिखे, छपे, बोले और दिखाए जाने वाले प्रत्येक शब्द और दृश्य की कड़ी मॉनिटरिंग होती है और उसी से विज्ञापनों की शक्ल में बाँटी जाने वाली राशि तय होती है।

बताया जाता है कि ‘सुशासन बाबू’ के बिहार में सूचना और जन-सम्पर्क विभाग का जो बजट वर्ष 2014-15 में लगभग 84 करोड़ था, वह पाँच सालों (2018-19) में बढ़कर 133 करोड़ रुपए से ऊपर हो गया। चालू चुनावी साल का बजट कितना है अभी पता चलना बाक़ी है। अनुमानित तौर पर इतनी बड़ी राशि का साठ से सत्तर प्रतिशत प्रचार-प्रसार माध्यमों को दिए जाने वाले सरकारी विज्ञापनों पर ख़र्च होता है। हाल में सरकार की ‘उपलब्धियों’ का नया वीडियो भी जारी हुआ है और वह ख़ूब प्रचार पा रहा है।

वीडियो में देखिए, रिपब्लिक चैनल का नाम क्यों आया?
कोई भी चैनल या प्रचार माध्यम, जिनमें अख़बार भी शामिल है, कभी यह नहीं बताता या स्वीकार करता कि पिछले साल भर, महीने या सप्ताह के दौरान कितनी अपुष्ट और प्रायोजित ख़बरें प्रसारित-प्रकाशित की गईं, कितने लोगों और समुदायों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाई गई, साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने में क्या भूमिका निभाई गई! तब्लीग़ी जमात को लेकर जो दुष्प्रचार किया गया, वह तो अदालत के द्वारा बेनक़ाब हो भी चुका है। दिल्ली के दंगों में मीडिया की भूमिका का भी आगे-पीछे खुलासा हो जाएगा। एक चैनल पर बहस के बाद एक राजनीतिक दल से जुड़े प्रवक्ता की मौत ने क्या एंकरों की भाषा, ज़ुबान और आत्माएँ बदल दी हैं या फिर सब कुछ पहले जैसा ही चल रहा है? कोरोना सहित बड़े-बड़े मुद्दों को दबाकर महीनों तक केवल एक अभिनेत्री और उसके परिवार को निशाने पर लेने का उद्देश्य क्या हक़ीक़त में भी सिर्फ़ अपनी टीआरपी बढ़ाना था या फिर उसके कोई राजनीतिक निहितार्थ भी थे? ‘रिपब्लिक‘ चैनल या अर्नब जैसे ‘पत्रकार/एंकर’ कभी भी अकेले नहीं पड़ने वाले हैं! न ही मुंबई पुलिस द्वारा पर्दाफ़ाश किए गए किसी भी फ़र्ज़ीवाड़े में किसी को भी कभी कोई सजा होने वाली है। मारने वालों से बचाने वाले के हाथ काफ़ी लम्बे और बड़े हैं।
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