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मिशन चम्बल घाटी -1: फ़िल्म पानसिंह तोमर पर चलेगा मुक़दमा

आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद चम्बल नदी और उसके बीहड़ चम्बल सेंड, क्षेत्र के पिछड़ेपन और कंधे पर बंदूक़ लटकाये 'बाग़ियों' या डाकुओं के लिए याद किये गए हैं। सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, वायदे उसने चाहे जितने रंगीन और लुभावने किये हों, चम्बल घाटी का न तो पिछड़ापन दूर हुआ है, न यहाँ विकास की कोई धारा बही है और न कभी डाकू समस्या से इसे निजात मिली है। अनिल शुक्ल ने चम्बल के इन बीहड़ों का व्यापक अध्ययन किया है और इस इलाक़े से जुड़े रहे वरिष्ठ प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों से लेकर राजनीतिज्ञों और पूर्व डाकुओं से लम्बी बातचीत की है। चम्बल के इस समूचे परिदृश्य को हम सिलसिलेवार शृंखला में आपके समक्ष पेश कर रहे हैं।
अनिल शुक्ल

‘यह उस नायक को पुनर्जीवित करने की कोशिश है जिसे भुला दिया गया था।’ मशहूर अभिनेता इरफ़ान ख़ान ने यह वक्तव्य 10 साल पहले 'टाइम' पत्रिका द्वारा लिए गए एक इंटरव्यू में अपनी फ़िल्म ‘पानसिंह तोमर’ के संदर्भ में दिया था। 8 साल बाद फ़िल्म 'पानसिंह तोमर' एक बार फिर नए सिरे से ‘पुनर्जीवित’ होने वाली है। इस बार चर्चा के केंद्र में है पानसिंह का भतीजा। कभी गैंग में नंबर 2 की हैसियत पर रहा भतीजा बलवंत सिंह तोमर फ़िल्म के निर्माता रोनी स्क्रूवाला (यूटीवी) और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया के ख़िलाफ़ अविश्वास और धोखाधड़ी का मुक़दमा लेकर सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने वाला है। उसका कहना है कि उसने ही बहुत सारी बैठकों में फ़िल्म के लेखक संजय चौहान और निर्देशक को अपने चाचा पानसिंह तोमर की संपूर्ण जीवनी से अवगत कराया था। उसकी यही 'ब्रीफिंग' फ़िल्म की पटकथा का आधार बनी थी। फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक ने इस एवज़ में उसे 40 लाख रुपये देने का वायदा किया था, जिससे बाद में वे मुकर गए।

1 अक्टूबर 1981 में पानसिंह तोमर गिरोह के साथ हुई अंतिम पुलिस मुठभेड़ के बीच जिसमें पानसिंह सहित 14 लोग हताहत हुए थे, बलवंत तोमर भोर के झुटपुटे का लाभ उठाकर पुलिस के 2 सिपाहियों को घायल करता हुआ मौक़े से फ़रार हो गया था। 

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मुठभेड़ स्थल के गाँव ‘रथियाँ का पुरा’ (ज़िला भिंड) से भाग कर वह मुरैना ज़िले में पहुँचकर चम्बल के बीहड़ों में छिप गया था। आगे चलकर 8 दिन बाद उसने अपना एक स्वतन्त्र गिरोह बनाकर अपहरण और डकैती की वारदातों को अंजाम देना शुरू कर दिया। अक्टूबर 82 में वह मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के समक्ष आत्मसमर्पण करने वाला था। हज़ारों लोगों की भीड़ के बीच निर्धारित समय और स्थल पर मुख्यमंत्री पहुँच गए थे लेकिन बलवंत अपने गैंग मेम्बरों के साथ वहाँ नहीं पहुँचा। 38 वर्ष बाद इस संवाददाता से हुई बातचीत में उसने स्वीकार किया कि उसे उसके कुछ सूत्रों ने ख़बर दी थी कि समर्पण के बाद पुलिस उसका एनकाउंटर कर देगी। बाद में उसे अपनी ग़लती का अहसास हुआ और तब 30 नवम्बर 82 को अपने गैंग के 5 अन्य सदस्यों के साथ उसने मुरैना में आत्मसमर्पण किया।

70 वर्षीय बलवंत सिंह तोमर इन दिनों ग्वालियर स्थित अपने घर में अस्वस्थ दशा में हैं। कुछ समय पूर्व हुई एक सड़क दुर्घटना के बाद उसका ऑपरेशन हुआ था जिसके चलते वह अपाहिज हो गया है। बलवंत का कहना है कि तब सरकार ने उससे वायदा किया था कि वह 1972 में जयप्रकाश नारायण के समक्ष आत्मसमर्पण के समय की गयी सभी शर्तों का यहाँ भी पालन करेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 11 वर्ष तक वे लोग ग्वालियर स्थित विशेष जेल में रहे। थक हार कर उन लोगों ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर बेंच में अपील की और तब 10 हज़ार के मुचलकों पर रिहा हुए थे।

फ़िल्म 'पानसिंह तोमर' के बारे में बात करते हुए बलवंत ख़ासा उत्तेजित हो जाते हैं। वह कहते हैं कि सबसे पहले उनसे फ़िल्म के लेखक संजय चौहान मिले।

पास के गाँव गुढ़ा (थाना बेघरा) में जिस परिवार में उनकी रिश्तेदारी थी, वे पानसिंह तोमर परिवार के भी रिश्तेदार थे। उन्हीं के माध्यम से वह मिले। ‘मैंने चाचा, पिताजी और पूरे खानदान के बारे में बिन्ने बतायो। हमारी मिटिन कई बेर भई।’ बलवंत का कहना है कि अगले राउंड की मीटिंग निर्देशक तिग्मांशु धूलिया, अभिनेता इरफ़ान और फ़िल्म के प्रोड्यूसर रोनी स्क्रूवाला भी थे। ‘जा दफा भी बिन सबने मेए इंटरब्यू लये। सबसे जादा धूलिया और इरफ़ान ने बात की। बे सिगरे माहे गाँव भिड़ौसा भी गए।’

बलवंत ने सुनाई थी फ़िल्मकारों को पूरी कहानी

गाँव भिड़ौसा के अपने पट्टीदारों से हुआ खेत की ज़मीन का विवाद, अम्मा (दादी) के साथ की गयी मारपीट, डीएम की मौजूदगी में गाँव वालों के साथ की गई पंचायत, अंततः उनके चाचा पानसिंह तोमर द्वारा हथियार उठाना, पारिवारिक विरोधी बब्बू तोमर को गोली मार देने से लेकर गिरोह का बनना, तैयारियाँ, हथियारों का इंतज़ाम, गैंग की तमाम कार्रवाइयों से लेकर ‘राठियाँ का पुरां’ गाँव की आख़िरी मुठभेड़ (जिसमें पानसिंह तोमर अपने 14 साथियों सहित हताहत हुआ था) और दूसरी बहुत सारी घटनाएँ, बलवंत का कहना है कि ये सारी बातें, उनकी आँखों के सामने जैसे हुई थीं उन्होंने वैसी की वैसी फ़िल्म वालों को बता दी थी। उनके बयान में कितने प्रतिशत सत्यता है, यह वही जाने लेकिन फ़िल्म में ये सभी दृश्य बहुत मज़बूती के साथ उभरे हैं और पानसिंह तोमर की ज़िंदगी की त्रासदी को पहली बार दुनिया के सामने बड़े पैमाने पर उजागर करते हैं।

उनका कहना है कि ‘सुरू में ही मैंने बिन्ते कह दई के 40 लाख का अग्रीमेंट करो तबई मैं पूरी हक़ीक़त बयान करूँगो। बे बोले, एग्रीमेंट की छोड़ो। हम तो फिलिम बारे हैं, जबान ते ना फिरते। मैंने बिनकी बात को भरोसा धर लओ। सांची बात जे है कि मैं भी जे चाहतो कि हमाये चाचा पे भये जुलम की दास्तान पूरी दुनिया जाने।’

बलवंत तोमर बताते हैं कि शूटिंग के समय उन्हें यह जानकारी मिली थी कि डाकू रामसहाय गैंग और बाद में कुछ दूसरे गैंग इरफ़ान और तिग्मांशु की 'पकड़' (अपहरण) करना चाहते हैं। उन्होंने इन गिरोहों तक अपना संदेश भिजवाया कि ये फ़िल्म पानसिंह तोमर की जीवनी पर बन रही है लिहाज़ा इसमें किसी प्रकार का व्यवधान पैदा करने की कोशिश न की जाये।

बलवंत का कहना है कि इस दौरान वह अपने लाइसेंसी हथियारबंद लोगों के साथ शूटिंग स्थल पर सुबह 10 बजे से रात 10 बजे तक मौजूद रहते थे। बड़े खिन्न भरे स्वर में वह कहते हैं कि यदि वे लोग किसी सिक्योरिटी एजेंसी को रखते तो उसकी फ़ीस ही इससे ज़्यादा हो जाती, जितने की उन्होंने कुल माँग की थी।

'लंदन फ़िल्म फ़ेस्टिवल' (सन 2010) में फ़िल्म के प्रीमियर के बाद, जबकि भारत सहित पूरी दुनिया में फ़िल्म की चर्चा चल निकली थी,  वह मुंबई गए। उन्होंने तय रक़म माँगी। उन लोगों ने सफ़ाई देते हुए कहा कि बहुत कोशिश के बावजूद भारत में कोई डिस्ट्रिब्यूटर फ़िल्म उठाने को तैयार नहीं। ‘मैंने कई के फिलम को चलनो ना चलनो तुम जानों, मो ते जो बायदो कियो है बाको भुगतान करो। मोये 2 लाख रुपैया देने लागे। मैंने नाय कह दयी।’ अभिनेता इरफ़ान की प्रशंसा करते हुए बलवंत कहते हैं कि जब वह मुंबई में थे और धूलिया और स्क्रूवाला के साथ उनका विवाद चल रहा था तब वह इरफ़ान से भी मिले थे। ‘इरफान ने फ़ोन करके इनन्ने भौत फटकारो और जे कई के तुम इसके पइसा चौं नाय देवते।’

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कोर्ट में शिकायत

वह ग्वालियर लौट आये और यहाँ आकर उन्होंने उनके ख़िलाफ़ ग्वालियर के थाना माधोगंज में निर्माता, निर्देशक और लेखक के विरुद्ध धोखाधड़ी और फ़र्जीवाड़ा को लेकर शिकायत दर्ज करवाई। थाने ने शूटिंग स्थल को थाने के कार्यक्षेत्र से बाहर का मानते हुए शिकायत पर फ़ाइनल रिपोर्ट लगा दी। तब सन 2012 में उन्होंने मध्य प्रदेश उच्च न्यायलय की ग्वालियर बेंच में मुक़दमा दायर किया। बलवंत बताते हैं कि कई बार के समन के बावजूद जब वे लोग कोर्ट में हाज़िर न हुए तब माननीय न्यायाधीश ने पुलिस आयुक्त मुंबई को इस बाबत फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक और लेखक - रोनी स्क्रूवाला, तिग्मांशु धूलिया और संजय चौहान को पेश किये जाने का आदेश दिया। तब ये लोग पेश हुए और कोर्ट ने इन्हें न्यायालय की अवमानना के आरोप में दिन भर की सज़ा भी सुनाई। बहरहाल, बाद में न्यायालय ने मुक़दमा ख़ारिज कर दिया।

बलवंत का कहना है कि अपने स्वास्थ्य की गड़बड़ी के चलते वह केस की ठीक से पैरवी नहीं कर पाए। अब वह नए सिरे से सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने वाले हैं।

फ़िल्म के निर्देशक तिग्मांशु धूलिया बलवंत के इन सभी आरोपों से इंकार करते हैं। इस संवाददाता से बातचीत में उनका कहना था कि ‘यह सही है कि फ़िल्म की रिसर्च को लेकर मैं और हमारी टीम बहुत से लोगों से मिली थी लेकिन हमने लेन-देन का कोई कमिटमेंट किसी से नहीं किया।’ फ़िल्म शूटिंग की सुरक्षा संबंधी बलवंत के दावे के बारे में पूछे जाने पर वह कहते हैं ‘उसका यह कहना बेमतलब है। वह एकाध बार शूटिंग देखने ज़रूर आया था, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। ‘उधर यूटीवी सूत्र बताते हैं कि कंपनी की डील पानसिंह तोमर के बेटे शिव कुमार के साथ हुई थी। शूटिंग के दौरान उसे 2 किश्तों में  6-6 लाख रुपये की राशि का भुगतान किया गया था।

मध्य प्रदेश के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी विजय रमन (जो पानसिंह तोमर गैंग के साथ हुई अंतिम मुठभेड़ में ज़िला भिंड के एसपी थे और जिनकी अगुवाई में समूचा एनकाउंटर ऑपरेशन चला था) इस संवाददाता के समक्ष स्वीकार करते हैं ‘उसकी मौत पर मुझे ज़रूर दुःख हुआ था लेकिन उसे अपने किये पर कोई दुःख नहीं हुआ होगा। वह एक डाकू और हत्यारा था और उसे सिर्फ़ इसी रूप में याद रखा जाएगा।’

भारतीय सेना के सूबेदार 'पानसिंह तोमर' देश के महान खिलाड़ी थे। वह 7 बार 'स्टेपल चेज़' के राष्ट्रीय चैम्पियन रहे थे और 1958 के टोक्यो एशियन गेम्स में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। कैसा दुर्भाग्य है कि देश में उन्हें पहचान, चम्बल के एक खूँखार डकैत, लुटेरे और हत्यारे के रूप में मिली। उनके परिचय में इस बात का कहीं ज़िक्र नहीं आता कि वह एक ऐसा फ़ौजी था जिसके भीतर रिटायरमेंट के बाद खेल कोच के रूप में देश को अपनी सेवाएँ देने का जज़्बा भरा पड़ा था लेकिन सामंती भारतीय ग्रामीण संरचना में दबंगों का वर्चस्व और उनकी दमनात्मक प्रवित्तियों तथा स्थानीय प्रशासन से उन्हें न मिलने वाले सहयोग ने पानसिंह को हथियार लेकर चम्बल में उतरने को बाध्य कर दिया और यही उनका ‘बायोडाटा’ बन गया।

फ़िल्म इरफ़ान की महान अभिनय प्रस्तुति, मज़बूत पटकथा और शानदार निर्देशन के लिए तो याद की ही जाती है उसका वास्तविक योगदान देश के समक्ष पानसिंह तोमर के असली बायोडाटा को पेश करने में है। ऐसे में फ़िल्म यदि किसी क़ानूनी विवाद में उलझती है तो इस बात से जिसकी आत्मा सबसे ज़्यादा आहत होगी, वह स्वयं पानसिंह तोमर हैं।

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