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मोदी के संबोधन में भावी भारत के बदलाव की मौलिक ‘अर्थ दृष्टि’

12 मई की रात आठ बजे प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन में इतिहास की कोख से निकले अनेक अनुत्तरित सवालों के जवाब मिलने की आस दिखाई देती है। तीसरे चरण के लॉकडाउन की घोषणा के समय ही ऐसे संकेत मिलने लगे थे कि सरकार अब वैश्विक महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई को सभी मोर्चों पर लड़ने का विचार कर रही है। प्रधानमंत्री के हाल के संबोधन को इस रूप में देखा जाना चाहिए कि भारत ने इस लड़ाई को ‘कोविड के साथ भी और कोविड के बाद भी’, की नीति पर लड़ने का मन बना लिया है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने लगभग 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की। निस्संदेह यह एक बड़ी आर्थिक घोषणा है। इतने बड़े पैकेज की आस शायद किसी को नहीं थी। इस पैकेज से भारत के सामाजिक-आर्थिक मॉडल में किस तरह के बदलाव भविष्य में दिखेंगे, इसको समझने के लिए कुछ बुनियादी बातों पर ग़ौर करना ज़रूरी है।

प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन से मुख्यतया दो पक्ष उभरते हैं- वैचारिक निष्ठा तथा व्यावहारिक दृष्टिकोण। ‘आत्मनिर्भर भारत’ की बात करना उस राजनीतिक दल की मूल वैचारिक सोच का हिस्सा है, जिस दल से प्रधानमंत्री मोदी आते हैं। वहीं ‘आत्मनिर्भरता’ के लक्ष्यों को अतीतजीवी जड़ता की बजाय युगानुकूल चेतना के साथ समझना उनकी व्यावहारिक दृष्टि को दिखाता है।

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गाँधी ने ग्राम स्वराज की कल्पना में विकेन्द्रित अर्थप्रणाली की ज़रूरत पर बल दिया था। दीन दयाल उपाध्याय ने ‘आत्मनिर्भरता’ को भारत के विकास की ज़रूरत बताया था। उनकी बातों की दशकों तक अनदेखी हुई है। कोरोना संकट से उभरी कठिनाइयों ने देश को इतिहास की ग़लतियों से सबक़ लेने के संकेत भी दिए हैं। समाज केंद्रित ‘आत्मनिर्भरता’ के लिए एक ऐसे आर्थिक मॉडल की ज़रूरत महसूस हुई है जो भारत का अपना हो तथा भारत की सामाजिक व भौगोलिक बुनावटों के अनुकूल हो। कोई संदेह नहीं है कि कोरोना वायरस के संकट ने समाजवादी मॉडल तथा ‘याराना-पूंजीवाद’ की वजह से पनपी खामियों को उजागर किया है।

ख़ैर, कोरोना के संकट से उपजी परिस्थितियों में अब जब मज़दूर गाँवों की तरफ़ कूच कर गये या कर रहे हैं तो वे जल्दी बड़े शहरों की तरफ़ वापस आयेंगे, इसकी संभावना कम है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारत’ के निर्माण तथा 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज से ‘आत्मनिर्भरता’ की तरफ़ आगे बढ़ने की घोषणा, इन संकटों से देश को उबारने का कारगर समाधान साबित हो सकती है। ऐसा कहने के पीछे कारण यह है कि इस आर्थिक पैकेज में लैंड, लेबर, लिक्विडिटी तथा लॉ को केंद्र में रखा गया है।

मोदी के संबोधन के बाद पहली पत्रकार वार्ता में वित्तमंत्री द्वारा सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को लेकर बड़े एलान किये गये हैं। एमएसएमई के लिए 3 लाख 70 हज़ार करोड़ की घोषणा सरकार की इस क्षेत्र को लेकर प्राथमिकता को दिखाती है।

आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को नई संजीवनी देना कारगर नीति साबित हो सकती है। आत्मनिर्भरता के लिए इस उद्योग क्षेत्र का सशक्त रहना ज़रूरी है। 

मोदी के संबोधन को इस लिहाज़ से भी समझने की ज़रूरत है कि आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए ग्रामीण भारत को स्वयं की बुनियादी ज़रूरतों का उत्पादन करने का आत्मबल हासिल करने लायक बनाना होगा। शिक्षा के अवसर प्रतिस्पर्धी, कौशल युक्त तथा सबके लिए समान करने होंगे। छोटे स्तर की आर्थिक शुरुआत को ‘दरोगाओं’ के नियंत्रणयुक्त निगरानी से मुक्ति दिलानी होगी। असंगठित क्षेत्र को भयमुक्त एवं न्यायपूर्ण वातावरण प्रदान करना होगा। पूरे देश में श्रम क़ानूनों की जटिलताओं को उदार बनाया जाए, जिससे क़ारोबार में सुगमता के मानक सिर्फ़ बड़े उद्योगों के लिहाज़ से न हों, बल्कि छोटे-छोटे ग्रामीण कुटीर उद्योगों के लिए भी खुले अवसर मिल सकें। उन्हें उनका बाज़ार निर्मित करने की स्वतंत्रता हासिल हो।

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‘लोकल पर वोकल’

प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में ‘लोकल पर वोकल’ होने की बात कही। इसका क़तई यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि हम बाज़ार को दुनिया के लिए बंद करने जा रहे हैं। बाज़ार के वर्तमान परिवेश में चाह कर भी कोई देश वैश्वीकरण के इस दौर में ख़ुद को अलग-थलग नहीं रख सकता है। कहा गया है- यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे, अर्थात जो ब्रह्मांड में है, वही पिंड में है। व्यक्ति की ज़रूरत विश्व की ज़रूरत से अलग नहीं है। ऐसे में आत्मनिर्भर बनने का अर्थ यही है कि हम उन संसाधनों के लिए पराश्रित न रहें, जिनको हासिल करने की क्षमता भारत में है। ‘लोकल पर वोकल’ के निहितार्थ इसी तरफ़ इशारा करते हैं। जब मोदी कहते हैं कि हमें ‘लोकल पर वोकल’ होना है, लोकल उत्पादन को बढ़ाना है, लोकल उत्पादों को खरीदना है तथा लोकल उत्पादों का गर्व से प्रचार-प्रसार करना है, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि हम अपने आर्थिक मॉडल को देश की सीमाओं में ‘संकीर्ण’ करने जा रहे हैं। ‘लोकल पर वोकल’ का नारा तब अधिक सफल होगा जब विश्व बाज़ार में हम भारत के उत्पादों को पहुँचा पायेंगे।

विचार से ख़ास

मोदी के संबोधन में ‘आपदा को अवसर’ में बदलने की बात की गयी। कुछ लोग इसमें भी आलोचना का अवसर तलाश रहे हैं। किंतु यह एक ज़रूरी बात है जिसे देश महसूस कर रहा है। कठिन परिस्थितियों में बेहतर करने का अवसर खोजना मज़बूत नेतृत्व की पहचान है। अगर मोदी ने ऐसा प्रयास किया है तो इसकी निराधार आलोचना का कोई कारण नहीं है। आज दुनिया के बाज़ार में अस्थिरता का एक वातावरण है। कोरोना की वजह से चीन से कंपनियों के मोहभंग होने की संभावना जताई जा रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2018 से 19 के बीच 56 कंपनियाँ चीन से निकलकर दूसरे देशों में जा चुकी हैं। ऐसी स्थिति में भारत यदि ‘ईज ऑफ़ डूइंग’ बिज़नेस को बढ़ावा देकर इस अवसर को भुनाने का प्रयास करता है तो इसमें उसे सफलता मिलने की पर्याप्त संभावना और कारण नज़र आते हैं।

​अपनी आर्थिक शक्ति, आधारभूत संरचना, वर्तमान के अनुकूल तकनीक युक्त प्रणाली, जनसांख्यिकी क्षमता की संभावनाएँ तथा माँग और आपूर्ति की ताक़त से एकदिन भारत दुनिया के बाज़ार को प्रभावित करने की स्थिति में खड़ा हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने भविष्य के भारत की आर्थिक दृष्टि को एक नई दिशा दी है, जिसपर व्यापक बहस होनी है।

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शिवानंद द्विवेदी

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