क्या यूपी पुलिस का दूसरा नाम देवकीनंदन खत्री है? क्या वह 'चंद्रकांता' रुपी अपने एफ़िडेविट को देश की सर्वोच्च अदालत के सामने इस विश्वास से रख सकती है कि ‘अदालत’ अपने आँख और कान पर पट्टी बांधकर तिलिस्म, रहस्य और रोमांच से भरी एनकाउंटर की उस ‘गाथा’ को सहज स्वीकार कर लेगी जिस पर देश का अदना सा आदमी भी रत्ती भर यक़ीन करने को तैयार नहीं हो सकता।
गैंगस्टर विकास दुबे 'एनकाउंटर' मामले में उत्तर प्रदेश के डीजीपी एचसी अवस्थी द्वारा 'सर्वोच्च न्यायालय' के समक्ष 16 जुलाई 2020 को दायर 58 पेज का यह एफ़िडेविट एक मुम्बइया फ़िल्मी कथा की भाँति हमारे सामने से गुज़रता है। फ़िल्म किस ग्रेड की निकली, इसका फ़ैसला सुधि दर्शकों के विवेक पर छोड़ते हैं, वे इसका आकलन कथा की समाप्ति पर कर सकते हैं। आइये अवस्थी साहब के 'एफ़िडेविट' के क्रमानुसार समूची कथा को बाँचा जाये-
मकान का ध्वंस
अपराधी विकास दुबे के साथ गंभीर मोर्चाबंदी कानपुर के गाँव बिकरू स्थित 'आलीशान' मकान को मुठभेड़ में हुई 8 पुलिसकर्मियों की जघन्य हत्या के अगले रोज़ से शुरू होती है। लम्बी-चौड़ी भूमि पर बने उक्त भव्य मकान को ज़मींदोज़ कर दिया गया। एफ़िडेविट के अनुसार पुलिस को ऐसी सूचना मिली थी कि उक्त मकान की दीवारों में सुराख़ करके उनमें हथियार और गोला बारूद छिपाया गया था। पुलिस ने ‘पोली दीवारों की खुदाई शुरू की और इस प्रक्रिया में बिल्डिंग का कुछ भाग भरभरा कर गिर पड़ा।’ पुलिस को वहाँ से एक एके-47 रायफल और बम, विस्फोटक आदि मिले। मज़ेदार तथ्य यह है कि जिस समय मकान को विकास गुप्ता के जेसीबी की मदद से धाराशाई किया जा रहा था, घटनास्थल पर सैकड़ों की तादाद में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संवाददाता मौजूद थे। कोई पत्रकार ऐसा नहीं जिसकी आँखों के सामने हथियार निकले हों। स्वयं प्रदेश सरकार के जनसम्पर्क विभाग और पुलिस के पीआर वाले इस दिन किसी हथियार की स्टिल या वीडियो तसवीर जारी नहीं कर सके थे।
अब अगर आप दर्शक गण हमसे कुछ अतिरिक्त पूछताछ करना चाहेंगे तो हम कुछ नहीं बता पाएँगे क्योंकि पुलिस एफ़िडेविट की कहानी में कई झोल हैं। उसे यह भी नहीं मालूम कि हथियार धातु निर्मित होते हैं और ये धातु यदि ठीक तरह से और ठीक स्थान पर न रखी जाये तो जल्दी ही नष्ट होने लगती हैं। हथियारों को छिपाने के लिए विशेष क़िस्म के तहखानों और अलमारियों की दरकार होती है ताकि सीमेंट और चूना उसमें सीलन लगाकर उन्हें ज़ंग से बर्बाद न कर दें। क्या यह माना जाये कि विकास जैसा शातिराना दिमाग़ वाला अपराधी अपने हथियारों को रखकर उन्हें नष्ट कर डालना चाहता था?
पुलिस की एफ़िडेविट थ्योरी बताती है कि खुदाई के दौरान मकान के कुछ हिस्से धराशाई हो गए। हक़ीक़त यह है कि समूचे मकान को ही धराशाई कर दिया गया था। यदि 'थोड़ा हिस्सा धराशाई होना’ आप पाठक यूपी पुलिस की इस 'चंद्रकांता' को पढ़ते समय यह तो नहीं पूछने लग जाएँगे कि 'क्या विकास जैसा शातिर अपराधी हथियार छिपाते समय इस बात से वाक़िफ़ नहीं था कि हथियार निकालने में पूरा मकान ढह सकता है?’
यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह मकान वाली स्टोरी को ‘अविश्वसनीय’ मानते हैं। 'सत्य हिंदी' से बातचीत में वह पूछते हैं कि ‘क्या यह पुलिस की पुरानी सामंती अप्रोच का परिचायक है, जैसा कि ब्रिटिश काल में होता था जब अपराधी के प्रति एक प्रतिशोधात्मक रवैया रखने का चलन था?’
पूर्व डीजीपी सिंह कहते हैं कि आज टेक्नोलॉजी इतनी विकसित है कि मेटल डिटेक्टर आदि की मदद से बाथरूम या बेडरूम, जहाँ भी हथियार रखे हैं उतने हिस्से की खुदाई कर सकते थे, पूरे घर की खुदाई करने की क्या ज़रूरत आन पड़ी?
जो सवाल रिटायर्ड डीजीपी साहब पूछते हैं यह सवाल हमारी फ़िल्म के दर्शक भी खड़ा कर सकते हैं। नहीं पूछ सकते तो ग़रीब मी लार्ड!
विकास का 'अपराधी स्टेटस’
'एफ़िडेविट' बताता है कि ‘विकास दुबे जघन्य अपराधी था। उसके विरुद्ध 64 मुक़दमे लंबित थे, वह आजीवन कारावास की सजा भोग रहा था और कि वह पैरोल पर था।’ इस बात का जवाब देने के लिए कि ऐसा जघन्य अपराधी 25 मोस्ट वांटेड अपराधियों की सूची में क्यों नहीं शामिल था, 'एफ़िडेविट' कहता है ‘वह कानपुर नगर की वांटेड अपराधियों की सूची में शामिल था और उस पर 5 लाख का इनाम घोषित था। वह हिस्ट्रीशीटर था और वह लगातार पुलिस सर्विलांस के अंतर्गत था।’ 'एफ़िडेविट' की अपराधी के स्टेटस की इस कहानी में लेकिन स्क्रिप्ट राइटर यह लिखना भूल गया कि उसे पैरोल कब मिला? किसने दिया? सरकार ने दिया या कोर्ट ने? और यह पैरोल कब तक के लिए था?
विगत सोमवार को सुनवाई में सर्वोच्च अदालत ने टिप्पणी करते हुए कहा, ‘ऐसे जघन्य अपराधी का ज़मानत पर बाहर होना संस्था के फ़ेल होने को दर्शाता है।’ बहरहाल, डीजीपी साहब शपथ-पत्र में शपथ लेने के बावजूद यह क्यों नहीं बता पाते हैं कि ‘पैरोल पर होने’ और ‘लगातार सर्विलांस पर रहने’ के बावजूद वह ‘मोस्ट वांटेड’ की सूची में कैसे आ गया और कैसे ‘5 लाख का इनामी’ बन गया? फ़िल्म समीक्षक इस हौच-पौच स्टोरी पर तो सवाल खड़ा करेंगे ही, आप फ़िल्म के सुधी दर्शक भी स्क्रिप्ट राइटर को उंगली करने से बाज़ नहीं आएँगे कि भाईजान अगर वह 24 घंटे पुलिस के सर्विलांस में था तो उस पर इनाम क्यों रख दिया?
आप यह भी जानना चाहेंगे कि यदि वह 5 लाख का खूंखार अपराधी था तो भइये पुलिस ने क्या खा के उसे पैरोल दे रखा था? जब आप दर्शक इतने सयाने हो सकते हैं तो डीजीपी साहब और उनकी सरकार-ऐ-मदीना सुप्रीम कोर्ट को इतना भोला कैसे मान कर चल रहे हैं कि वे रहस्य-रोमांच की अपनी ऐसी कपोलकल्पित स्टोरी उन्हें सुनाएँगे और वह ‘गज्जब भाई!’ कहकर दांतों तले उँगली दबा लेंगे?
शूटआउट एट कानपुर खंडाला
'एफ़िडेविट' बताता है कि "10 जुलाई को सुबह क़रीब 6.35 बजे गाड़ियों का काफिला सचेन्डी पहुँचा... बारजीर टोल प्लाज़ा से ही तेज़ बारिश शुरू हो गयी थी। चढ़ाई से नीचे उतरने के बाद ज्यों ही 'भारत सीएनजी पेट्रोल पम्प' क्रॉस हुआ, कन्हैया लाल हॉस्पिटल के ठीक सामने जानवरों का रेवड़ दाहिनी तरफ़ से सामने आ गया। गाड़ी की रफ़्तार काफी तेज़ थी। ड्राइवर ने बायीं तरफ़ मोड़ने की कोशिश की और तभी डिवाइडर से टकराकर गाड़ी पलट गयी। गाड़ी में सवार चारों पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल होकर बेहोश हो गए। अभियुक्त विकास ने इन्स्पेक्टर रमाकांत पिचौरी की पिस्तौल छीनी और पुलिस एसयूवी के पिछले दरवाज़े से भाग निकला। पीछे से आते एसटीएफ़ की गाड़ी स्पॉट पर पहुँची और घायलों में एक पुलिसकर्मी ने डीवाईएसपी टीबी सिंह को अभियुक्त के पिस्तौल छीनकर भागने की बात बतायी।" 'एफ़िडेविट’ आगे की कहानी सुनाता है- ‘सिंह और उनकी टीम ने कच्ची रोड पर अभियुक्त का पीछा किया। विकास दुबे निरंतर फ़ायरिंग करता रहा। उसने कुल 9 राउंड फ़ायर किये। एक गोली श्री सिंह की छाती में लगी लेकिन बुलेटप्रूफ़ जैकेट पहनने की वजह से वह बच गए।’
कहानी में बुलेटप्रूफ़ जैकेट का करिश्मा तो यूँ रहा। अब बाक़ी 2 पुलिस जवानों की सुनिए। एक की बाईं बाँह गोली से ज़ख़्मी हुई और दूसरे की बाईं हथेली और बाईं जांघ गोली से ज़ख़्मी हुई।
मोटर एक्सीडेंट
मोटर के पलट जाने की कहानी भी बड़ी रहस्य्पूर्ण है। क्रिमिनल के वरिष्ठ अधिवक्ता अमीर अहमद ज़ाफ़री ने सारी फुटेज का गहरा अध्ययन किया है। उनका कहना है कि जिस जगह दुर्घटना हुई बताई गई है, टीवी फुटेज में उसके दोनों ओर के खेत बिलकुल साफ़-सुथरे हैं। वहाँ मानसून में भी किसी क़िस्म की बुआई नहीं हुई है। ऐसे में वहाँ से जानवरों के रेवड़ के एकदम से निकल पड़ने और ड्राइवर का ध्यान भंग करने का कोई सीन नहीं बनता। यदि रेवड़ निकलता तो दूर से ही दिखाई पड़ जाता और तब तक ड्राइवर के पास व्हीकल को नियंत्रित करने को खासा वक़्त मिल गया होता।
यदि मान भी लिया जाये कि पुलिस वाहन बाईं ओर से आते रेवड़ से बचने के लिए दाहिनी ओर मुड़ी होगी। हाइवे पर इस तरफ़ पक्की सड़क से 1 फुट की दूरी पर तारों की कसी हुई बाड़ खींची गयी है। जिस जगह गाड़ी पलटी है, वहाँ की कंक्रीट सड़क पर कोई नुक़सान नहीं पहुँचा है।
कानपुर से गुना के बीच टीवी कैमरों में अनेक स्थलों के दृश्यों में काफिले की गाड़ियाँ आगे-पीछे चलती रिकॉर्ड हुई हैं। ये दूरियाँ मुश्किल से 2-2 मिनट की दूरी की हैं। आप सुधिजन मुझसे क्यों पूछते हैं कि आख़िर ऐसा क्या हुआ कि एक्सीडेंट की जगह पर पीछे से आता डीवाईएसपी का वाहन अचानक इतनी दूरी पर हो गया कि गाड़ी पलट भी गयी, बाक़ी पुलिस वाले चोटिल होकर खेत रहे मगर 56 इंच सीने वाला विकास बिना चोट खाये उठा, उसने इन्स्पेक्टर की पिस्तौल छीनी और पीछे के दरवाज़े से टहलता हुआ (पैर में रॉड पड़ी होने से वह ओलम्पियन की रफ़्तार से हरगिज़ नहीं भाग सकता) दूर कच्ची सड़क तक पहुँच गया। और तब भी पीछे वाली गाड़ी का दूर-दूर तक पता नहीं था।
आपके इस सवाल का जवाब पुलिस की 'चंद्रकांता' में बिलकुल नहीं है कि इस दसेक मिनट की देरी की वजह क्या थी? तिलिस्म है और तिलिस्म में कभी भी राक्षस प्रकट होकर राजकुमार का रास्ता रोक सकता है!
पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह मानते हैं कि वीवीआईपी मूवमेंट में सुरक्षा की दृष्टि से अक्सर गाड़ियों में विभूति की अदला बदली की जाती है, जैसा कि इस मामले में हुआ है और 'एफ़िडेविट में बताया गया है। लेकिन इस बात का जवाब उनके पास भी नहीं है कि इससे पहले मीडिया के कैमरों में जो काफिला दर्शाया गया है उसमें यह गाड़ी कहीं नहीं दिखती है, फिर कब और कहाँ इसे काफिले में दाखिल करवाया गया या पहले से यह लेटी हुई पड़ी थी, जबकि काफिला वहाँ पहुँचा? स्टोरी में रहस्य-रोमांच फिर उभरता है।
मीडियो को क्यों रोका?
विक्रम सिंह मीडिया को रोके जाने की घटना को बिलकुल जायज़ ठहराते हैं। उनका कहना है कि अक्सर मीडिया के भेस में नकली बिल्ला लगाकर अपराधी घुसपैठ कर डालते हैं और यह ख़तरनाक हो सकता है। 'एफ़िडेविट' इतनी मेहरबानी ज़रूर करता है कि साथ चलने वाले मीडिया को वह ‘ख़तरनाक अपराधी’ नहीं मानता। पूरे रास्ते मीडिया काफिले के साथ-साथ चलता रहा। सिर्फ़ एक्सीडेंट वाली जगह से 2 किमी दूर पर रोका गया। क्यों? रोमांच कथा में एक नया रहस्य बताया जाता है। ‘यूपी पुलिस द्वारा मीडिया को कहीं नहीं रोका गया। वे सारे रास्ते लाइव टेलिकास्ट करते रहे। चेक पॉइंट पर ट्रैफ़िक जाम था।’ (इसलिए उन्हें रुकना पड़ा!) अब ये पत्रकार इतने झूठे और दग़ाबाज़ क्यों हो गए कि नाहक बेचारी यूपी पुलिस पर ख़ुद को रोके जाने का आरोप लगा रहे हैं!
इतनी रफ़्तार से पलट जाने वाली गाड़ी ज़बरदस्त टूट-फूट का शिकार होगी ही लेकिन इस 'क्षतिग्रस्त' गाड़ी की जो तसवीर 'एफ़िडेविट' में लगाई गयी है, उसकी साइडें घिसटी हुई हैं। अमीर अहमद जाफ़री एडवोकेट अपनी टीवी फुटेज रिकॉर्डिंग दिखाते हुए बताते हैं कि पुलिस की क्रेन इतनी दीन-हीन है कि वह लेटी हुई गाड़ी को उठा नहीं पाती, उसे लेटे-लेटे ही घसीटती स्पॉट से ले गयी है। ज़ाहिर है इतनी घसीटा-घसीटी में तो उतनी घसीटी वह हो जायेगी जितनी 'एफ़िडेविट की तसवीरों में दिख रही है।'
(इस तरह की दिलचस्प चिलगोजियाँ और भी हैं जो आगे आएँगी और जिन्हें देश की सर्वोच्च अदालत के सामने परोसा गया है। आज इतने से काम चलाइये, रहस्य-रोमांच का बाक़ी मज़ा कल लीजियेगा हमारी रिपोर्ट के पार्ट-2 में।)
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