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एनकाउंटर में विकास दुबे की मौत से क्या आतंक का युग ख़त्म हो गया?

बिकरू गाँव में मिठाई बाँटने वाले क्या सचमुच सही मान रहे हैं कि एनकाउंटर में विकास दुबे की मौत के साथ ही आतंक के युग की समाप्ति हो गई है? ऐसा है तो फिर हमें अदालतों और भारतीय दंड संहिता और भारतीय लोकतंत्र के प्रति किस तरह की निष्ठा और आदर का भाव रखना चाहिए?
श्रवण गर्ग

आँखों के सामने इस समय बस दो ही दृश्य हैं: पहला तो उज्जैन स्थित महाकाल के प्रांगण का है। उस प्रांगण का जो पवित्र क्षिप्रा नदी के तट पर बसा हुआ है और उस शहर में समाया हुआ है जो सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी रहा है। जहाँ, भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक विराजित है और जो काल भैरव और कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। जहाँ भगवान कृष्ण और बलराम गुरु सांदिपनी के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने आए थे। 

इसी महाकाल के प्रांगण में एक आदमी निश्चिंत होकर बहुत ही इत्मिनान से फ़ोटो खिंचवा रहा है। इधर से उधर आ-जा भी रहा है और फिर भगवान के दर्शन करने के बाद बाहर आकर घोषणा भी करता है कि वह कानपुर वाला विकास दुबे है। इसका वीडियो भी बन जाता है और वायरल भी हो जाता है। यह सब ऐसे चलता है, जैसे किसी फ़िल्म  के दृश्य की शूटिंग चल रही हो।

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दूसरा दृश्य, कानपुर शहर के नज़दीक भौंती नाम की जगह का है। उस जगह का जो बिकरू नामक गाँव से कोई पचास किलो मीटर दूर है जहाँ तीन जुलाई को आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद विकास दुबे फ़रार हो गया था और कड़ी चौकसी का मज़ाक उड़ाते हुए फ़रीदाबाद के रास्ते तेरह सौ किलोमीटर की यात्रा कर महाकाल के प्रांगण तक पहुँच गया था। 

महाभारत काल अथवा उसके भी काफ़ी पहले के उज्जयिनी नगर से भौंती तक लगभग सात सौ किलोमीटर का जो मार्ग है, वही आज़ादी के बाद हुए भारत के कुल विकास की यात्रा है। यह भी कह सकते हैं कि विकास औद्योगिक नगर कानपुर पहुँचने के पहले यहाँ रोक दिया गया था।

कोई चलता-फिरता अपराधी अपने गिरोह की मदद से समूची व्यवस्था के कपड़ों पर गंदगी लगाकर पहले तो उसका ध्यान भंग करता है और फिर उसके हाथ से लोकतंत्र के बटुए को छीनकर फ़रार भी हो जाता है। वह यही काम बार-बार तब तक करता रहता है, जब तक कि व्यवस्था कराहने नहीं लगती। उसके बाद जो कुछ होता है उसी पर इस समय बहस चल रही है। 

बहस यह कि न्याय की प्रतिष्ठा की दृष्टि से एक ऐसे अपराधी का एनकाउंटर में मारा जाना कहाँ तक उचित है जिसने कथित तौर पर महाकाल प्रांगण में स्वयं ही उपस्थित होकर अपने उस व्यक्ति के होने की खुलेआम मुनादी की थी जिसे बटुए से लुटी हुई व्यवस्था चारों तरफ़ ढूँढ रही थी।

जनमानस की अलग-अलग राय

वफ़ादारी के टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी व्यवस्था से जुड़े हुए लोग भी कई-कई हिस्सों में बंट गए हैं। इनमें एक वे हैं जो मानते हैं कि वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में अपराधियों को या तो सजा मिल ही नहीं पाती या फिर उसमें काफ़ी विलम्ब हो जाता है। ये लोग भीड़ की हिंसा, मॉब लिंचिंग या हैदराबाद जैसे एनकाउंटर को भी जायज़ मानते हैं। 

विकास दुबे के एनकाउंटर को लेकर देखिए, वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार का वीडियो - 

एक दूसरा वर्ग कह रहा है कि आम नागरिक का न्याय व्यवस्था के प्रति कुंठित हो जाना तो समझा जा सकता है, पर यहाँ तो व्यवस्था का ही व्यवस्था की ज़रूरत पर से यक़ीन ख़त्म होता दिख रहा है जो कि और भी ज़्यादा ख़तरनाक है। व्यवस्था के इस कृत्य में सिर्फ़ नागरिक की भागीदारी ही नहीं है, उसे प्रत्यक्षदर्शी बनने से भी किसी ‘नाके’ के पहले ही रोका जा रहा है।
विकास दुबे तो एक ऐसा बड़ा अपराधी था जिसे अपने अपराधों के लिए संवैधानिक न्याय प्रक्रिया के तहत मौत जैसी सजा मिलनी ही चाहिए थी। पर सवाल यह है कि पिछले तीन दशकों के बाद भी क्या पुलिस व्यवस्था में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है?

वर्ष 1987 के मई माह की उस घटना का क्या स्पष्टीकरण हो सकता है जिसमें प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेब्युलरी (पीएसी) के जवान मेरठ की एक बस्ती से एक समुदाय विशेष के पचास लोगों को उठाकर ले गए और फिर उन्हें गोलियों से उड़ाकर शवों को पानी में बहा दिया गया। केवल आठ लोग किसी तरह बच पाए। 

तीन दशकों तक चले मुक़दमे में सोलह पुलिसवालों को दो साल पहले ही सजा सुनाई गई। केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों ही जगह तब कांग्रेसी हुकूमतें थीं। दोषियों को सजा से बचाने के लिए तब हर स्तर पर प्रयास किए गए थे। क्या हमें ऐसा नहीं मानना चाहिए कि विकास दुबे के एनकाउंटर में शामिल लोगों को भी बचाने के वैसे ही प्रयास किए जाएँगे?

चर्चा है कि विकास दुबे की एनकाउंटर में मौत के बाद बिकरू गाँव के लोगों ने मिठाइयाँ बाँटीं और जश्न मनाया। यह भी आरोप है कि इसी गाँव के कई युवक उस समय विकास की मदद कर रहे थे, जब पुलिसकर्मियों पर गोलियाँ बरसाई जा रही थीं और अब पुलिस द्वारा सभी हथियारों के समर्पण की माँग की जा रही है। 

बिकरू गाँव में मिठाई बाँटने वाले क्या सचमुच सही मान रहे हैं कि एनकाउंटर में विकास दुबे की मौत के साथ ही आतंक के युग की समाप्ति हो गई है? ऐसा है तो फिर हमें अदालतों और भारतीय दंड संहिता और भारतीय लोकतंत्र के प्रति किस तरह की निष्ठा और आदर का भाव रखना चाहिए?

एक सवाल यह भी है कि अगर तीन जुलाई को मारे जाने वाले लोगों में आठ पुलिसकर्मियों के स्थान पर सामान्य नागरिक होते तब भी क्या विकास दुबे को इसी तरह से महाकाल के प्रांगण तक की यात्रा और अपने वहाँ होने की मुनादी करनी पड़ती? 

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कहा जाता है कि राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त एक प्रभावशाली व्यक्ति की हत्या के बाद भी विकास दुबे गवाहों के अभाव में पर्याप्त सजा पाने से छूट गया था। इस तरह के दुर्दांत अपराधी क्या बिना किसी संरक्षण के ही ऐसी हत्याएँ करने का साहस जुटा सकते हैं? 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जिस घटनाक्रम को संदेह की दृष्टि से देखते हुए उसके लोकतंत्र के भविष्य पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर चिंतित होना चाहिए, उसके प्रति संतोष व्यक्त किया जा रहा है।

प्रश्न यह भी है कि जो कुछ भी चल रहा है उसके प्रति अगर थोड़ी सी भी अप्रसन्नता व्यक्त करनी हो तो फिर इससे भी गम्भीर और क्या घटित होना चाहिए! 

और अंत में यह कि इस बात का ज़्यादा मातम नहीं मनाना चाहिए कि विकास अपनी मौत के साथ तमाम सारे राज़ और रहस्य भी लेकर चला गया है। वे राज अगर खुल जाते तो पता नहीं किस तरह के और एनकाउंटरों, खून-ख़राबे और राजनीतिक-प्रशासनिक उथल-पुथल के दिन देखने पड़ जाते!

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