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प्रियंका ने ऐसा क्या काम किया कि वह राज्यसभा की शोभा बढ़ाएँ?

इन दिनों राजस्थान और मध्य प्रदेश के कांग्रेसियों में होड़ मची है कि कैसे वे प्रियंका गाँधी को राज्यसभा में भेजें। लेकिन किस आधार पर? यह सच है कि उत्तर प्रदेश की इंचार्ज बनने के बाद प्रियंका ने पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने की कोशिश की है। लेकिन अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि उनकी कोशिशों से यूपी में कांग्रेस अपनी खोयी ज़मीन पा रही है। यूपी की बंजर ज़मीन पर कांग्रेस के दुबारा उगने की संभावना अभी दूर की कौड़ी है।
आशुतोष

लगता है कांग्रेस के नेता हार से भी सीखना नहीं चाहते। दिल्ली चुनाव में पार्टी का सूपड़ा साफ़ हो गया। बड़ी मुश्किल से वह 4% वोट लेकर आयी। उसके 66 में से 63 उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गयी। लेकिन न तो पार्टी में इस पर कोई गंभीर चर्चा है और न ही इस ग़लती से सीखने की कोई चाहत। ऊपर से वह पुरानी ग़लती फिर दोहराने पर तुली है। अब कांग्रेस एक और बड़ी ग़लती करने जा रही है। प्रियंका गाँधी को राज्यसभा में भेजने की तैयारी कर रही है। 

कांग्रेस का बँटाधार किया है उसके नेताओं की चमचागिरी और दरबारी प्रवृत्ति ने। इन दिनों राजस्थान और मध्य प्रदेश के कांग्रेसियों में होड़ मची है कि कैसे वे प्रियंका गाँधी को राज्यसभा में भेजें। प्रियंका संसद में जाएँ इस पर किसी को आपत्ति कैसे हो सकती है। लेकिन एक सवाल है जिसपर बहस होनी चाहिए। वह पार्टी की महासचिव हैं। उत्तर प्रदेश की इंचार्ज हैं। लेकिन अभी तक उन्होंने पार्टी के लिए कौन-सा ऐसा काम किया है कि वह राज्यसभा की शोभा बढ़ाएँ? वह पार्टी की सदस्य भी पिछले साल आम चुनाव के ठीक पहले बनीं। पूर्वी यूपी की इंचार्ज बनायी गयीं। पर पार्टी का यूपी में लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन शर्मनाक रहा। राहुल गाँधी भी अपना चुनाव अमेठी से हार गए। सिर्फ़ सोनिया गाँधी रायबरेली से जीतीं। यह अलग बात है कि बिना पार्टी से जुड़े भी वह अपने भाई और माँ की लोकसभा सीटें यानी अमेठी और रायबरेली की देखभाल करती रही हैं और चुनाव के दौरान वहाँ प्रचार भी करती रही हैं। पर यह कोई पैमाना नहीं हो सकता उनको राज्यसभा में भेजने का।

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यह भी सच है कि कांग्रेस और कांग्रेस के बाहर प्रियंका की राजनीतिक समझ की तारीफ़ करने वालों की एक बड़ी फ़ौज है। राजनीति के जानकारों और नेताओं का मानना है कि प्रियंका राहुल से बेहतर नेता हैं। उनमें उनकी दादी इंदिरा गाँधी की झलक दिखती है। दादी की तरह वह लोगों से आसानी से रिश्ता क़ायम कर लेती हैं। साथ ही उनके राजनीतिक “रिफ़लेक्सेस” भी नैसर्गिक हैं, स्वाभाविक है। राहुल उनकी तुलना में ठिठके-ठिठके लगते हैं। ऐसा लगता है कि वह राजनीति में अपनी मर्ज़ी से नहीं आए हैं। वह परिवार का कोई क़र्ज़ है जो उतार रहे हैं। वह राजनीति में “ठेले” गये लगते हैं। राजनीति उनका स्वाभाविक गुण नहीं है। मुझे याद पड़ता है, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और अपने ज़माने में चाणक्य कहे जाने वाले अर्जुन सिंह ने मुझसे कहा था कि प्रियंका बहुत पॉलिटिकल हैं। और वह पार्टी को आगे ले जा सकती हैं। ऐसा उन्होंने राहुल से तुलना करते हुए कहा था। यह तब की बात है जब राहुल गाँधी और प्रियंका दोनों ही राजनीति में नहीं आए थे।

यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश की इंचार्ज बनने के बाद प्रियंका ने पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने की कोशिश की है। वह प्रदेश का दौरा कर रही हैं। हर मुद्दे से ख़ुद को जोड़ने की कोशिश कर रही हैं। जहाँ कहीं भी यूपी में अत्याचार होता है, वह वहाँ पहुँच जाती हैं। फिर चाहे राबर्ट्सगंज में किसानों की हत्या का मामला हो या फिर नागरिकता क़ानून पर यूपी की पुलिस के अत्याचार का। वह पीड़ित परिवारों से मिलीं। उनके दुख-सुख में शामिल हुईं और योगी सरकार को आड़े हाथों लिया। लेकिन अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं मिला है कि उनकी कोशिशों से यूपी में कांग्रेस अपनी खोयी ज़मीन पा रही है। यूपी की बंजर ज़मीन पर कांग्रेस के दुबारा उगने की संभावना अभी दूर की कौड़ी है। तो फिर।

प्रियंका को राज्यसभा में भेजने के पीछे एकमात्र कारण उनके नाम में “गाँधी” सरनेम लगा होना है। वह अगर नेहरू-गाँधी परिवार से नहीं होतीं तो क्या तब भी उनको संसद में भेजने को लेकर वरिष्ठ नेताओं में प्रतिस्पर्धा होती? बिलकुल नहीं।

प्रियंका का नाम इसलिये उछाला जा रहा है क्योंकि वह राजीव गाँधी की पुत्री हैं, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी उनकी माँ और इंदिरा गाँधी उनकी दादी। जवाहर लाल नेहरू उनके परदादा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रियंका को अगर राज्यसभा में भेजा जायेगा तो कोई भी कांग्रेसी उनका विरोध नहीं करेगा। पर सवाल यह है कि क्या प्रियंका को फ़िलहाल राज्यसभा में जाना चाहिये या भेजा जाना चाहिये? मेरी नज़र में नहीं। और इसके कारण हैं।

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मोदी के पीएम बनने के बाद राजनीति बदली

नरेंद्र मोदी के देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद राजनीतिक आसमान बदला है। वंशवाद के नाम पर नेहरू-गाँधी पर इतनी गहरी चोट पहले कभी नहीं की गयी। राहुल गाँधी की जमकर खिल्लियाँ उड़ाई गयी कि नेहरू-गाँधी परिवार का होने की वजह से ही वह पार्टी के अध्यक्ष बने हैं वर्ना उनके खाते में कोई उपलब्धि नहीं है। इसके बरक्स नरेंद्र मोदी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़े जाते हैं कि वह अपने बल पर, अपनी मेधा और अपनी मेहनत से देश के प्रधानमंत्री बने हैं। उनको राजनीति और प्रधानमंत्री का पद तश्तरी में परोस कर नहीं दिया गया है। मोदी लगातार राहुल गाँधी को ‘शहज़ादा’ कह कर पुकारते रहे हैं। वह अपनी तुलना राहुल से करते हुए कहते भी हैं- “वो नामदार है, मैं कामदार”। आज की तारीख़ में देश में एक ऐसा पढ़ा-लिखा तबक़ा भी तैयार हो गया है जो वंशवाद को देश के लोकतंत्र पर धब्बा मानता है और ग़ुलाम मानसिकता का प्रतीक। राहुल की अपनी राजनीतिक कमज़ोरियों के अलावा वंशवाद का आरोप भी उनकी राजनीतिक स्वीकार्यता को मुश्किल बनाता है। ऐसे में प्रियंका का राज्यसभा में जाना बीजेपी और विरोधियों के तर्क को ही मज़बूत करेगा जो प्रियंका के लिए शुभ संकेत नहीं होगा। अगर वह लोकसभा का चुनाव जीत कर जातीं तो काफ़ी हद तक वंशवाद के हमले की धार को कम किया जा सकता है। हालाँकि तब भी आरोप तो लगेंगे ही। पर तब यह कहा जा सकता है कि जनता ने चुन कर भेजा है। राज्यसभा का मतलब है तश्तरी में परोस कर दी गयी संसद सदस्यता। 

फिर यह इस लिहाज़ से भी ठीक नहीं है कि एक ही परिवार के तीन लोग संसद में हों (और अगर मेनका गाँधी और वरुण गाँधी को जोड़ लें तो यह संख्या पाँच हो जाएगी)। सोनिया और राहुल पहले से ही लोकसभा में हैं। हालाँकि वे चुनाव लड़कर आए हैं। 

अगर प्रियंका संसद सदस्य नहीं बनीं तो क्या पार्टी में उनका प्रभाव कम हो जाएगा? क़तई नहीं। लेकिन कांग्रेस के दरबारी अपने नंबर बढ़ाने के लिये प्रियंका की राजनीति पर ग्रहण लगाने पर लगे हैं।

यहीं कांग्रेस की दरबारी प्रवृत्ति कांग्रेस की सबसे बड़ी कमज़ोरी है। वे नेहरू-गाँधी परिवार की आड़ में छिप कर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना चाहते हैं। हक़ीक़त तो यह है कि राजीव गाँधी की असमय मौत के बाद जब कांग्रेस के दरबारी नेता सोनिया को देश का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव लेकर गए थे तो यह सोनिया थीं जिन्होंने इनकार किया था। नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री काल में भी अर्जुन सिंह जैसे नेताओं की कमी नहीं थी जो नेहरू-गाँधी के प्रति अपनी निष्ठा का ढिंढोरा पीट कर अपना उल्लू सीधा करते रहे।

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क्या करे कांग्रेस?

यह वह वक़्त था जब कांग्रेस वंशवाद से छुटकारा पा सकती थी। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से नया नेतृत्व आ सकता था। लेकिन एक परजीवी की तरह वह नये रास्ते नहीं खोजना चाहती थी। सीताराम केसरी के प्रयोग से त्राहिमाम-त्राहिमाम करते हुए 1998 में वह फिर नेहरू-गाँधी परिवार की शरण में गयी। सोनिया गाँधी को पार्टी का अध्यक्ष पद सौंप दिया। और कांग्रेस में नये सिरे से वंशवाद की शुरुआत हुई। हो सकता है कि अगर सोनिया राजनीति में नहीं आतीं तो कांग्रेस के कई टुकड़े हो जाते। यह भी हो सकता था कि नेहरू-गाँधी परिवार से अलग कोई नया नेता कांग्रेस में नयी जान फूँक देता और पार्टी अपने पुराने यौवन को पा पाती। सोनिया की वजह से पार्टी बस उतराती रही, कभी भी अपने पुराने गौरव को नहीं पा पायी। आज जो लोग प्रियंका में नयी उम्मीद तलाश रहे हैं, उन्हें उनके संघर्ष करने के लिए छोड़ देना चाहिए। अगर दम होगा तो अपने आप उभर कर आ जाएँगी।

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