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किसान आंदोलन के नये राग और सरकार की बढ़ती मुश्किलें

कृषि क़ानूनों के विरुद्ध शुरू हुए किसान आंदोलन ने आज़ादी के बाद के तेलंगाना आंदोलन के मज़दूर एकता के तत्वों को भी स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया है। टिकैत के सम्बोधन को इसी रौशनी में देखा जाना चाहिये। निजीकरण और बीजेपी की दूसरी आर्थिक नीतियों के विरोध में श्रमिकों का जिस प्रकार का असंतोष फूट रहा है वह यदि किसान बगावत से जुड़ जाता है तो मोदी सरकार मुश्किल में पड़ जाएगी।
अनिल शुक्ल

पिछले सप्ताह किरावली (आगरा) की विशाल किसान पंचायत में हज़ारों-हज़ार किसानों को सम्बोधित करते हुए किसान नेता राकेश टिकैत ने जो स्वर छेड़े वे न सिर्फ़ मौजूदा किसान आंदोलन में नितांत नए राग के रूप में अंकित हो गए बल्कि वो किसान आंदोलन की परिधि को खेत और गाँव से विस्तार देकर शहरों तक खींच देते हैं। ये ऐसे नूतन स्वर हैं जिसने किसान आंदोलन के करघे में मज़दूर एकता का नया धागा बुन डाला है। अपने संबोधन में टिकैत ने 60 लाख ट्रैक्टरों के साथ संसद को घेरने की चेतावनी और डीज़ल-पेट्रोल की बढ़ती क़ीमतों को उठाने के साथ-साथ रेलवे और बीएसएनएल के निजीकरण का विरोध किया। यह न केवल बीजेपी की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध ऐसा 'यलगार' है जिसे ऐसे साफ़-सुथरे तरीक़े से उठाने की हिम्मत विरोधी पार्टियाँ भी नहीं कर पा रही हैं बल्कि वो आज़ादी के बाद उभरे किसान आंदोलनों में मज़दूरों के साथ एका की पहली पहल का आह्वान भी है।

यूँ दूसरे दशक में हुए चंपारण (बिहार) के नील किसानों के सत्याग्रह (1917) के बाद अवध (यूपी) का किसान विद्रोह (1920), मालाबार (केरल) के मोपला किसानों के विद्रोह (1921) और बारदोली (गुजरात) किसानों के नागरिक अवज्ञा आंदोलन (1928) बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के 4 महत्वपूर्ण आंदोलन हैं जो यद्यपि अपने चरित्र में स्थानीय और चंद सवालों पर केंद्रित थे लेकिन जिन्होंने आने वाले वर्षों में देश के स्तर पर ब्रिटिश विरोधी-सामंत विरोधी बड़े किसान आंदोलनों को जन्म दिया। इन्हीं आंदोलनों की पृष्ठभूमि में स्वामी सहजानंद सरस्वती और उनकी 'किसान सभा' के गठन को भी जांचना होगा जिसने आगे चलकर देश में न सिर्फ़ कम्यूनिस्टों के नेतृत्व वाले व्यापक किसान आंदोलन का सूत्रपात किया बल्कि जिसने 'किसान-मज़दूर एकता' के विचार को भी जन्म दिया।

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मौजूदा किसान आंदोलन मूलरूप से कृषि के 3 क़ानूनों के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए खड़े हुए थे लेकिन अपनी प्रवृत्ति में ये शुरू से व्यापक लोकतान्त्रिक सवालों को उठाते दिख रहे हैं और सत्ता दल को उनकी इसी 'लोकतान्त्रिक व्यापकता' से नाराज़गी भी है।

सरकार और बीजेपी ने बारम्बार इस आंदोलन को सीमित क्षेत्र और मुद्दों तक केंद्रित करने की कोशिश की और मुख्यधारा मीडिया ने सरकार की इन कोशिशों में उनकी जम कर मदद की। कभी इसे पंजाब के किसानों का आंदोलन कहा गया तो कभी ख़ालिस्तानी। कभी इसे कनाडा और अमेरिका से आयातित तत्वों का 'खेल' बताया गया। कभी इसे इडली-डोसा आंदोलन बताया गया तो कभी पिज़्ज़ा खाने वालों का। कभी इन आंदोलनकारियों को 'अल्ट्रा लेफ़्ट' कहा गया। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे माओवादी तत्वों की घुसपैठ वाला आंदोलन कह कर पुकारा था।

यह आंदोलन क्षेत्रीयतावाद और जातिवाद के सभी आरोपों को झुठलाता, धीरे-धीरे एक राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन के चरित्र में परिवर्तित होता जा रहा है। सरकार और पार्टी- दोनों के लिए इस आंदोलन के आर्थिक मुद्दे जितनी टीस पैदा करने वाले हैं, दर्द का उतना ही अहसास 'आंदोलन' अपनी धर्मनिरपेक्ष राजनीति के चलते भी करवा रहा है। इस किसान आंदोलन ने शुरू से जिस तरह अपने नायक आदर्शों में शहीद भगत सिंह और डॉ. भीमराव आम्बेडकर को 'हाईलाइट' किया वह संघर्षों के ज़रिये मूलभूत राजनीतिक बदलाव और संवैधानिक चेतना के स्वरों को एक साथ प्रतिध्वनित करता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मौजूदा किसान आंदोलन अपनी 'डिज़ाइन' में आज़ादी पूर्व और आज़ादी के बाद के किसान आंदोलनों की तमाम सकारात्मक विरासत को हृदयंगम करके चल रहा है।
​बीसवीं सदी की शुरुआत में भारत में जिस प्रकार के प्रखर किसान आंदोलनों का उदय हुआ था, उनमें ब्रिटिश विरोध के साथ-साथ सामंतवाद विरोध के प्रबल स्वर भी आ मिले थे। इन आंदोलनों के जन्मदाता गाँधी जी थे। चंपारण में नील किसानों के अधिकारों के लिए लड़ा गया उनका संघर्ष न सिर्फ़ सदी का पहला किसान आंदोलन था बल्कि जिसने स्वतन्त्रता संग्राम की योद्धाओं को लड़ने का एक नया हथियार भी प्रदान किया। यह हथियार था-सत्याग्रह! इसी लड़ाई के दौरान गाँधी जी ने इन अशिक्षित किसानों की संतानों के लिए 4 स्कूल खोले। वर्तमान किसान आंदोलन ने न सिर्फ़ अपनी रणनीति में 'सत्याग्रह' की परंपरा को आत्मसात किया बल्कि राजनीतिक आंदोलन में शिक्षा के चंपारण के प्रयोग को अपनाया है। सिंघू और टिकरी बॉर्डर पर किसान संतानों के लिए विद्यालय संचालित किये गए हैं जो बड़ी सफलतापूर्वक चल रहे हैं। 
rakesh tikait kisan mahapanchayat strengthens farmers protest - Satya Hindi

1919 में आंदोलन

1919 में अवध के किसानों ने सामंतों की मांग पूरी करने वाले अंग्रेज़ों के कृषि भूमि के नए 'टेनेंसी' क़ानूनों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। रायबरेली ज़िले के फुरसतगंज और मुंशीगंज बाज़ारों से शुरू हुए उनके प्रदर्शन आगे चलकर सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, जौनपुर और फैज़ाबाद आदि ज़िलों में फैले। कई स्थानों पर पुलिस ने इन आंदोलनकारियों पर गोली चलाई। 1920 में बाबा रामचंद के नेतृत्व में प्रतापगढ़ से 50 मील पैदल चलते आंदोलनकारी किसान इलाहाबाद में चल रहे कांग्रेस के प्रांतीय सम्मलेन में पहुँचे और जवाहरलाल नेहरू से मिलकर अपने आंदोलन को सहयोग देने की मांग की। नेहरू ने इस आंदोलन से जुड़े सवालों को गंभीरता से कांग्रेस के मंचों पर उठाया।

किसानों का ये पैदल मार्च आगे चलकर भारत के राजनीतिक इतिहास में आज़ादी पूर्व और आज़ादी के बाद की आंदोलनकारियों की पदयात्राओं की झड़ी लगाने वाला साबित हुआ। बारडोली के किसानों की पदयात्रा और बाद में गाँधी के ऐतिहासिक 'दांडी मार्च' को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

इन पदयात्राओं का अलग-अलग काल में सत्ता ने कड़ा विरोध किया था। पंजाब, हरियाणा, यूपी और उत्तराखंड के किसानों ने भी अपने प्रदेश के विभिन्न ज़िलों से दिल्ली के लिए ट्रैक्टर मार्च नवम्बर 2020 में शुरू किया। हरियाणा और यूपी सरकार की लाठी पानी की बौछार और आँसू गैस के गोलों को झेलते ये आंदोलनकारी किसान अंततः सिंघू, टिकरी और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर तक पहुँचे जहाँ आज भी उनके धरने चल रहे हैं।   

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मोपला विद्रोह 

तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी के मालाबार में मोपला विद्रोह (1921) हुआ जिसे मालाबार विद्रोह भी कहते हैं। मालाबार एक मुसलिम बहुसंख्यक इलाक़ा था। ये मुसलमान मोपला के नाम से जाने जाते थे। मोपला ज़्यादातर कृषक या मज़दूर वर्ग के थे जो चाय या कॉफ़ी बागानों में काम करते थे। वे अशिक्षित थे इसलिए धार्मिक कट्टरता भी उनमें अधिक थी। मोपला विदेशी शासन, हिन्दू जमींदारों और साहूकारों से पीड़ित थे। अपनी दुःखद स्थिति से लाचार होकर 19-20वीं शताब्दी में मोपलाओं ने बार-बार विरोध और आक्रोश प्रकट किया था। 1857 के पूर्व मोपलाओं के क़रीब 22 आन्दोलन हुए थे। 1882-85, 1896 और बाद में 1921 में मोपला विद्रोह हुआ। 1870 में सरकार ने मालाबार में मोपलाओं द्वारा बार-बार विरोध की विवेचना करने के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति की रिपोर्ट में कुछ बातें सामने आईं कि इन विरोधों का कारण किसानों को ज़मीन से बेदखल किया जाना, लगान में मनमाने ढंग से वृद्धि किया जाना आदि हैं।

एक अनुमान के अनुसार 1862 से 1880 तक मध्य मालाबार में लगान और ज़मीन से बेदखल करने से संबंधी मुक़दमों में क्रमशः 244% और 441% वृद्धि हुई। इससे किसानों और मज़दूरों के आर्थिक शोषण का अंदाज़ आसानी से लगाया जा सकता है।

मोपला के किसानों का आन्दोलन हिंसात्मक था। मोपलाओं ने ज़मींदारों के घरों में धावा बोला, धन लूटे और हत्या की। मंदिरों की भी संपत्ति लूटी गई। साहूकारों को भी मौत के घाट उतारा गया। पूरे मालाबार में अशांति फैल गई। सरकार ने अपनी तरफ़ से मोपला विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए बल का भी प्रयोग किया पर मोपला किसी से नहीं डरे। उनके मन में यह भावना थी कि इस आन्दोलन में वे मर नहीं रहे बल्कि शहीद हो रहे हैं और उन्हें इस काम के लिए जन्नत मिलेगी। यदि हत्या और हिंसा के तत्व निकाल दिए जाएँ तो मौजूदा किसान आंदोलन में शहीदी भावना मोपला के किसानों सरीखी देखने को मिलती है।

उधर आज़ादी की लड़ाई के दौरान 1928 में बारडोली सत्याग्रह ख़ास महत्व रखता है। इस चार महीने के सत्याग्रह में सूरत के 600 वर्ग किलोमीटर में फैले तालुका के 137 गाँवों के किसानों ने न सिर्फ़ ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी थी, बल्कि इस लड़ाई को जीता भी।

किसानों के इस आंदोलन का नेतृत्व गांधी जी की देख-रेख में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था। कहा जा सकता है कि इस धर्मनिरपेक्ष किसान आंदोलन, अहिंसक बारडोली सत्याग्रह ने ‘दांडी नमक मार्च’ के लिए एक खाका तैयार किया था। 12 फ़रवरी, 1928 को महात्मा गांधी ने इस सत्याग्रह की घोषणा की थी। इसी साल भारत में साइमन कमीशन आया था, जिसका राष्ट्रव्यापी विरोध हुआ था। अभी यह कमीशन पहुँचा ही था और बारडोली में सत्याग्रह शुरू हो गया। इस सत्याग्रह के पीछे की वजह थी लगान का बढ़ा दिया जाना। दरअसल, किसानों द्वारा दिए जाने वाले कर में अचानक 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी गयी थी।

यह निर्णय एक प्रांतीय सिविल सेवा अधिकारी की सिफारिश के आधार पर लिया गया था जिसने तर्क दिया था कि ताप्ती नदी घाटी में रेलवे लाइन की स्थापना के बाद किसान इस क्षेत्र में अधिक समृद्धि का आनंद ले रहे थे। ज़मीनी हकीक़त जबकि कलेक्टर के इस मूल्यांकन से बिलकुल अलग थी। किसानों के कई बार मांग किये जाने के बाद भी बॉम्बे गवर्नर ने उनकी कोई सुनवाई नहीं की।

जब उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही थी तो किसानों के नेता सरदार पटेल के पास पहुँचे। सरदार पटेल ने उनकी मांग सुनते हुए कहा कि कांग्रेस उनका साथ देगी। इसके बाद 4 फ़रवरी, 1928 को (किसानों को कर का पहला इंस्टालमेंट देने के दिन) पटेल ने बारडोली में किसानों की एक कांफ्रेंस आयोजित की। उन्होंने बॉम्बे गवर्नर से एक बार फिर इस निर्णय पर विचार करने को कहा, लेकिन वहाँ से कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। कर की इस पहली किश्त का भुगतान करने की अंतिम तिथि 15 फ़रवरी थी, जिसके बाद स्थानीय अधिकारियों को किसानों की ज़मीन और मवेशियों को जब्त करने के लिए एक आदेश दिया गया था। 

12 फरवरी को बारडोली तालुकों के एक अन्य सम्मेलन ने संशोधित मूल्यांकन का भुगतान न करने के निर्णय को दोहराया और इसके बजाय मांग की कि या तो सरकार नए मूल्यांकन के लिए एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण नियुक्त करे या उसे पूर्ण भुगतान के रूप में पिछली राशि को स्वीकार करे।

किसानों का सांप्रदायिक सौहार्द

इन निर्णयों की पुष्टि के प्रस्ताव के बाद, किसानों ने कुरान, रामायण के अंशों का पाठ किया और भजन गाए। प्रभु और ख़ुदा के नाम पर लोगों द्वारा शपथ ली गई। सत्याग्रह की शुरुआत रहस्यवादी कबीर के गीतों से हुई। बारडोली रेलवे स्टेशन पर ट्रेनों से उतरने के बाद अधिकारियों को तालुक के भीतर कोई बैलगाड़ी या यात्रा का कोई अन्य साधन नहीं मिला। लोग गिरफ्तार होने या जब्त होने के डर से अपने मवेशियों के साथ घरों के अंदर बंद हो जाते हैं, लेकिन क्योंकि क़ानून ने इन गिरफ्तारियों या संपत्ति की कुर्की को रोक दिया था, लोग रात में सक्रिय हो गए। पटेल ने सत्याग्रहियों को सैन्य तर्ज पर संगठित किया था और व्यक्तिगत रूप से एक सेनापति (कमांडर) की भूमिका निभाई। उन्होंने एक विस्तृत प्रचार विभाग की स्थापना की जिसने लोगों के बीच सूचना पहुँचाई गयी। सत्याग्रह ने अथक कार्रवाई के लिए सरदार की संगठनात्मक क्षमता और उत्साह का प्रदर्शन किया। गांधी जी ने कहा था कि बारडोली में सरदार ने ‘अपना वल्लभ (भगवान)’ पाया। 1974 में भारतीय समाजशास्त्र पत्रिका में योगदान पत्र में घनश्याम शाह लिखते हैं, ‘चार महीनों के संघर्ष के दौरान, करदाताओं ने अपनी संपत्ति की कुर्की की क़ीमत पर भी राजस्व का भुगतान नहीं किया। उन्होंने सरकारी अधिकारियों का बहिष्कार किया और खेतों से अनुपस्थित रहे और एक साथ अपने घरों को बंद कर दिया।’ 

विचार से ख़ास

जून 1928 के आते-आते, सरकार को सत्याग्रहियों का दबाव महसूस होना शुरू हो गया था। यहाँ तक कि ब्रिटिश-स्वामित्व वाले प्रकाशन भी किसानों के समर्थन में सामने आए। इसके बाद प्रशासन के चेहरे के रूप में, गवर्नर काउंसिल के एक प्रमुख सदस्य चुन्नीलाल मेहता ने किसानों के साथ समझौता किया। उन्होंने 5.7 प्रतिशत वृद्धि की सिफ़ारिश की और इस कर के भुगतान के बाद प्रशासन द्वारा जब्त की गई भूमि वापस कर दिए जाने का वायदा किया। इस बीच, किसानों के साथ एकजुटता में सरकारी नौकरियों से इस्तीफ़ा देने वालों को बहाल किये जाने का वायदा भी किया। आन्दोलन को देखते हुए सरकार के पास इन सिफारिशों को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इस तरह किसानों ने यह लड़ाई जीत ली। मौजूदा किसान आंदोलन ने बारडोली किसान आंदोलन के लम्बे चलने वाले स्वरूप और नागरिक अवज्ञा  के तत्व को अंगीकार कर लिया है।

कृषि क़ानूनों के विरुद्ध शुरू हुए किसान आंदोलन ने आज़ादी के बाद के तेलंगाना आंदोलन के मज़दूर एकता के तत्वों को भी स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया है। टिकैत के सम्बोधन को इसी रौशनी में देखा जाना चाहिये। निजीकरण और बीजेपी की दूसरी आर्थिक नीतियों के विरोध में श्रमिकों का जिस प्रकार का असंतोष फूट रहा है वह यदि किसान बगावत से जुड़ जाता है तो मोदी सरकार ही नहीं समस्त राज्यों में व्याप्त उनके सत्ता के सूत्र या जहाँ उन्हें उनकी प्राप्ति की चाह है, मुश्किल में पड़ जायेंगे। प. बंगाल ने इन तथ्यों को प्रदर्शित करना शुरू कर दिया है। चुनाव आयोग के सहारे 8 चरण में चुनावों की तैयारी वस्तुतः इन्हीं संकट से उबरने की मोदी सरकार की कोशिश है।
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