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फ़ाइल फ़ोटो

पंचायत चुनाव: किसान आंदोलन से बीजेपी को डर?

एक ओर किसान आन्दोलन के चलते पश्चिम और मध्य उत्तर प्रदेश के गाँवों में व्याप्त बीजेपी विरोधी प्रबल प्रतिरोध तो दूसरी तरफ़ पंचायत आरक्षण मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के 15 मार्च के फ़ैसले से पंचायतों में सवर्ण बाहुबलियों के दाखिले की राज्य सरकार की कोशिशों को पहुँची क्षति के बावजूद बीजेपी हथियार डालने को तैयार नहीं है।
अनिल शुक्ल

जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों की तिथियाँ नज़दीक आती जा रही हैं वैसे-वैसे लोगों के बीच यह सवाल और भी गहराता जा रहा है कि पिछले 6 महीनों में उठ खड़े हुए देशव्यापी किसान आंदोलन का खूँटा पकड़कर विपक्ष इन पंचायत चुनावों में बीजेपी की चूलें उघाड़ने में कामयाब होगा या नहीं? क्या इसके लिए उसने कोई बड़ी रणनीति तैयार की है? क्या इसे लेकर उनके बीच कोई आपसी समझ बन सकी है? क्या प्रदेश के किसान नेताओं ने अपने आंदोलन की गर्मी को इन चुनावों में बीजेपी विरोध के लिए झोंक देने की कोई योजना गढ़ी है?

ये सवाल शहरी मध्यवर्ग में ही ज़्यादा है। जहाँ तक गाँवों का सवाल है, उनके सवाल दूसरे हैं। वहाँ हाल यह है कि बीजेपी समर्थित प्रत्याशी पार्टी बिल्लों को लेकर घूमने से भी कतरा रहे हैं। तहसील और ब्लॉक मुख्यालयों पर लगे होर्डिंग-बैनरों में भले ही प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष की तसवीरें लगी हों लेकिन उम्मीदवारों के निजी वाट्सऐप संदेशों में मोदी जी और नड्डा जी के बजाय उम्मीदवारों के दादा और पिता की तसवीरें ही देखने को मिलती हैं। यूपी के किसान का सवाल यह है कि बिना सिम्बल वाला उनका उम्मीदवार जब बीजेपी लहर के दम पर जीत कर जायेगा तब अप्रत्यक्ष चुनावों की वोटिंग के समय धनबल, सत्ताबल और शक्तिबल के दबाव में किसके गुण गायेगा?

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एक ओर किसान आन्दोलन के चलते पश्चिम और मध्य उत्तर प्रदेश के गाँवों में व्याप्त बीजेपी विरोधी प्रबल प्रतिरोध तो दूसरी तरफ़ पंचायत आरक्षण मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के 15 मार्च के फ़ैसले से पंचायतों में सवर्ण बाहुबलियों के दाखिले की राज्य सरकार की कोशिशों को पहुँची क्षति, इस सबके बावजूद बीजेपी हथियार डालने को तैयार नहीं है। गैंग रेप और हत्या के सज़ायाफ्ता और उन्नाव के पूर्व विधायक कैलाश सेंगर की पत्नी (विवाद होने पर बाद में उनका टिकट कट गया है) सहित अनेक दबंगों को ज़िला पंचायतों व ब्लॉक प्रमुखी का उम्मीदवार बनाकर, अन्य को अप्रत्यक्ष समर्थन देकर ग्राम पंचायतों तथा क्षेत्रीय पंचायतों में उम्मीदवार बना कर उसने यह साबित कर दिया है कि विधानसभा चुनावों की पूर्वबेला में होने वाले इन पंचायत चुनावों को वह अपराधियों, बाहुबलियों और अपनी पार्टी के नेताओं के पारिवारिक सदस्यों के दम पर चुनाव जीतने की अपनी रणनीति से किसी भी क़ीमत पर पीछे हटने को तैयार नहीं। इन बहुगुणी उम्मीदवारों में उनका सवर्ण होना बीजेपी की पहली ‘चॉइस’ है।

52 हज़ार ग्राम पंचायतों, 61 हज़ार ब्लॉक मेम्बरों, 826 ब्लॉक प्रमुखों और 3 हज़ार से भी अधिक ज़िला पंचायत सदस्यों और 75 ज़िला पंचायत अध्यक्षों के लिए होने वाले इन चुनावों में 10 करोड़ 50 लाख से भी अधिक वोटर भाग लेंगे जो देश का सबसे बड़ा आँकड़ा है। इस बार अभी तक पिछले पंचायत चुनावों सरीखी हिंसा में मरने वालों की तादाद भले ही 'न के बराबर' है लेकिन चुनावी प्रचार में नक़ली शराब के बँटवारे ने अनेक स्थानों पर बड़ी तादाद में लोगों को मौत की नींद सुलाया है।

बीजेपी के लिए ये चुनाव बड़े काँटे के हैं। किसान आंदोलन में उबलते प्रदेश के गाँवों में अपनी जड़ें ज़माने के लिए बीजेपी बेताब है।

यद्यपि उम्मीदवारों के पार्टी सिम्बल न होने के चलते वह इसे स्थानीय और जातिगत मुद्दों से जोड़कर लड़ना चाहती है लेकिन कृषि क़ानूनों के विरुद्ध पूरे यूपी में जिस तरह बीजेपी विरोध की लहर बह रही है उससे वह ख़ासी बेचैन है।

सीपीएम यानी माकपा की किसान सभा के प्रदेश अध्यक्ष भारत सिंह कहते हैं-

“डीज़ल, पेट्रोल, सीएनजी, एलपीजी और आयरन सरिया के दाम पहले ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चकनाचूर कर रहे थे, डेमोनियम फ़ॉस्फ़ेट के दामों में आयी रिकॉर्ड बढ़ोतरी ने जैसे किसानों का धैर्य ही उखाड़ दिया। खेती की बुवाई में 'जड़' स्वरूप डाले जानेवाले इस बेहद ज़रूरी कैल्शियम के दाम हाल के डेढ़ महीने में ही 1150 रुपये से बढ़ाकर 1900 रुपये कर दिए गए। इसे वह लूट के चरम के तौर पर देखता है।”

बीजेपी इन ख़तरों से सचेत है। यही वजह है कि किसान आंदोलन से उबलते प्रदेश में पंचायत चुनावों की तैयारी उसने बीती जनवरी से ही शुरू कर दी थी। इस उद्देश्य से एक ओर जहाँ राज्य सरकार की प्रशासनिक कमिश्नरी को 'तेल डालकर' चुस्त-दुरुस्त किया गया वहीं सांगठनिक स्तर पर राष्ट्रीय बीजेपी के प्रदेश प्रभारी राधेमोहन सिंह और प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव ने पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर कार्यकर्ताओं और जनप्रतिनिधियों की बैठकें शुरू कर दीं।

इस मामले में न सपा उनका पीछा कर सकी न कांग्रेस या बसपा। मार्च शुरू होते-होते जब खेती की कटाई का समय आया और आन्दोलनकर्ता किसान कुछ समय के लिए मोर्चों को अलविदा कहकर खेतों में उतरने लग गए तभी बीजेपी ने इसे अपने चुनाव प्रचार के लिए श्रेष्ठ समय माना। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव प्रदेश में उभरती बीमारी की ख़बरों को भी संदेह की नज़रों से 'सूंघते' हैं। वह कहते हैं- "जब कोई चुनाव नहीं था तब कोई महामारी नहीं थी। अब जबकि चुनाव सिर पर हैं तो महामारी का हंगामा बरपा है।” 

किसान कांग्रेस के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख डॉ. अनिल चौधरी का कहना है-

"प्रदेश के गाँव-गाँव में बीजेपी विरोध की आंधी चल रही है। हालत यह है कि कोई बड़ा नेता इन गाँवों में जाने की जुर्रत नहीं कर पा रहा है जबकि विपक्षी नेताओं का किसानों में स्वागत हो रहा है।"

बीजेपी (अपने समर्थक दलों सहित) प्रदेश की सभी 3051 ज़िला पंचायत सदस्य सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इसके अलावा 826 ब्लॉक प्रमुख पदों पर भी उसने अपने उम्मीदवार उतारे हैं। जहाँ तक ग्राम प्रधान और बीटीसी की सीटों का सवाल है, उसने ऐसी कोई सीट नहीं छोड़ी है जहाँ वह उम्मीदवारों को अपना अप्रत्यक्ष समर्थन दे रही हो। उसने दबंगों और बाहुबलियों की फौज को चुनाव मैदान में उतारा है तो कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाने वाली ‘पार्टी विद डिफ़रेंस' ने अपने नेताओं के परिजनों को भी थोक के भाव झोंका है। पार्टी नेताओं के परिजनों को टिकट देने में सपा भी हालाँकि उससे उन्नीस नहीं बैठी है।

सवाल यह उठता है कि बीजेपी इतनी कड़ी तैयारी से ख़ुद के ख़िलाफ़ बहने वाली हवा को मोड़ने की कोशिश में लगी है तब क्या विपक्ष इन चुनावों के ज़रिये उसकी जड़ें खोदने की जुगत में है?

लोकदल के अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी ने पश्चिमी प्रदेश में लगभग सभी सीटों पर चुनिंदा उम्मीदवारों को अपनी पार्टी का समर्थन और आर्थिक सहयोग दिया है। उधर सपा ने सेन्ट्रल और ईस्टर्न यूपी में बड़ी तादाद में ज़िला पंचायत के उम्मीदवारों को उतारा है। उन्होंने ब्लॉक प्रमुखी के भी कई सौ उम्मीदवारों को मैदानी समर्थन दिया है। बिजनौर में ज़रूर दोनों पार्टियों के बीच साझा उम्मीदवार हैं।

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कांग्रेस और बसपा इस मामले में काफ़ी पिछड़े हैं। हालाँकि कांग्रेस ने अभी तक के पंचायत चुनावों में सबसे ज़्यादा उम्मीदवार दिए हैं। ‘आप’ ने ज़रूर बड़ी संख्या में अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं लेकिन ग्रामीण अंचल में ज़मीनी स्तर पर अभी तक उनका कोई वजूद नहीं। शायद अरविन्द केजरीवाल आगामी विधानसभा चुनावों से पहले अपनी धरती तैयार करना चाह रहे हों।

क्या सपा, लोकदल, कांग्रेस या बसपा ने इन पंचायत चुनावों को लेकर कोई सुनियोजित रणनीति बनायीं? सवाल यह है कि ऐसे प्रबल आंदोलन के दबाव में जीतने वाले प्रत्याशी आगे चलकर अप्रत्यक्ष चुनावों में मतदाता बनते समय बिक न जाएँ, इसके लिए उन्होंने कोई रणनीति बनायी है? क्या उन्होंने किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में इन पंचायत चुनावों को उस तरह से देखा-परखा जिसे पंजाब में स्थानीय निकाय के चुनावों में कांग्रेस ने किया था और बीजेपी व अकालियों का सूपड़ा साफ़ कर दिया था? 

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