राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महासचिव ने गोवा में ऐसी बात कह दी है, जो सच्चे हिंदुत्व को परिभाषित करने में बहुत मदद कर सकती है। श्री सुरेश जोशी, जिन्हें देश भय्याजी जोशी के नाम से जानता है, मोहन भागवत के बाद संघ के सबसे ऊँचे अधिकारी हैं। उनसे एक संगोष्ठी में किसी ने पूछा कि ‘क्या आरएसएस सांप्रदायिक नहीं है?’’ उन्होंने कहा कि सांप्रदायिक वह हो सकता है, जिसकी एक ही पूजा-पद्धति हो, एक ही भगवान हो, एक ही किताब हो, एक ही तरह का मंदिर हो।’’
आगे उन्होंने इसकी व्याख्या कैसे की, इसका पता नहीं लेकिन उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं कह सकता हूँ कि जिन्हें हिंदू कहा जाता है, उन लोगों की पूजा-पद्धतियाँ, उनके भगवान, उनके पवित्र ग्रंथ, उनके पूजा-स्थल, उनके तीज-त्यौहार आदि का एक होना तो दूर, वे इतने अधिक और विविध हैं कि उनकी गिनती करना ही मुश्किल है। एक ही परिवार में चार-चार छह-छह संप्रदायों के माननेवाले लोग प्रेम से साथ-साथ रहते हैं। सांप्रदायिक सहिष्णुता हिंदू के स्वभाव में अपने आप होती है। मेरे परिवार में ताऊ कृष्ण भक्त, दादी राधास्वामी, माँ रामस्नेही और मेरे पिता कट्टर आर्यसमाजी थे। मूर्तिपूजा का विरोध करने में आर्यसमाजी लोग मुसलमानों से भी ज़्यादा सख़्त होते हैं। लेकिन हमारे घर में मैंने कभी झगड़ा नहीं देखा।
भय्याजी जोशी की बात का यह अर्थ भी लगाया जा सकता है कि ईसाई, मुसलमान, पारसी और यहूदी सांप्रदायिक हैं। हाँ, हैं। तो इसमें बुरा क्या है? ग़लत क्या है? लगभग हर हिंदू भी किसी न किसी संप्रदाय को मानता है। भारतीय और विदेशी मूल के धर्मों के लोग अपने-अपने संप्रदाय का दृढ़तापूर्वक पालन करें लेकिन अन्य संप्रदायों और धर्मों के प्रति कोई कटुता न रखें, यह संभव है। यही सच्चा हिंदुत्व है। यही सच्ची भारतीयता है।
कोई विदेशी मूल के धर्म को मानता है तो उसको विदेशभक्त मान लेना उचित नहीं है। यदि वह भारत में पैदा हुआ है तो वह भारत माँ का पुत्र है, यह बात मैं बरसों से कहता रहा हूँ। इसकी पुष्टि संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों ख़ुद ही की है। यदि कोई बुद्धिवादी या नास्तिक इन धर्मों को नहीं मानता है तो उसे इनकी आलोचना करने का भी पूरा अधिकार है। यह काम डेढ़ सौ साल पहले आर्यसमाज के प्रणेता महर्षि दयानंद ने किया था। उन्होंने दूध को दूध और पानी को पानी कह दिया। लेकिन क्या कोई उनकी देशभक्ति पर उँगली उठा सकता है?
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