सर्वोच्च न्यायालय के एक अत्यंत महत्वपूर्ण फ़ैसले पर देश के अखबारों और चैनलों का बहुत कम ध्यान गया है। फ़ैसले का मैं इसलिए स्वागत करता हूं क्योंकि यह देश से जातिवाद को ख़त्म करने में बहुत मदद करेगा। फ़ैसला यह है कि आप किसी भी सरकार को जाति के आधार पर नौकरियों में आरक्षण देने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। हमारे देश में अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ों को आरक्षण देने की प्रथा चली आ रही है। सरकारी नौकरियों में इनकी संख्या इनके अनुपात में काफी कम है। उनके साथ सदियों से अन्याय होता रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय के 2008 में दिए गए फ़ैसले को रद्द कर दिया और कहा कि उत्तराखंड सरकार को पूरा हक़ है कि वह समस्त सरकारी पदों को बिना किसी आरक्षण के भर सके। संविधान की धारा 16 में आरक्षण संबंधी जो प्रावधान है, वह राज्य सरकारों को इस बात की छूट देता है कि वे अपनी जांच के आधार पर तय करें कि उन्हें कोई पद आरक्षित करने हैं या नहीं? यही सिद्धांत पदोन्नतियों पर भी लागू होता है।
मुझे विश्वास है कि सभी राज्य और केंद्र सरकारें इस फ़ैसले पर सख्ती से अमल करेंगी। तब प्रश्न यह होगा कि हमारे करोड़ों पिछड़े, ग्रामीण, ग़रीब भाइयों को न्याय कैसे मिलेगा? उनके साथ न्याय करना बेहद ज़रूरी है। राष्ट्र का यह नैतिक कर्तव्य है। इसके दो तरीके हैं। पहला, उन सबके बच्चों को शिक्षा, भोजन और वस्त्र मुफ्त दिए जाने चाहिए और दूसरा, मानसिक और शारीरिक श्रम की क़ीमतों में एक से दस गुने से ज़्यादा फर्क नहीं होना चाहिए। वे अपनी योग्यता से आगे बढ़ेंगे। किसी की दया के मोहताज नहीं होंगे। इससे स्वाभिमानी राष्ट्र का निर्माण होगा।
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