loader
साभार: चुगतई म्यूजियम ब्लॉग

दारा शिकोह से मुहब्बत, औरंगजेब से नफ़रत क्यों आरएसएस को?

मध्ययुगीन राजाओं या राजतंत्रों को लोकतंत्र या सेक्युलरिज़्म जैसे आधुनिक सिद्धांतों की तुला पर तौलने के पीछे सिर्फ़ बेईमान इरादा ही हो सकता है। कोई भी राजा या बादशाह कभी लोकतांत्रिक या सेक्युलर हो ही नहीं सकता। लेकिन आरएसएस और बीजेपी को अचानक दारा शिकोह की याद आ गई है। ‘काश दारा शिकोह सम्राट बनते’ का रोना क्यों रोया जा रहा है?
पंकज श्रीवास्तव

कुछ राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पहले आरएसएस और बीजेपी को अचानक दारा शिकोह की याद आई है। ‘जवाहर लाल  नेहरू नहीं सरदार पटेल पहले प्रधानमंत्री होते’ की तर्ज पर ‘काश दारा शिकोह सम्राट बनते’ का रोना रोया जा रहा है। आरोप यह भी है कि दारा को इतिहासकारों ने पर्दे में रखा। वे ऐसा क्यों करेंगे, ऐसे सवालों की उन्हें परवाह नहीं।

11 सितंबर को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 'एकेडमिक्स फ़ॉर नेशन' के बैनर तले ‘भारत की समन्वयवादी परंपरा के नायक- दारा शिकोह’ पर परिसंवाद में आरएसएस के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल ने कहा कि अगर दारा शिकोह मुगल सम्राट बनता तो इसलाम देश में और फलता-फूलता क्योंकि दारा शिकोह में सर्वधर्म समभाव की प्रवृत्ति थी।

सवाल यह उठता है कि क्या आरएसएस के सह सरकार्यवाह वाक़ई किसी ऐसे इसलाम के भारत में फलने-फूलने के पक्ष में हैं जो समन्वयवादी हो और इस परिसंवाद में मुख़्तार अब्बास नक़वी दारा के जिन विचारों को फैलाने की बात कह रहे थे, क्या उस पर उनकी पार्टी खरी उतरती है? या फिर दारा के बहाने औरंगज़ेब को निशाने पर लेने का इरादा है, जिसकी मंदिर तोड़ने वाले कट्टर मुसलमान की छवि ध्रुवीकरण के काम आ सकती है?

ताज़ा ख़बरें

दारा शिकोह शाहजहाँ और मुमताज़ महल के ज्येष्ठ पुत्र थे। 20 मार्च 1615 को जन्मे दारा शिकोह को शाहजहाँ ही नहीं, जनता भी अगले मुगल सम्राट के रूप में देखती थी। सूफ़ीवाद और तौहीद (एकेश्वरवाद) की ओर उनके झुकाव ने उन्हें महान मुगल सम्राट अकबर की परंपरा से जोड़ दिया था जिन्होंने दुनिया के तमाम धर्मों का सार संकलन कर दीन-ए-इलाही नाम का एक नया धर्म चलाने की कोशिश की थी। दारा भी विभिन्न धर्मों के दार्शनिक पक्ष में ख़ास रुचि लेते थे। सूफ़ी-संतों से मुलाक़ात और धर्म चर्चा उनका शौक था। उन्होंने 52 उपनिषदों का अनुवाद कराया। इस पुस्तक को सीर-ए-अकबर (सबसे बड़ा रहस्य) कहा गया। वह ख़ुद अच्छे लेखक थे। उन्होंने सूफ़ीवाद और वेदांत से जुड़ी तमाम किताबें लिखीं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने इसलामी रीति-रिवाज़ छोड़ दिए थे, लेकिन उनकी सर्वेश्वरवादी प्रवृत्ति स्पष्ट थी। धीरे-धीरे वह इस मत के होते गये कि वेदांत और इसलाम की मूल बात एक ही है।

समझा जा सकता है कि अगर दारा सिंहासन पर बैठते तो धार्मिक समन्वय की अकबरकालीन परंपरा तेज़ी से आगे बढ़ती। लेकिन इतिहास न जाने ऐसे कितने 'काश' से भरा हुआ है। दारा सन 1658 में उत्तराधिकार का युद्ध हार गये। औरंगज़ेब की चतुर चालों के आगे वह बेबस हो गये जिन्होंने प्रारंभ में सांसारिक मसलों से दूर ख़ुद को एक फ़कीर के रूप में प्रचारित किया था (कभी भी झोला उठाकर हज के लिए जाने को उद्धत)। जिनके दो भाई शुज़ा और मुराद यही समझते रहे कि औरंगज़ेब उनके लिए लड़ रहे हैं। उन्होंने दारा के ख़िलाफ़ औरंगज़ेब का साथ दिया, जिन्होंने एक-एक करके सबको साफ़ कर दिया।

सवाल है कि दारा हारे क्यों? बादशाह शाहजहाँ की सारी शक्ति और संसाधन उनके पक्ष में थे लेकिन कुछ काम न आया। यहाँ तक कि मिर्ज़ा राजा जय सिंह और जसवंत सिंह जैसे शाहजहाँ के धर्मपरायण हिंदू सेनापतियों ने उदार दारा के बजाये ‘कट्टर’ औरंगज़ेब की मदद की।

सत्रहवीं सदी में फ्राँस से भारत आये फ्रांस्वा बर्नियर ने 1658 में हुआ उत्तराधिकार का युद्ध अपनी आँख से देखा था। वह डॉक्टर के रूप में शाहजहाँ के दरबार में आठ साल तक रहे। नेशनल बुक ट्रस्ट ने 'बर्नियर की भारत यात्रा' नाम से उनका संस्मरण प्रकाशित किया है जिसकी शुरुआत में ही (पेज नंबर 4) दारा शिकोह के चरित्र का वर्णन करते हुए बर्नियर लिखते हैं-

‘दारा में अच्छे गुणों की कमी नहीं थी। वह मितभाषी, हाज़िर जवाब, नम्र औरअत्यंत उदार पुरुष थे। परंतु अपने को बहुत बुद्धिमान और समझदार समझते थे और उनको इस बात का घमंड था कि अपने बुद्धिबल और प्रयत्न से वह हर काम का प्रबंध कर सकते हैं। वह यह भी समझते थे कि जगत में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो उनको किसी बात की शिक्षा दे सके। जो लोग डरते-डरते उन्हें कुछ सलाह देने का साहस कर बैठते, उनके साथ वह बहुत बुरा बर्ताव करते। इसके कारण उनके सच्चे शुभचिंतक भी उनके भाइयों के यत्नों और चालों से उन्हें सूचित न कर सके। वह डराने और धमकाने में बड़े निपुण थे। यहाँ तक कि बड़े-बड़े उमरा को बुरा भला कहने और उनका अपमान कर डालने में भी वह संकोच न करते थे। ...कुछ लोगों का यह भी कथन है कि वह जो कभी ईसाईपन दिखाते, उसका कारण है कि ईसाई लोग, जो उनके तोपख़ाने में नौकर थे और जिनकी संख्या बहुत थी, उन्हें चाहें; और हिंदूपन प्रकट करने से उनका यह अभिप्राय था कि उनमें राज्य के प्रतिष्ठित राजाओं और सरदारों की वह प्रीति संपादन कर सकें, ताकि काम पड़ने पर दोनों जाति के लोग उनकी सहायता करें। परंतु इन दो-तीन धर्मों के बीच पड़कर वह न केवल अपनी युक्तियों में विफल ही हुए, बल्कि अंत में उन्हें अपने प्राणों से भी हाथ धोने पड़े।’

तलवार ही योग्यता का आधार

ज़ाहिर है, दारा की हार का कारण उनका अपना चरित्र और अहंकार था। उन्होंने न शाहजहाँ की युद्ध में ख़ुद जाने की सलाह पर ग़ौर किया जो बाक़ी शहज़ादों का हौसला तोड़ने के लिए काफ़ी होता और न अपने बेटे सुलेमान शिकोह की मदद आने का ही इंतज़ार किया जो इलाहाबाद से आगरा की ओर तेज़ी से बढ़ रहा था। बादशाह की छत्रछाया में पला यह दार्शनिक शहज़ादा युद्ध के दाँवपेच में अगर कमज़ोर पड़ा तो स्वाभाविक था। उन्होंने कई सामरिक ग़लतियाँ कीं और वह हार गये।

मुग़लों में उत्तराधिकार ज्येष्ठता के सिद्धांत पर आधारित नहीं था। योग्यता तलवार के बल पर ही तय होती थी। हुमायूँ को भी अपने भाइयों से लड़ना पड़ा था। जहाँगीर के समय उनका कोई भाई ज़िंदा नहीं बचा था लेकिन पिता अकबर से उन्होंने विद्रोह किया ही था। शाहजहाँ ने अपने भाइयों का कत्ल करवाया था। औरंगज़ेब भी इसी राह पर चले थे। अगर वह दारा को नहीं मारते, तो दारा उसे मार देते। यह मध्ययुग की एक कड़वी सच्चाई थी। मेवाड़ के प्रसिद्ध राणा कुम्भा का वध उनके बेटे ऊदा ने ही किया था। हस्तिनापुर के सिंहासन के लिए बंधु-बांधवों का वध करना सामान्य बात थी।

औरंगज़ेब क्या कट्टर बादशाह?

औरंगज़ेब को ज़बरदस्त कट्टर बादशाह के रूप में कुख्यात किया गया है लेकिन इतिहास के शोध इसके पक्ष में नहीं हैं। 1595 ईस्वी में अकबर के कुल मनसबदारों की तादाद थी 98 जिनमें 22 हिंदू थे यानी कुल 22.5 फ़ीसदी। शाहजहाँ (1628-1658) के दौरान कुल मनसबदार थे 437 जिसमें हिंदू थे 98 यानी 22.4 फ़ीसदी। औरंगज़ेब के कार्यकाल के प्रथम चरण (1658-1678) के बीच कुल मनसबदार 486 थे जिसमें 105 हिंदू थे यानी 21.6 फ़ीसदी। औरंगज़ेब के कार्यकाल के दूसरे भाग में (1679-1707) जिसमें तुलनात्मक रूप से उनकी नीतियों को धार्मिक असिष्णुता वाली माना गया है, कुल मनसबदारों की तादाद बढ़कर हो गई थी 575 जिसमें 182 हिंदू थे। यानी 31.6 फ़ीसदी। इसमें 73 राजपूत और 96 मराठे थे। जबकि इस दौर में उसे राठौरों और सिसोदियों का विद्रोह झेलना पड़ा। दक्षिण में शिवाजी के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई में उसे मराठों का साथ मिला। ये 96 मनसबदारों की संख्या से स्पष्ट है। ज़ाहिर है, उस दौर की लड़ाइयाँ हिंदू-मुसलमान की नहीं एक मज़बूत केंद्रीय सत्ता और एक ऐसी प्रादेशिक सत्ता के बीच थी जो प्रारंभ में महज़ दक्षिण में चौथ वसूलने का अधिकार चाहती थी।      (स्रोत- औरंगज़ेबकालीन उमरा, लेखक हेरंब चतुर्वेदी, पेज 224)

अगर आरएसएस और बीजेपी वाक़ई दारा शिकोह के सर्वसमन्वयवादी दृष्टिकोण को देश के हित में समझते हैं तो सबसे पहले उन्हें अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। कोई ऐसा चुनाव नहीं गया जब उसके शीर्ष नेतृत्व की ओर से ध्रुवीकरण कराने वाले जुमले न बोले गए हों। धार्मिक असहिष्णुता का जैसा माहौल देश में नज़र आ रहा है, उसके पीछे कैसा राजनीतिक अभियान है, यह किसी से छिपा नहीं है। 

दारा-औरंगज़ेब के बहाने फिर वही खेल खेलने की कोशिश हो रही है। शिवाजी के नाम पर जो काम बरसों से जारी है, अब उसमें दारा का करुण अंत, संवेदना का गाढ़ा रंग डालेगा।

शिवाजी, औरंगज़ेब की लड़ाई धार्मिक नहीं थी

शिवाजी के तोपख़ाने का इंचार्ज इब्राहिम ख़ान थे। दौलत ख़ान उनका नौसेना प्रमुख थे। कोंकण पट्टी समुद्र के समीप थी। उसकी रक्षा की ज़िम्मेदारी दौलत ख़ान पर थी और वह 'दरयासारंग' कहलाते थे। सालेरी के युद्ध के बाद मुगलों की तरफ़ से एक ब्राह्मण वकील भेजा गया तो शिवाजी ने काजी हैदर को अपना वकील बनाया। शिवाजी का मुसलिम सरदार सिद्दी हिलाल भी बड़े प्रसिद्ध हुए। शमा ख़ान और नूर ख़ान बेग जैसे सरदारों का भी उल्लेख है। इनके अधीन मुसलिम सिपाहियों की बड़ी तादाद भी शिवाजी की ओर से मुगलों से लड़ी।

rss praises dara shikoh but Aurangzeb before state polls new - Satya Hindi
साभार: चुगतई म्यूजियम ब्लॉग

जज़िया कर पर शिवाजी का विरोध

औरंगज़ेब जीवन के अंतिम 25 बरस दक्षिण में युद्ध करते रहे। ख़ज़ाना खाली था तो उन्होंने जज़िया कर लगाया। इस पर शिवाजी ने उन्हें फ़ारसी में लिखा एक पत्र भेजा। शिवाजी ने लिखा-

‘यह इसलाम के मूलभूत सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है। औरंगज़ेब के परदादा अकबर बादशाह ने 52 साल शासन किया। उस कालावधि में सबको न्याय दिया। अत: जनता ने उनका सम्मान किया। उनकी यही नीतियाँ आगे चलकर बादशाह जहाँगीर और शाहजहाँ ने जारी रखीं। उनकी इस नीति के कारण उन्हें विश्वव्यापी प्रसिद्धि मिली। वे बादशाह सहज ही धार्मिक कर वसूल सकते थे परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। परिणाम स्वरूप उन्हें अकूत नेकनामी और पैसा मिला। उनका राज्य विस्तार होता रहा। परंतु औरंगज़ेब के शासन में हिंदू और मुसलमान सिपाही दुखी हैं। अनाज के दाम बढ़ गए हैं। ऐसी परिस्थिति में ग़रीब ब्राह्मण, जोगी, बैरागी, जैन साधु और संन्यासियों से धार्मिक कर वसूलना मानवता नहीं है। उससे मुगल वंश के नाम पर बट्टा लगेगा।’

शिवाजी आगे लिखते हैं— ‘क़ुरआन स्वयं ईश्वर की वाणी है। वह रूहानी किताब है। उसमें अल्लाह को विश्व का ईश्वर कहा गया है, 'मुसलमानों का ईश्वर' नहीं बनाया गया है क्योंकि हिंदू और मुसलमान दोनों ईश्वर के समक्ष एक हैं। मुसलमान लोग मसजिदों में अजान देते हैं, वह ईश्वर का ही गुणगान है और हिंदू लोग भी मंदिरों में घड़ियाल बजाकर ख़ुदा को ही याद करते हैं। अत: जाति-सम्प्रदाय पर अत्याचार करना, भगवान से शत्रुता करना है। धार्मिक कर जारी रखना शास्त्र और न्याय, दोनों दृष्टिकोण से ग़लत है।’  (स्रोत- औरंगज़ेब, जज़िया कर और शिवाजी महाराज, लेखक एस.एम.गर्गे, पृष्ठ 153-155)

विचार से ख़ास

औरंगज़ेब की कर प्रणाली से हिंदू-मुसलमान दोनों दुखी

शिवाजी ने साफ़ लिखा है कि हिंदू ही नहीं मुसलमान भी औरंगज़ेब की कर प्रणाली से दुखी हैं। दरअसल, औरंगज़ेब ने हिंदुओं से जज़िया तो मुसलमानों से अनिवार्य रूप से ज़कात वसूलना शुरू कर दिया था। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि औरंगज़ेब की कथित हिंदू विरोधी नीति का उनके हिंदू मनसबदारों ने कभी विरोध नहीं किया, क्योंकि उस काल में इस तरह से उन नीतियों को देखा नहीं गया जैसा अब देखा जा रहा है। यहाँ तक कि जो मंदिर तोड़े गए वे किसी न किसी अपराध या विद्रोह से जुड़े हुए थे, इसलिए उस समय कोई विद्रोह नहीं हुआ। मंदिर तोड़ने या हिंदुओं को मुसलमान बनाने की कोई नीति होती तो औरंगज़ेब के समय कम से कम आगरा से दिल्ली के बीच कोई मंदिर या हिंदू नहीं बचता।

इसके उलट हमें देखने को मिलता है कि औरंगज़ेब के सेनापति मिर्ज़ा राजा जय सिंह ने शिवाजी को काबू करने के लिए कोटि चंडी यज्ञ करवाया। ग्यारह करोड़ शिवलिंग बनाए गए। 400 ब्राह्मणों ने तीन महीने तक अनुष्ठान किया और फिर शिवाजी (हिंदू राजा) के नाश का आशीर्वाद देते हुए दान-दक्षिणा प्राप्त की।

मध्ययुगीन राजाओं या राजतंत्रों को लोकतंत्र या सेक्युलरिज़्म जैसे आधुनिक सिद्धांतों की तुला पर तौलने के पीछे सिर्फ़ बेईमान इरादा ही हो सकता है। कोई भी राजा या बादशाह कभी लोकतांत्रिक या सेक्युलर हो ही नहीं सकता। राजतंत्र लोकतंत्र का विलोम है और राजत्व के अधिकार को दैवीय सिद्धांत के रूप में हमेशा देखा गया है। राजा या बादशाह जो भी करते थे 'धर्म की स्थापना' के लिए ही करते थे।

दारा के बहाने औरंगज़ेब पर निशाना साधने के पीछे की मंशा को समझने की ज़रूरत है। दारा अगर सर्वधर्मसमभाव का प्रतीक है तो उस पर वास्तव में चलकर दिखाइए, रोका किसने है?

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
पंकज श्रीवास्तव

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें