भारत की अर्थव्यवस्था का आकार तमाम विकसित देशों से बड़ा हो चुका है। वंचितों के कल्याण के लिए तमाम योजनाएँ चलाई जाती हैं। हर सरकार वंचित तबके के कल्याण के लिए उठाए गए कदमों को गिनाती है। इसके बावजूद वंचित तबका वंचित ही बना हुआ है। हाल के वर्षों में कुछ पूंजीपतियों के पास पूंजी के केंद्रीयकरण, धुआंधार निजीकरण, नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के कारण अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती और कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए की गई बंदी ने अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जातियों (एससी), जनजातियों (एसटी) और गरीब तबके की कमर तोड़ दी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से अपने 8वें स्वतंत्रता दिवस संबोधन में दलितों, पिछड़ों और गरीब तबके के कल्याण के लिए उठाए गए कदमों को गिनाने की भरपूर कवायद की। उन्होंने 100 प्रतिशत लाभार्थियों तक योजनाओं की पहुंच की बात की। मेडिकल सीटों के ऑल इंडिया कोटा में अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की चर्चा की। साथ ही सामान्य श्रेणी के गरीबों को नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का जिक्र किया। हाल में हुए संवैधानिक संशोधन की बात की, जिसमें राज्यों को किसी भी जाति को ओबीसी श्रेणी में डालने का अधिकार दिया गया है।
केंद्र के मुताबिक राज्यों को यह अधिकार मिल गया है कि वे ओबीसी की अपनी सूची बनाएं। मंडल कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक उस समय जिन जातियों को ओबीसी की सूची में डाला गया था, उनकी संख्या 1931 की जाति जनगणना के मुताबिक 52 प्रतिशत थी। 1990 में वीपी सिंह सरकार द्वारा ओबीसी आरक्षण दिए जाने की घोषणा के बाद तमाम जातियों को विभिन्न तरीकों से ओबीसी में घुसाया गया।
अगर आप ओबीसी की लिस्ट देखें तो पाएंगे कि तमाम जातियों में उपजाति के कॉलम बने हैं। उन जातियों को ओबीसी आरक्षण नहीं मिलता था, लेकिन राजनीतिक दबाव और वोट के समीकरणों के मुताबिक विभिन्न सरकारों ने तमाम जातियों को ओबीसी में घुसा लिया। उदाहरण के लिए गुजरात की मोध घांची जाति को लिया जा सकता है। कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मोध (घांची) जाति के हैं। मोध घांची जाति को ओबीसी आरक्षण की घोषणा के 10 साल बाद सन 2000 में ओबीसी सूची में शामिल किया गया। इसके पहले यह सामान्य बनिया जाति हुआ करती थी।
सरकार ने जाति जनगणना नहीं कराई, जिससे पता चल सके कि कौन सी जातियां सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछ़ड़े वर्ग के दायरे में आती हैं और इस वजह से उन्हें देश की मलाई में उचित हिस्सा नहीं मिल रहा है। जातियों की अनुमानित संख्या की धुप्पलबाजी और राजनीतिक नफा देखकर किसी भी जाति को किसी जाति की ऊपजाति घोषित करके आरक्षण सूची में डाला जाता रहा है।
इसके अलावा अगर किसी जाति को राज्य सरकार ओबीसी में शामिल करने की सिफारिश करती है, तो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) उन सिफारिशों पर विचार करता है।
एनसीबीसी को भले ही संवैधानिक दर्जा है, लेकिन राजनीतिक प्रसाद के रूप में इसके प्रमुख पद पर नियुक्ति पाने वाले लोग सत्तासीन दल में एक अदने से विधायक के बराबर भी ताक़त नहीं रखते हैं। ऐसे में उनकी इतनी क्षमता नहीं होती कि अगर सरकार किसी जाति को ओबीसी में डालने की सिफारिश कर रही है तो वे मना करने की स्थिति में हों। किसी जाति को ओबीसी में डाले जाने की कवायद इतनी सरल होती है कि उसकी कभी चर्चा ही नहीं होती कि किस आधार पर जातियों को ओबीसी में डाला जा रहा है। मोदी सरकार ने जब एनसीबीसी को संवैधानिक दर्जा नहीं दिया था, उसके पहले भी एनसीबीसी जिस जाति को ओबीसी में डालने की सिफारिश कर देता था, केंद्र सरकार उसे अधिसूचित कर देती थी। 2011 में ओबीसी सूची में शामिल की जाने वाली जातियों की लंबी सूची इस बात की तस्दीक करती है कि ओबीसी में किसी जाति को शामिल किया जाना कोई मुश्किल काम नहीं था, जिसके लिए केंद्र को संविधान संशोधन कर राज्यों को कथित अधिकार देने से कोई खास फर्क पड़ने वाला है।
अन्य पिछड़े वर्ग का 27 प्रतिशत कोटा पहले से ही ओवर क्राउडेड था। मंडल कमीशन की सिफारिश में देश की 52 प्रतिशत आबादी को इसमें घुसाया गया था। उसके बाद इस कोटे में सैकड़ों अन्य जातियों को पिछले दरवाजे से विभिन्न आरक्षित जातियों की उपजाति कहकर घुसा लिया गया। यह बिल्कुल ही नहीं देखा गया कि जिन जातियों को ओबीसी में घुसाया जा रहा है, वह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन के तय दायरे में आते हैं या नहीं।
इसके पहले नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में एनसीबीसी को संवैधानिक दर्जा देने का ढिंढोरा भी जमकर पीटा गया था। आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के अब तक 3 फायदे भी प्रधानमंत्री नहीं गिना पाए कि पिछले 3 साल में संवैधानिक दर्जा लेकर एनसीबीसी ने कौन से झंडे गाड़े हैं। एनसीबीसी को संवैधानिक दर्जा देने को लेकर यह भ्रम ज़रूर पैदा हुआ था कि अब राज्यों को ओबीसी आरक्षण देने व उनके कैटेगराइजेशन का पावर छिन जाएगा।
यानी केंद्र ने पहले एनसीबीसी को संवैधानिक दर्जा देने के लिए संविधान संशोधन करके राज्यों का कैटेगराइजेशन का पावर छीना, फिर एक और संशोधन करके पिछले हफ्ते राज्यों को पावर दे दिया, और अब प्रधानमंत्री ने लाल क़िले के प्राचीर से ऐलान किया कि उन्होंने ओबीसी को एक नई राज-रियासत सौंप दी है।
केंद्र सरकार वंचित तबके को लगातार ठगने की कवायद कर रही है। इसी ठगी की नीति का पालन बीजेपी की राज्य सरकारें भी कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में अभी पिछले सप्ताह आए प्राचार्य पद के परिणाम में 263 पदों में 223 पद पर जनरल, 32 पद पर ओबीसी, 7 पर अनुसूचित जाति को और 1 अनुसूचित जनजाति को चयनित किया गया है। स्वाभाविक रूप से 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण, 22.5 प्रतिशत एससी-एसटी आरक्षण के हिसाब से देखें तो इसमें पदों की लूट नज़र आती है।
इतना ही नहीं, ऐसे समय में जब ओबीसी की मेरिट अमूमन सामान्य से ज्यादा या उससे एकाध अंक कम जा रही है, ऐसे में सभी सीटें अनारक्षित होने पर भी सिर्फ 32 पदों पर ओबीसी का चयन परीक्षा प्रणाली में व्यापक धांधली के संकेत देता है। इसे लेकर सोशल मीडिया पर अभ्यर्थी से लेकर पिछड़े वर्ग के तमाम लोग आक्रोश जता रहे हैं। इसके पहले भी सत्य हिंदी ने यूपी में असिस्टेंट प्रोफेसरों की भर्ती में व्यापक पैमाने पर गड़बड़ियों का मसला उठाया था, जिसमें ओबीसी तबके की मेरिट सामान्य सीटों से ऊपर गई थी। इंटर कॉलेज में हुई भर्तियों में व्यापक पैमाने पर गड़बड़ियां हुईं, जिसकी वजह से ओबीसी और एससी वर्ग की मेरिट अनारक्षित पदों पर चयनित विद्यार्थियों से ऊपर चली गई।
इसके अलावा केंद्र सरकार द्वारा सरकारी कंपनियों के बेचे जाने, सरकारी विभागों में तमाम छोटे पद ठेके पर दिए जाने की वजह से नौकरियों में आरक्षण व्यवस्था शिथिल हुई है। एम्स सहित किसी भी सरकारी मेडिकल कॉलेज में इस समय सुरक्षा से लेकर एक्सरे और पर्चियां बनाने जैसे काम निजी क्षेत्र को ठेके पर दिए जा चुके हैं। इसमें आरक्षण व्यवस्था जैसी कोई चीज लागू नहीं है। इन व्यवस्थाओं से सरकार का खर्च बढ़ा है। ठेके पर काम करने वाली निजी कंपनियां कर्मचारियों को भले ही कम सैलरी देती हैं, लेकिन वे बिचौलिये की भूमिका निभाकर मोटा मुनाफा कूट रही हैं। इसका खर्च सरकार को ही वहन करना पड़ रहा है। लेकिन सरकार को खर्च बढ़ने की चिंता नहीं लगती, उसकी चिंता सिर्फ यह नज़र आती है कि आरक्षण ख़त्म होने से वंचित तबके के लोग नौकरियां नहीं पाएंगे और अगर पाएंगे भी तो निजी क्षेत्र के सहारे रहेंगे जहां उन्हें पेट भरने और बाल बच्चों को बेहतर शिक्षा देने योग्य सैलरी नहीं मिल पाएगी और कंपनियां चलाने वाले कुछ लोग मालामाल हो सकेंगे।
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