फिर क्या था, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय राष्ट्रवादी बहस का अखाड़ा बन गया और उसे आतंकवादियों का अड्डा घोषित करने की मुहिम शुरू हो गयी। किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि वाक़ई में कन्हैया कुमार ने ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ बोला था या नहीं। उसे उसके कुछ साथियों समेत गिरफ़्तार कर लिया गया। और जब उसे दिल्ली की स्थानीय अदालत में पेश किया गया तो अदालत परिसर में उसके साथ मारपीट की गयी। अदालत के अंदर सुनवायी के दौरान उसे जान से मारने की धमकी दी गयी और उसके समर्थकों को या तो पीटा गया या फिर गाली-गलौच की गयी। महिला प्रोफ़ेसरों को भी नहीं बख़्शा गया।
यह नये क़िस्म का राष्ट्रवाद था जिसके नशे में टीवी चैनल, एंकर, संपादक, पुलिस और वकील सब चूर थे। किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि वीडियो का सोर्स क्या है? उसकी फ़ोरेंसिक जाँच कराने की ज़हमत नहीं उठायी गयी।
यह जानने का प्रयास नहीं किया गया कि कहीं वीडियो के साथ छेड़छाड़ तो नहीं की गयी है। पुलिस बार-बार कहती रही कि उसके पास पुख़्ता सबूत हैं। हैरानी की बात यह है कि जो पुलिस पुख़्ता सबूत का दावा डंके की चोट पर कर रही थी उसी पुलिस को पौने तीन साल लग गए कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ अदालत में चार्जशीट दाखिल करने में। अगर सबूत इतने ही पुख़्ता थे और इतनी आसानी से उपलब्ध थे तो फिर पाँच-छह महीने लग सकते थे। या फिर नौकरशाही की वजह से एक साल लग सकते थे। पर लगे पौने तीन साल। अहम बात यह है कि राजद्रोह का मामला चलाने के लिए पुलिस को दिल्ली की राज्य सरकार से अनुमति लेनी चाहिए थी। पर उसने यह भी ज़हमत नहीं उठायी। अदालत से जमकर फटकार लगी। दिल्ली पुलिस ने औपचारिकता निभाने के लिए चार्जशीट दाखिल करने के एक घंटे पहले दिल्ली सरकार के गृह विभाग के पास फ़ाइल भेज दी थी। अगर उसकी दिलचस्पी वाक़ई में अनुमति लेने की होती तो वह समय रहते फ़ाइल भेज कर इंतज़ार करती।
क्या नारे लगाते दिखे कन्हैया कुमार?
इस पूरे मामले में एक और पेच था। जेएनयू का वीडियो आने के बाद दिल्ली सरकार ने अपने स्तर पर मजिस्ट्रेट से पूरे घटनाक्रम की पड़ताल करायी थी। वीडियो को फ़ोरेंसिक जाँच के लिए हैदराबाद लैब भेजा गया था। इस लैब की रिपोर्ट में यह साफ़ लिखा था कि जो वीडियो टीवी चैनल पर दिखा था उसमे एडिटिंग की गयी थी। यानी छेड़छाड़ की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में अदालत में उसे पुख़्ता सबूत नहीं माना जा सकता। इस रिपोर्ट में भी लिखा गया कि कन्हैया कुमार ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे भड़काऊ नारे लगाते नहीं दिखायी दिए, उस समय वह न तो मौक़े पर मौजूद थे और न ही उन्होंने नारे लगाए। ज़ाहिर है यह रिपोर्ट दिल्ली पुलिस के दावे को कमज़ोर करती है। यह एक कारण हो सकता था कि दिल्ली पुलिस आप सरकार से अनुमति लेने से हिचक रही थी। कन्हैया कुमार बार-बार कहता रहा कि वह लोगों को शांत कराने के लिए गया था। उसकी भारतीय संविधान में पूरी आस्था है। उसकी पुलिस ने नहीं सुनी। वह लोगों की नज़र में राजद्रोही हो गया।
टीवी पत्रकारिता की पंचायत!
इस घटना ने 2014 के बाद का एक ऐसा चेहरा उजागर किया जो डराता है। इसको देख कर दहशत होती है। यह चेहरा भारतीय टीवी पत्रकारिता का भी है जो रोज़ शाम को अपनी पंचायत लगाती है। जहाँ पंच बैठते हैं। किसी मुद्दे की सुनवाई होती है। फिर किसी को भी अपराधी घोषित कर दिया जाता है। 2014 के पहले भी ऐसी बैठकें लगती थीं। अपराधी घोषित किया जाता था। पर तब उसके निशाने पर ज़्यादातर राजनेता होते थे या फिर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपी। अमूमन टीवी एंकर जनता के साथ रहते थे। उनके तेवर सरकार विरोधी थे। मनमोहन सरकार की रोज़ ऐसी-तैसी फेरी जाती थी। और पत्रकारिता के बुनियादी मानदंडों से समझौता नहीं होता था। यह माहौल 2014 के बाद बदला। पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों को ताक पर रख दिया गया और सरकार के साथ खुलकर हो गए। जो सरकार के निशाने पर हैं उसकी चमड़ी उधेड़ी जाने लगी। एकाध को छोड़ कर सारे राष्ट्रवादी हो गये। सेना, पुलिस और जाँच एजेंसियों का कहा एक-एक शब्द ब्रह्म वाक्य हो गया। ऐसे में कन्हैया कुमार की कौन सुनता। एक नौजवान रातोरात खलनायक बन गया। अब अदालत ही उसका सम्मान लौटा सकती है। उसके बाद भी उसे राजद्रोही नहीं माना जायेगा, इसकी गारंटी नहीं है।
इस बहस में भारत के लोकतंत्र को भी सूली पर चढ़ाने की कोशिश की गयी। राष्ट्रवाद जैसे अति गंभीर मुद्दे पर बहस की गुंजाइश ख़त्म हो गयी। क़ानूनी बारीकियों को समझने को कोई तैयार नहीं है। वैकल्पिक तर्क का स्पेस ख़त्म हो गया। तर्कशीलता की जगह भावनात्मकता ने ले ली।
लोगों ने यह समझना भी ज़रूरी नहीं समझा कि किसी पर राजद्रोह का आरोप लगाने के पहले सौ बार परख लेना चाहिए। जो इस मामले की गंभीरता को समझते थे उन्होंने अदालत के अंदर कन्हैया का क़ानूनी बचाव करने का फ़ैसला किया। सोली सोराबजी का संविधान के जानकार के तौर पर बहुत सम्मान है। वह वाजपेयी सरकार में अटॉर्नी जनरल रह चुके हैं। उन्होंने कहा, ‘कन्हैया कुमार ने क्या किया? क्या उसने पकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाए? इसके लिए उसकी गिरफ़्तारी? यह अत्यंत ख़ेदजनक है। यह राजद्रोह नहीं है।’ इसके बाद उन्होंने राजद्रोह क्या होता है इसकी परिभाषा बताई। ‘सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़ राजद्रोह ऐसे कृत्य या प्रवृत्ति को कहते हैं जिससे हिंसा भड़कने या क़ानून-व्यवस्था बिगड़ने की आशंका होती है।’ वकीलों के कन्हैया पर हमले से वह काफ़ी नाराज़ थे। उन्होंने कहा कि किसी ने राजद्रोह किया है या नहीं, यह अदालत तय करेगा, न कि कुछ वकील और फिर वे आरोपी और उसके संगी साथियों पर हमला कर बैठे।’
सरकार की आलोचना राजद्रोह नहीं
सोली सोराबजी की तरह ही देश के दूसरे सबसे सम्मानित वकीलों में से एक फाली एस. नरीमन भी इस घटना से काफ़ी व्यथित थे। उन्होंने कहा कि राजद्रोह की धारा तभी लग सकती है जब बोले गए शब्द या लिखी हुई चीज़ से क़ानून-व्यवस्था ख़राब हो या हिंसा हो।’ उनका कहना था कि सरकार की तीखी आलोचना करना राजद्रोह नहीं हो सकता। इन संविधानविदों ने 1995 के सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले का भी उदाहरण दिया। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में अदालत ने कहा था कि ‘खालिस्तान ज़िंदाबाद’ या ‘राज करेगा खालसा’ जैसे नारे लगाने की वजह से ही किसी के ख़िलाफ़ राजद्रोह का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट का 2003 का एक फ़ैसला तो और भी क्रांतिकारी है। नज़ीर ख़ान बनाम दिल्ली राज्य के मामले में कोर्ट ने कहा कि हर नागरिक का यह अधिकार है कि वह अपने विचारों या विचारधारा का प्रतिपादन करे और उसको स्थापित करने के लिए काम करे। और उसे इस काम की तब तक इजाज़त है जब तक कि वह इसमें बल या हिंसा का सहारा नहीं लेता। इस संदर्भ में सोली सोराबजी का कहना है कि नारे चाहे कितने ही सरकार विरोधी क्यों न हों, राष्ट्र विरोधी नहीं कहे जा सकते। पर टीवी की टीआरपी रेटिंग और सरकार के साथ खड़े होने की होड़ में इतनी बारीकी समझने की आवश्यकता किसे थी।
बड़े-बड़े संपादक और सेना के रिटायर्ड जनरल तक यह भूल गए कि तिलक, गाँधी, नेहरू जैसे महापुरुषों को अंग्रेज़ों ने इस राजद्रोह क़ानून का सहारा लेकर बरसों जेल की सलाखों के पीछे रखा था। आम क्रांतिकारियों पर ज़ुल्म ढाए थे।
यही कारण है कि संविधान सभा की बहस में के. एम. मुंशी जैसे प्रखर राष्ट्रवादी ने राजद्रोह को मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाने वाले प्रावधानों की सूची में रखने का विरोध किया था। उनके विरोध की वजह से इसको सिर्फ़ सामान्य क़ानून ही रहने दिया गया। उनका कहना था कि सरकार की आलोचना लोकतंत्र की मूल आत्मा है। दलीय व्यवस्था में एक सरकार को हटा कर दूसरी सरकार लाने की बात करना उसकी ताक़त है। और बिलकुल अलग तरह की व्यवस्था की वकालत करने का स्वागत होना चाहिए क्योंकि यह लोकतंत्र की जीवंतता को ऊर्जस्वित करता है।
अब सवाल यह है कि क्या केजरीवाल ने सोली सोराबजी, फ़ाली नरीमन और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों की रोशनी में यह फ़ैसला दिया है या विशुद्ध तौर पर भविष्य की राजनीति को ध्यान में रखते हुए कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने की इजाजत दी है। हक़ीकत यह है कि कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ मुक़दमे की इजाजत न देने से बीजेपी ने अरविंद केजरीवाल को कन्हैया कुमार के साथ देशद्रोही साबित करने के लिये जबरदस्त प्रोपेगेंडा कर रखा था।
ऐसे समय में जबकि केजरीवाल दिल्ली का चुनाव जीत चुके हैं और जिस तरीक़े से इस चुनाव में हिंदू वोटों को अपनी तरफ़ लाने का प्रयास किया है, उससे वह यह कभी नहीं चाहेंगे कि उनकी छवि कन्हैया कुमार के समर्थक की बने। इससे उनको राष्ट्रवादी हिंदू वोटों का नुक़सान हो सकता था। ज़ाहिर है कि मुक़दमे की अनुमति देकर वह अपने आप को बीजेपी से अलग एक ऐसे हिंदू नेता की छवि बनाना चाहते हैं जो राष्ट्रवादी है लेकिन अल्पसंख्यक विरोधी नहीं है और न ही वह नफ़रत की राजनीति करते हैं।
अपनी राय बतायें