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दिल्ली सरकार- जेएनयू में राजद्रोह नहीं हुआ; क्या कन्हैया बच जाएँगे?

दिल्ली सरकार जेएनयू के पूर्व छात्र नेता कन्हैया कुमार और दूसरे छात्रों के ख़िलाफ़ 'राजद्रोह' का मुक़दमा चलाने के लिए पुलिस को मंज़ूरी नहीं देगी। यह मामला 18 सितंबर को शहर की अदालत में पेश किया जाएगा। मीडिया रिपोर्टों में दिल्ली सरकार के गृह मंत्रालय के सूत्रों के हवाले से यह जानकारी दी गई है। दिल्ली पुलिस ने केजरीवाल सरकार से इसके लिए तब अनुमति माँगी थी जब दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने कहा था कि राजद्रोह चलाने के लिए पुलिस ने ज़रूरी अनुमति दिल्ली सरकार से नहीं ली है और वह पहले यह अनुमति लेकर आए। तब कोर्ट ने कन्हैया कुमार और दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ दायर चार्जशीट को ख़ारिज कर दिया था और कहा था कि दिल्ली पुलिस ने इस मामले में क़ानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया है। बता दें कि राजद्रोह जैसे मामले में अदालत पुलिस की चार्जशीट पर संज्ञान नहीं ले सकती है। उसके लिए संबंधित राज्य के गृह मंत्रालय की मंज़ूरी ज़रूरी होती है।

यह मामला जेएनयू में 9 फ़रवरी 2016 को अफ़ज़ल गुरु और मक़बूल भट्ट की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित करने से जुड़ा है। 2001 में भारतीय संसद पर हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु और एक अन्य कश्मीरी अलगाववादी मक़बूल भट्ट को फाँसी दे दी गई थी। कन्हैया कुमार और 9 अन्य छात्रों पर आरोप है कि वे उस कार्यक्रम में शामिल थे और देश विरोधी नारे लगाए थे। 

राजद्रोह का आरोप लगने के बाद कन्हैया कुमार को गिरफ़्तार किया गया था। लेकिन उन्हें 2 मार्च 2016 में अंतरिम ज़मानत पर रिहा कर दिया गया था, क्योंकि 'राष्ट्र विरोधी' नारों में भाग लेने का पुलिस द्वारा कोई सबूत पेश नहीं किया गया था।

जेएनयू में इस घटना के बाद देश भर में हंगामा हो गया था। इस मामले में पुलिस की किरकिरी हुई कि इसने क़रीब तीन साल में कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की थी, वह भी बिना दिल्ली सरकार की अनुमति लिए। कोर्ट द्वारा चार्जशीट को ख़ारिज़ किए जाने के बाद पुलिस दिल्ली सरकार से इसके लिए अनुमति माँगने पहुँची।

'द इंडियन एक्सप्रेस' ने सूत्रों के हवाले से एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसके अनुसार, गृह विभाग का मानना है कि 9 फ़रवरी, 2016 को परिसर में एक कार्यक्रम के दौरान अभियुक्तों की गतिविधियाँ ‘राज्य के ख़िलाफ़ राजद्रोह’ के दायरे में नहीं आती हैं। माना जाता है कि सरकार ‘कमज़ोर’ और ‘छेड़छाड़’ वाले सबूतों से सहमत नहीं है और क़ानूनी राय लेने के बाद सरकार ने यह फ़ैसला लिया है।

गृह विभाग के अनुसार, 'एफ़आईआर के संदर्भ में पेश किए गए रिकॉर्ड के मद्देनज़र हिंसा भड़काकर राज्य के ख़िलाफ़ राजद्रोह और राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले का मामला नहीं बनता है। और इस मामले में जिन 10 आरोपियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाखिल की गई है, उनके ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 124 ए के तहत मुक़दमे का कोई केस नहीं बनता है। इसलिए सीआरपीसी की धारा 196 के तहत और आईपीसी की धारा 124ए के तहत अपराध के लिए मंज़ूरी अवांछित है।' 

अख़बार ने लिखा है कि दिल्ली के गृह मंत्री सत्येंद्र जैन और प्रमुख सचिव (गृह) रेणु शर्मा ने फ़ोन कॉल और मैसेज का जवाब नहीं दिया। हालाँकि, एक सरकारी प्रवक्ता ने कहा, ‘जो कुछ भी निर्णय हो सकता है, वह पुलिस द्वारा उपलब्ध कराई गई सामग्री के आधार पर लिया जाएगा।’

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क्या पुलिस के पास ठोस सबूत नहीं?

इन रिपोर्टों के अनुसार पुलिस द्वारा पेश सबूतों को एक तरह से दिल्ली सरकार द्वारा ख़ारिज़ कर देना कई गंभीर सवाल खड़े करता है। क्या पुलिस ने जेएनयू के छात्रों के ख़िलाफ़ ठोस सबूत के अभाव में राजद्रोह का केस दर्ज किया था? पुलिस के रवैये पर ऐसे ही सवाल तब भी उठे थे जब दिल्ली पुलिस ने कन्हैया कुमार और दूसरों पर राजद्रोह का मुक़दमा शुरू करने से पहले इसके लिए अनिवार्य अनुमति दिल्ली सरकार से नहीं ली थी। क़ानून का रखवाला मानी जाने वाली दिल्ली पुलिस ने आख़िर क्यों ख़ुद क़ानून का पालन नहीं किया? 

कोर्ट में जब दिल्ली पुलिस ने चार्जशीट पेश की थी तब यह सवाल भी उठा था कि क्या वह अपनी किरकिरी कराना चाहती थी या जानबूझ कर यह मामला गिरा देना चाहती थी? इसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि क्या पुलिस पर कोई बाहरी दबाव है जिसके तहत वह बग़ैर तैयारी के ही मामले को हर जगह लेकर जा रही है? 

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दिल्ली सरकार ने भी कराई थी जाँच

दिल्ली सरकार ने साल 2016 में ही इस पूरे मामले की जाँच मजिस्ट्रेट से कराई थी। दिल्ली के ज़िला मजिस्ट्रेट संजय कुमार की जाँच में कन्हैया कुमार या किसी और के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं पाया गया था। जाँच में यह पाया गया था कि कुछ लोगों ने विश्वविद्यालय परिसर में नारेबाज़ी की थी। पर वे लोग कौन थे और कहाँ रहते थे, यह पता नहीं चल सका था। मजिस्ट्रेट जाँच में यह भी कहा गया था कि उन लोगों के बारे में पता लगाया जाए और उनकी भूमिका की जाँच हो।

‘कन्हैया के ख़िलाफ़ सबूत नहीं’

मजिस्ट्रेट जाँच की रिपोर्ट में कहा गया था कि कन्हैया के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिला। उनके ख़िलाफ़ न तो कोई वीडियो मिला और न ही कोई प्रत्यक्षदर्शी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि जो सात वीडियो दिए गए थे, उनकी जाँच हैदराबाद स्थित फ़ोरेंसिक प्रयोगशाला में कराई गई। सात में से एक वीडियो के साथ छेड़छाड़ की गई। यह वह वीडियो है, जिसे एक न्यूज़ चैनल ने दिखाया था। इसमें बाहर से एक ऑडियो क्लिप डाल दी गई थी।

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ज़िला मजिस्ट्रेट संजय कुमार ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि उमर ख़ालिद को वीडियो में देखा गया है। आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु के प्रति उनका समर्थन और सहानुभूति सबको पता है। उनकी भूमिका की जाँच अलग से हो। मजिस्ट्रेट जाँच रिपोर्ट में जेएनयू के एक सुरक्षा गार्ड की कही बात को भी शामिल किया गया। उस गार्ड ने कहा था कि उमर ख़ालिद, अनिर्वाण भट्ट्चार्य और आशुतोष कुमार ने 'शायद' नारे लगाए थे। कश्मीरी मूल के कई छात्र मुँह पर कपड़े लपेटे नारे लगाते हुए पाए गए। वे कौन थे, यह पता नहीं लगा है, उनकी भूमिका की जाँच हो। 

इस मजिस्ट्रेट जाँच से यह लगता है कि मुक़दमा चलाने के लिए अनुमित नहीं देने के मुद्दे पर दिल्ली सरकार अपनी जगह ठीक है। वह कह सकती है कि उसकी जाँच में कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं मिला तो वह मुक़दमे की अनुमित कैसे दे। दिल्ली सरकार का जो भी रुख हो, अदालत ही साक्ष्यों के आधार पर अब यह तय करेगी कि कन्हैया और दूसरे छात्रों के खि़लाफ़ राजद्रोह का मुक़दमा चलेगा या नहीं।

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क़मर वहीद नक़वी

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