भारत में जब भी सांप्रदायिकता की बात चलती है तो उसका आशय हिन्दू-मुस्लिम सम्बंधों में आपसी द्वेष एवं घृणा से ही लिया जाता है। यदि सांप्रदायिक समस्या के समाधान की भी बात की जाती है तो भी हिन्दू मुस्लिम विरोध को समाप्त करने का ही आशय होता है। असल में भारत में सम्प्रदाय का तात्पर्य हिन्दू, मुस्लिम धर्म विभाजन से ही है जो 14-15 अगस्त 1947 के भारत-पाक विभाजन से प्रत्यक्षत: जुड़ा हुआ है।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है और इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। इसे राजनीति में घुसाना नहीं चाहिए क्योंकि यह समस्त भारतीय जनों को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें। इतिहास के पन्नों में ऐसे अनगिनत मुस्लिम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम दर्ज हैं जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दू स्वातंत्र्य योद्धाओं के साथ मिलकर अपना बहुमूल्य योगदान दिया।
उमर सुभानी जो कि बंबई के एक करोड़पति उद्योगपति थे, उन्होंने गांधी और कांग्रेस स्वतंत्रता संघर्ष के लिए धन प्रदान किया था और अंततः स्वतंत्रता आंदोलन में अपने को कुर्बान कर दिया। मुसलमान महिलाओं में हजरत महल, असगरी बेगम, बाई अम्मा ने ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता के संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया। खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गांधी के रूप में प्रसिद्ध) एक महान राष्ट्रवादी थे जिन्होंने अपने 95 वर्ष के जीवन में से 45 वर्ष जेल में बिताये। अफ़सोस आज हमें अपने शहीदों की कुर्बानी बिलकुल भी याद नहीं आती है...!
1919 के जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का प्रचार शुरू किया। इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए।
भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन ने सांप्रदायिक दंगों पर अपने विचार प्रस्तुत किये थे। शहीद भगतसिंह और उनके साथियों का वो वक्तव्य जो जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा था उसके कुछ अंश यहाँ उद्धृत हैं-
“इन धर्मों ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नज़रों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाक़ी सब के सब अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाक़ी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों' पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है। यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता' और ‘स्वराज्य-स्वराज्य' के दम मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, ज़मीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे लोग जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अख़बार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। ये लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए कि स्थानीय अख़बारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे। ऐसे लेखक बहुत कम हैं जिनका दिल व दिमाग़ ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो। अख़बारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्रता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन आ गया है कि स्वराज्य एक सपना मात्र बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर चुकी है कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये।' हमारे यहाँ कोई ऐसा क़ानून नहीं है जो किसी घटना के घटने से पहले उसे रोकता हो या दंडित करता हो। यहाँ घटना हो जाने पर ही क़ानून काम करना प्रारम्भ करता है।
दरअसल, भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी ख़राब है कि एक व्यक्ति दूसरे को बहुत छोटी धन राशि देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस नहीं लेना चाहिए। लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है। जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं, वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूतम पैजार करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ, वहाँ नक्शा ही बदल गया। फिर वहाँ कभी दंगे नहीं हुए।
धर्म, जाति और लिंग सम्बंधी श्रेष्ठता की मानसिकता भी बहुत कुछ हमारी साम्प्रदायिक भावना को उभारने के लिए उत्तरदायी है। श्रेष्ठता की मानसिकता दूसरे के महत्व को स्वीकार करने की गुंजाइश समाप्त कर देती है और जब तथाकथित श्रेष्ठ तबक़े के अंह को कहीं ठेस पहुँचती है तो वह साम्प्रदायिकता पर उतर आता है। यह एक सामंती मनोवृत्ति है जो समानता की भावना के विपरीत है। कई धर्म हैं।
समकालीन दुनिया में ये सब समानान्तर सक्रिय हैं। इन सब में स्वर्ग की कल्पना समान रूप से मौजूद है। बौद्ध धर्म को छोड़ कर लगभग सब में ईश्वर की धारणा भी मौजूद है। लेकिन ईश्वर, देवी-देवता, स्वर्ग और कर्म-काण्ड की धारणाएँ तथा विधियाँ सबकी अलग-अलग हैं। ये धर्म जिन भौगोलिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों से जन्मे हैं, उनसे प्रतिमाएँ, कल्पनाएँ, मूल्य, विश्वास और रीति-रिवाज़ लेकर आए हैं। उदाहरण के लिए विश्व की उत्पत्ति से सम्बन्धित धारणा को लीजिए। वेदों में उत्पत्ति की कई धारणाएँ हैं। कहीं जल को मूल तत्व माना गया। कहीं अण्ड को और कहीं ब्रह्म या फिर आत्मा को।पौराणिक काल से उपनिषदों वाले निराकार ब्रह्म की जगह निश्चित रूप-रेखा वाले ब्रह्मा विश्व के जनक बन जाते हैं। बुद्ध के अनुसार संसार की उत्पत्ति अविद्या से हुई। बाइबिल में ईश्वर ने गिन कर सात दिनों में सारे विश्व की रचना की। यह एक उदाहरण इस तथ्य का प्रमाण देने के लिए काफी है कि सारे धर्म, धारणाओं, विश्वासों और कर्म-काण्डों का अलग ढाँचा रखते हैं और एक ही धर्म के भिन्न सम्प्रदाय परस्पर काफी भेद रखते हैं। ये अनुभव, बुद्धि और प्रयोग की इजाज़त नहीं देते कि इनकी धारणाओं की जांच की जाए और विज्ञान की तरह किसी सार्वभौम निष्कर्ष पर पहुंचा जाए। ये अपने अनुयायियों से अपने-अपने मत को उसी रूप में स्वीकार करने का आग्रह करते हैं। तब स्वाभाविक है कि एक धर्म दूसरे धर्म की भिन्न धारणाओं के प्रति सन्देह, उपेक्षा और निषेध का रुख अपनाएगा। इस तरह धर्म परस्पर एकांगीपन, संकीर्णता और इस हद तक साम्प्रदायिकता का दृष्टिकोण बनाए रखते हैं।”
“धर्म हजारों साल से वर्गों और वर्णों में विभाजित समाज के आध्यात्मिक कवच का काम करता आ रहा है। अभाव, दुख और पराधीनता की शिकार आम जनता के लिए वह आशा का केन्द्र-बिन्दु रहा है। जब तमाम श्रम करने के बावजूद जनता इस समाज में सुख और मुक्ति का कोई उपाय नहीं देखती और विरोधी प्राकृतिक तथा सामाजिक शक्तियों के सामने असहाय महसूस करती है, तब एक ऐसे लोक की कल्पना करने और उसमें रमने के लिए मजबूर होती है, जहाँ सुख और स्वतन्त्रता की अतिरंजित सम्भावनाएँ मौजूद हों। असहाय आदमी की सारी वंचित इच्छाएँ, सारी उम्मीदें, सारे सपने धार्मिक चेतना में केन्द्रित हो उठते हैं। इस चेतना पर किसी तरह का प्रहार जीवन की सारी वांछित इच्छाओं, उम्मीदों, विश्वासों और सपनों के केन्द्र बिन्दु पर, और इस तरह समूचे जीवन पर ही, प्रहार लगता है। यह स्थिति भारी उत्तेजना और आवेश पैदा करने के लिए काफ़ी होती है। अब अगर किसी समुदाय की धार्मिक भावना को दूसरे समुदाय के ख़िलाफ़ प्रेरित करते हुए कहा जाए कि यह तुम्हारी इच्छाओं, उम्मीदों, विश्वासों और सपनों के केन्द्र पर हमला कर रहा है तो उस समुदाय को, और इस तर्क के आधार पर दोनों समुदायों को, भावनात्मक उत्तेजना और उन्माद की उस स्थिति तक ले जाया जा सकता है, जहाँ उसे जीवन के मूल भौतिक रूप का संहार करने वाले दंगे में बदला जा सके।”
वरिष्ठ आईपीएस एवं पूर्व कुलपति महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, विभूति नारायण राय के अनुसार,
“साम्प्रदायिक दंगों के बारे में सोचते समय भारत में बहुसंख्यक समुदाय तथ्यों को ओझल किये रहता है और उसका मन दो पूर्वाग्रहों में ग्रस्त रहता है। औसत हिन्दू यह मान कर चलता है कि दंगों की शुरुआत मुसलमान करते हैं और उनमें मरने वालों में ज़्यादा हिन्दू होते हैं। दंगों की शुरुआत के बारे में बहस की गुंजाइश है लेकिन मरने वालों की तादाद के बारे में तो क़तई नहीं। मरने वालों में न सिर्फ मुसलमानों की संख्या लगभग हर दंगे में ज़्यादा होती है, बल्कि आधे से ज़्यादा दंगों में तो यह संख्या 90 प्रतिशत से भी अधिक होती है। दंगों की शुरुआत वाले मुद्दे पर बात करने के पहले हम मरने वालों की संख्या की पड़ताल करेंगे।
1960 के बाद हमारे देश में जो साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं, उनका चरित्र सन् 47 के आसपास हुए विभाजन से सम्बन्धित दंगों के चरित्र से भिन्न हैं। 1960 तक विभाजन से उत्पन्न कारण लगभग समाप्त हो चुके थे और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से भागकर आने वाले हिन्दुओं के मुँह से सुनी हुई ज़्यादतियों की प्रतिक्रिया में होने वाले कुछ दंगों को छोड़ दें तो लगभग अधिकतर दंगों के कारण विभाजन की स्मृति से एकदम परे हटकर थे। ये विभाजन के फौरन बाद क्षीण हुए मुस्लिम और हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों के पुनर्संगठित होने और राजनीतिक हितों के लिये दंगे कराने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ही हुए। सरकारी आँकड़ों से यह प्रकट होता है कि सभी दंगों में मारे गये लोगों में तीन चौथाई मुसलमान होतें हैं, नष्ट हुयी सम्पत्तॢ में भी लगभग 75 प्रतिशत मुसलमानों की होती है। यही नहीं, दंगों के लिये गिरफ्तार किये जाने वाले लोगों में भी मुसलमानों की ही संख्या ज़्यादा होती है- अविश्वसनीय हद तक ज़्यादा।
आइए, हम बड़े-बड़े पाँच-छह दंगों में मारे गए लोगों की संख्या की पड़ताल करें। 1960 के बाद का सबसे बड़ा दंगा अहमदाबाद में हुआ। राज्य सरकार ने न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी के जाँच आयोग को अहमदाबाद के दंगों के बारे में जो आँकडे दिये उनके मुताबिक़ इस दंगे में 6742 मकान दुकान जलाई गयीं। इनमें सिर्फ 671 हिन्दुओं की थीं बाक़ी 6071 मुसलमानों की नष्ट हुई। कुल सम्पत्ति का मूल्य 42324068 रु. था, जिसमें हिन्दू सम्पत्ति 7585845 रु. की थी तो मुस्लिम सम्पत्ति 34738224 रु. की। 512 मृतकों में 24 हिन्दू थे तो 413 मुसलमान। बाक़ी 75 की शिनाख्त नहीं हो सकी। इसके बाद का सबसे बड़ा दंगा 1970 में भिवंडी में हुआ। इसमें 78 लोग मारे गये। इनमें 17 हिन्दू थे तो 59 मुसलमान, बाक़ी दो की शिनाख्त नहीं हो सकी। भिवंडी दंगे की जांच के लिए नियुक्त न्यायमूर्ति डी. वी. मेनन जाँच आयोग के सामने जो बयान दिये गये, उनसे यह प्रकट हुआ कि इस दंगे में 6 मुसलमान औरतों के साथ बलात्कार हुआ जबकि एक भी हिन्दू औरत बलात्कार की शिकार नहीं हुई। भिवंडी के दंगों के परिणामस्वरूप हुए जलगांव के दंगे में 43 लोग मारे गये, जिनमें एक हिन्दू था, बाकी के 42 मुसलमान। नष्ट हुई कुल सम्पत्ति में 3390977 रु. मूल्य की सम्पत्ति मुसलमानों की थी तो सिर्फ़ 83725 रु. मूल्य की हिन्दुओं की।
1967 में रांची-हटिया और नौशेरा में हुए दंगों में मृतकों की कुल संख्या 184 थी। जिनमें 164 मुसलमान थे तो 19 हिन्दू, एक की शिनाख्त नहीं हो सकी।‘ उपरोक्त तथ्यों मद्देनजर हम देखते हैं कि ये सारे के सारे दंगे कांग्रेस के शासनकाल में हुए और हम उन्हें सेक्युलर दल के रूप में मान्यता प्रदान कर रहे हैं।
लेकिन बहुसंख्यक समुदाय की यह धारणा, कि दंगों में मरने वालों में अधिकतर हिन्दू होते हैं, इतनी गहरी है कि तमाम सरकारी आंकड़ों के बावजूद औसत हिन्दू इस बात को नहीं मानेगा कि वास्तव में दंगों में हिन्दू ज़्यादा आक्रामक होते हैं। इस न मानने की बात को अगर गहराई से देखा जाय तो पता चलेगा कि इसके पीछे बचपन की धारणाएँ काम करती हैं। बचपन से हर हिन्दू घर में बच्चे को यह सिखाया जाता है कि मुसलमान क्रूर होते हैं और वे किसी की भी जान लेने में नहीं हिचकते। इसके विपरीत हिन्दू तो बड़े कोमल हृदय का होता है और उसके लिये चींटी की भी जान लेना मुश्किल होता है। अक्सर आपको यह कहते हुए कोई हिन्दू मिलेगा कि अरे साहब! हिन्दू घर में तो आपको सब्जी काटने की छूरी के अलावा कोई हथियार नहीं मिलेगा। यह हिन्दू प्रकारान्तर से यह मानता और कह रहा होता है कि आमतौर पर मुसलमान अपने घरों में हथियारों का जखीरा रखते हैं।” लेकिन इन दिनों वस्तुस्थिति उलट है।
1984 के हिंदू-सिख दंगे हों, गुजरात में सन 2002 का अभूतपूर्व सांप्रदायिक नरसंहार हो, मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगे हों या हाल ही के दिल्ली दंगे हों, सभी की कमोबेश यही कहानी है।
दुर्भाग्य से हमारे कुछ बुद्धिवादियों के पास साम्प्रदायिकता एक ऐसा बॉन्ड है जिसे वे कभी भी और कहीं भी भुना सकते हैं। साम्प्रदायिकता पर उनका इतना विशद अध्ययन है कि अब उनसे कोफ़्त होने लगी है। क्योंकि पूरे भारतीय समाज की हर समस्या को वे साम्प्रदायिकता से कमतर आँकते हैं। यह भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है। एक बार हमारे अग्रज कथाकार स्वयंप्रकाश की एक कहानी पढ़कर मैंने यह टिपण्णी कर दी थी कि कुछ लोगों को भारत में साम्प्रदायिकता के अतिरिक्त कोई और समस्या ही नहीं दिखती जिससे वे इतने उद्वेलित हो गए कि मेरे ख़िलाफ़ एक पत्रिका में तीखी टिप्पणी तो की ही जो कोई विशेष बात नहीं थी पर जीवनपर्यंत वे मुझसे खफा रहे।
किसी भी समस्या के पीछे कार्य कारण सम्बन्ध होता है जो सम्पूर्णता में एक वस्तुगत विश्लेषण की दरकार रखता है, तभी हम सही नतीजे पर पहुँच सकते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अपनी आलोचना नहीं सुन सकते। यह भी हम जानते हैं कि भारत की संघीय सरकारों ने पिछले सात दशकों में साम्प्रदायिक सौहार्द को बचाने के बजाय इसकी खाई को अधिक चौड़ा ही किया है। संविधान में स्पष्ट लिखा गया है कि किसी भी धार्मिक संगठन को सांस्कृतिक और शैक्षणिक कार्यों के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता उभारने की अनुमति नहीं दी जायगी। पर हम बराबर देखते रहे हैं कि साम्प्रदायिकता हमेशा ही उभारी गयी है और संविधान को ताक पर रख दिया गया है। यहां राजनीतिज्ञों ने अल्पसंख्यक समुदाय को सदैव वोट बैंक के रूप में देखा है। उनमें सामाजिक बोध और वैज्ञानिक चेतना को विकसित न करके नितांत रूढ़िवादी और संकीर्णता के दायरे में कैद रहने देने में ही अपने स्वार्थ की पूर्ति की है।
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