लंबे संघर्षों के बाद आख़िरकार कामगारों के 8 घंटा काम के जिस अधिकार को 'अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ (आईएलओ) ने 1919 में मान्यता दी थी, ठीक एक सदी बाद क्या इस तरह अपनी आँखों के सामने उन्हें 'उड़नछू' हो जाते वह देखता रहेगा? भारतीय ट्रेड यूनियन परिसंघ के सूत्रों की मानें तो आईएलओ बहुत जल्द भारत को 'कारण बताओ नोटिस' जारी करने जा रहा है। अपने सख़्त एतराज़ में मज़दूर परिसंघ ने श्रमिकों के ‘अंतरराष्ट्रीय संगठन’ से इस मामले में कार्रवाई की माँग की है। ‘वे (आईएलओ) भारत पर प्रतिबन्ध भी लगा सकते हैं।’
अभी तक इस मामले में भले ही 6 राज्य सरकारों ने अपनी 'स्मार्टनेस' दिखाई हो लेकिन परिसंघ यानी कन्फडरेशन को शुबहा है कि जल्द ही ये 'महामारी' अन्य राज्यों में भी फैलने वाली है। यही वजह है कि वे इस पर तुरंत रोकथाम चाहते हैं।
कोरोना को ब्रह्मास्त्र बनाकर जिस तरह 6 राज्य सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत कामगारों के ट्रेड यूनियन अधिकारों को गड़प कर लिया उसकी प्रतिक्रिया भारत में तो क्या अच्छी होती, विदेशों में भी उसे 'तिरछी' नज़रों से देखा जा रहा है। चीन, ईरान और यूरोपीय देशों सहित अमेरिका तक में कोविड-19 की प्रचंड आँधी और लॉकडाउन के बावजूद श्रमिकों के प्रति सरकारों का रवैया हमदर्दी भरा रहा है। इस मामले में भारत अकेला अपवाद है। इस अपवाद के पीछे जो वजह बतायी गई है वह भी कम बेतुकी नहीं है।
दरअसल अप्रैल के दूसरे हफ़्ते से ही देश के मीडिया के बड़े हिस्से में यह हवा फैलाई जाने लगी कि चीन से विस्थापित होकर अन्यत्र बस जाने का ठिकाना ढूंढने वाली ढेर सारी अंतरराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत में बेताबी के साथ अपनी सरज़मीं तलाश रही हैं।
एक के बाद एक कई छुटभैये 'नामचीन उद्योगपतियों' के हवाले से भी इस बात का प्रचार शुरू किया गया। बीजेपी के कतिपय ऐसे नेता, जो कभी भी, कहीं भी, कुछ भी कह देने के लिए आमादा रहते हैं, 'भर दो झोली मेरी या मोहम्मद’ का राग अलापते रहे। ‘राग मोहम्मदी’ में इस बात का भी ताबड़तोड़ ज्ञान परोसा गया कि आईटी और ऑटोमोबाइल क्षेत्र में कार्यरत ऐसी अंतरराष्ट्रीय कम्पनियाँ (जिन पर छोटे कलपुर्ज़ों की खातिर भारतीय निर्माताओं की निर्भरता रही है) यदि चीन से उठकर भारत में स्थापित होती हैं तो इससे न सिर्फ़ लागत मूल्यों में कमी आएगी बल्कि अंतरराष्ट्रीय निर्यात बाज़ार में उनकी आमदनी में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा होगा जिससे भारतीय युवाओं के लिये नए रोज़गारों का सृजन होगा!
वुहान (चीन) में शांति स्थापित होने, जनजीवन लौटने और उद्योगधंधों के दोबारा रफ़्तार पकड़ लेने के बाद कंपनियों के विस्थापन की ज़्यादातर चर्चाएँ ठंडी हो गयीं लेकिन भारत के मीडिया में कोरोना वरदान स्वरूप चीन से टूट कर गिरने वाले इस छींके (!) का पुरज़ोर प्रचार चालू रहा। किसी के पास इस बात की दमदार दलील नहीं थी कि आख़िर कौन-कौन सी कंपनियाँ चीन से अपना बोरिया-बिस्तर बाँध रही हैं और अगर बाँध रही हैं तो वियतनाम और ताइवान जाने की उनकी 'आसान राह' में कौन रोड़े अटका लेगा?
बहरहाल, बीजेपी के चिरपरिचित मीडिया अभियान ने पूरे अप्रैल माह में जब चीन से मिलने वाले इस कोरोना गिफ़्ट का शंखनाद कर लिया तो अप्रैल के पहले हफ़्ते में ही श्रमिक क़ानूनों पर गड़ासे चलने शुरू हो गए। वस्तुस्थिति यह है चीन में 80 से 90 प्रतिशत उद्योगों की बहाली हो गई है। चीन से बेदखल होकर अन्यत्र बसने वाली कंपनियों की वजह भी कोरोना वायरस नहीं था जैसा कि हमारे यहाँ प्रचारित किया गया। ये दरअसल वे कंपनियाँ थीं, जो ट्रंप प्रशासन द्वारा आयातित सामानों पर बढ़ाये जाने वाले टैक्स से आक्रांत थीं। 10 से 20 प्रतिशत विस्थापित हुईं कंपनियों में 13 फ़ीसदी वियतनाम पहुँच गईं और बाक़ी का बड़ा हिस्सा ताइवान में अपनी जड़ें तलाशने में जुट गया। वहाँ उद्योग 'फ्रेंडली' क़ानून इसकी अकेली वजह हों ऐसी बात नहीं है। सरकारी मशीनरी का अड़ंगे न डालने का रवैया भी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को बेहद आकर्षित करता है।
तब क्या भारतीय मीडिया इन सारे तथ्यों से अनिभिज्ञ था? क्या छुटभैये पूंजीपति अज्ञानतावश पुकार लगा रहे थे? वे सब दरअसल एक सुविचारित रणनीति के तहत थोथा पहाड़ खड़ा कर रहे थे जिस पर चढ़ा कर उस भारतीय कामगार को हलाल किया जा सके जो पहले ही हाथ-पैर से लुंज-पुंज है। इस सारे खेल से पीएमओ अनजान रहा होगा, ऐसा मानने का कोई औचित्य नहीं। 6 मई को प्रमुख ट्रेड यूनियन नेताओं के साथ अपनी वीडियो कॉन्फ्रेंस में केंद्रीय श्रम एवं रोज़गार मंत्री संतोष गंगवार ने आश्वासन दिया था कि ‘अध्यादेश’ के ज़रिये किसी प्रकार के श्रमिक क़ानूनों में सुधार का प्रस्ताव नहीं लाया जायेगा। केंद्रीय मंत्री के बयान से एक दिन पहले मध्य प्रदेश अपना खेल खेल चुका था और उनके बयान के एक दिन बाद यूपी ने अपनी गेंद डाल दी।
ओडिशा की नवीन पटनायक सरकार को भले ही बीजेपी की 'बी' टीम मान लिया जाए, लेकिन इस क़साईबाड़े में ख़ंजर लेकर महाराष्ट्र कैसे कूद गया, इसका जवाब न सोनिया गाँधी के पास है न राहुल गाँधी के पास।
बहरहाल, अब गेंद जिसके भी हाथ में हो, रेफ़री की भूमिका में आईएलओ को उतरना पड़ेगा। भारत सन 1922 से इसकी 'स्थायी गवर्निंग बॉडी' का सदस्य है। भारतीय संसद उसके जिन अहम श्रेणी में आने वाले संधिपत्रों (कन्वेंशन) का सत्यापन (रेटीफाई) कर चुकी है उनमें 8 घंटे के काम का अधिकार और औद्योगिक विवाद को त्रिपक्षीय वार्ता के ज़रिये हल करने जैसे संधिपत्र भी शामिल हैं। मौजूदा हमले में ये 6 राज्य इन दोनों ही 'कन्वेंशन' को घोंटा बनाकर पी गए हैं। 8 घंटे का काम का अधिकार आईएलओ का मूल संधिपत्र है।
सारी दुनिया के लाखों मज़दूरों के गाढ़े ख़ून में रंगा है यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद के डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास। किसने कल्पना की होगी कि 1856 में ऑस्ट्रेलिया के नए-नए ‘तेजस्वी मेलबॉर्न' शहर के निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के रक्तरंजित संघर्ष आगे चलकर अपने विजय ध्वज की धमक से सारी दुनिया के कामगारों के लिए काम के 48 घंटे के (छ दिवसीय) सप्ताह के दरवाज़े खोलेंगे। अपने लहू में समूचे शिकागो की धरती को डुबा देने वाले श्रमिकों के लिए कल्पनातीत था यह मानना कि उसके रक्त की धार अगले 5 वर्ष में संपूर्ण अमेरिका के मज़दूरों को ऐसा गोलबंद करेगी कि राष्ट्रपति यूलिसिस ग्रांट को ‘8 घंटे की कामगारी’ की घोषणा को मजबूर होना पड़ेगा। इंग्लैण्ड, स्पेन, फ़्रांस, बेल्जियम, उरुग्वे, कनाडा, न्यूज़ीलैंड.....। उन्नीसवीं सदी मज़दूरों के लहू से रंगी पड़ी है और इसी लहू की धार में डूबते-उतराते उसने हासिल किये हैं 8 घंटे की कामगारी के शानदार तमगे, अगली सदी में (अपनी स्थापना के साथ) आईएलओ ने जिस पर पुख्तगी की अपनी मुहर चस्पां की थी। आज जब भारत की 6 रियासतों के बेपरवाह बादशाह उसी मुहर को खरोंच डालना चाहते हैं तो जेनेवा का हस्तक्षेप अवश्यम्भावी है। वह ज़रूर उलट कर पूछेगा- श्रीमान, कामगारों के आठ घंटे के अधिकार के रक्त में तो नहीं सने हैं आपके हाथ?
जेनेवा की बात तो दूर की कौड़ी है, अभी तो दिल्ली ही जवाबदेह है। पेश किये जाने पर राष्ट्रपति के लिए भी यह सवाल 'लाख टके' का बना रहेगा कि आईएलओ 'कन्वेंशन' के पार्लियामेंट द्वारा 'रेटीफाई' किये गए क़ानूनों को राज्य सरकारों के 'अध्यादेश' के माध्यम से निरस्त करना, क़ानून सम्मत हो सकता है या नहीं?
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