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वित्तमंत्री के पास है जूते का सुलोचन?

आगरा शहर से बाहर, ग्वालियर रोड पर अपनी माइक्रो यूनिट चलाने वाले युवा कमलदीप कहते हैं “हम तीन महीने से तहस नहस हुए पड़े हैं। हम तो प्रधानमंत्री से राहत की उम्मीद लगाए बैठे थे और वित्तमंत्री 'लोन' की बात करती हैं। 'लोन' भी उन्हीं को मिलेगा जो एमएसएमई में 3 साल पहले से रजिस्टर्ड हैं। हमें तो मिलने से रहा। 'लोन' भी 5 फ़ीसदी को ही मिल सकेगा।”
अनिल शुक्ल

नज़ीर अहमद बेचैन हैं। उनके भीतर यह सवाल उमड़-घुमड़ रहा है कि प्रधानमंत्री के लॉकडाउन राहत कोष से दी जाने वाली भामाशाही रहमतें, औद्योगिक अस्पताल के बाहरी बरामदे के टूटे-फूटे बेड पर लेटे उनके फ़ुटवियर उद्योग के लिए 'वेंटिलेटर' का इंतज़ाम कर पाएँगी? नज़ीर अहमद देश के बड़े जूता निर्यातकों में एक हैं और पिछले 40 साल से फ़ुटवियर के अंतरराष्ट्रीय उद्योग में जूझ रहे हैं। उन्होंने ‘मंदी’ और ‘तेज़ी’ के अनेक मौसम देखे हैं लेकिन उनकी कमर इस बार जैसी कभी नहीं टूटी। यह पूछने पर कि वित्तमंत्री की राहत घोषणाओं में जूता उद्योग को क्या मिल रहा है, वह कहते हैं ‘उन्होंने मेज़ पर नक़्शा फैला दिया है। अब आप खज़ाना ढूंढ सकते हैं तो ढूँढिए!’ यह पूछने पर कि क्या उन्हें या उनके दोस्तों के हाथ खज़ाना लगा, झुंझला कर जवाब देते हैं ‘अभी तक तो नहीं।’ 

नज़ीर अहमद का जो हाल है, चेन्नई, कानपुर, कोलकाता और आगरा में जूता उद्योग से जुड़े दूसरे सभी छोटे-बड़े उद्योगपतियों का भी यही हाल है। देश का समूचा घरेलू और निर्यातित जूता उद्योग मुख्यतः इन्हीं 4 शहरों में केंद्रित है। यूँ तो कोविड-19 ने देश के सभी उद्योग धंधों पर ग़ाज़ गिराई है लेकिन फ़ुटवियर उद्योग को इसने सिरे से ठिकाने लगा दिया है।

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साल 2019 के दिसम्बर महीने के अंतिम सप्ताह में आगरा के जूता कारोबार के प्रमुख निर्माताओं के साथ 'सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग (एमएसएमई)' मंत्रालय के अधिकारियों की एक अनौपचारिक 'गेट टुगेदर'  में इस बात की उम्मीद बंधाई गयी थी कि आने वाले 2020 के साल में जूता उद्योग 9 बिलियन यूएस डॉलर का एक्सपोर्ट कर लेगा। जनवरी की शुरुआत ने ही उनके होश उड़ाने शुरू कर दिए और अगले 3 महीने व्यापार में पूरे तौर पर उनके तबाहकुंद हो जाने की कहानी साबित हुए।

चीन, जो उनसे ऊपर की पायदान पर बैठ सारी दुनिया को तैयार फ़ुटवियर निर्यातक करने वाला सबसे बड़ा देश था (जूता निर्माण में इस्तेमाल होने वाली सामग्रियों का भी सर्वाधिक आयात भारत उसी से करता था) इटली, स्पेन, इंग्लैंड और अमेरिका (भारत के तैयार माल के निर्यात की सबसे बड़ी मंडी)- कोरोना सबको निगल गया था।

वस्तुतः जूता उद्योग देश के उन गिने-चुने धरोहर उद्योगों में से एक है जो निर्यात के क्षेत्र में सबसे अगली कतार में है।

मुग़लों के ज़माने में आगरा जूता निर्माण की प्रमुख कार्यशाला थी जहाँ से देश भर में फैली मुग़ल फ़ौज के लिए जूते सप्लाई होते थे। मध्यकाल में भारत मध्य एशिया से लेकर अफ्रीका तक तैयार जूता सप्लाई करने वाला सबसे बड़ा देश था। यह परंपरागत पद्धति पर चलने वाला उद्योग था और इसमें कार्यरत श्रमिक और फ़ैक्ट्री मालिक पीढ़ी दर पीढ़ी इस क़ारोबार से जुड़कर अपनी आजीविका चला रहे थे। सन 1857 में देश में आधुनिक टेनरी (कच्ची खाल से पक्का चमड़ा बनाना) की शुरुआत आगरा से हुई। सन 1867 में ही पहली बार आधुनिक जूता निर्माण का काम शुरू किया गया। इसके बाद कोलकाता और चेन्नई में टेनरी और आधुनिक फैक्ट्रियाँ शुरू की गयीं। अंग्रेज़ों ने जूते के क़ारोबार में गहरी रूचि ली। उन्होंने न सिर्फ़ इनके निर्माण को प्रमोट किया बल्कि कालान्तर में तैयार इसकी बड़ी खेप से यूरोप के बाज़ारों को लाद दिया।

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जूते निर्यात में भारत

​इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में ही यह साफ़ ज़ाहिर हो गया कि वैश्विक स्तर पर औपचारिक (फॉर्मल) जूतों की डिमांड घट रही है। पहले दशक में यह 50% पर उतर आया तो अनौपचारिक (कैज़ुअल) फु़ुटवियर उचक कर 40% पर पहुँच गया और स्पोर्ट्स शू के खाते में 10% रहा। इस दौरान वियतनाम और इंडोनेशिया अपनी क्षमता पूरी कर चुके थे। बांग्लादेश अभी बहुत पीछे था। भारत ने फॉर्मल और कैज़ुअल-दोनों क्षेत्रो में लम्बी छलांग मारी। 'वर्ल्ड फ़ुटवियर ईयरबुक' के मुताबिक़ सन 2017 में भारत ने अमेरिका को खदेड़ कर निर्यातकर्ता देशों में दूसरे नंबर का ख़िताब हासिल कर लिया। उसने 5% व्यापार की दिशा बदल कर अपने पक्ष में की और इस तरह 1.5 अरब डॉलर का अतिरिक्त नफ़ा और (10.2% का वैश्विक निर्यात) हासिल किया।

चीन यद्यपि अभी पहले नम्बर पर था और भारत की तुलना में उसका फ़ासला काफ़ी लंबा (57.5%) था लेकिन भारत ने रिकॉर्ड 24 लाख जोड़ी जूतों का निर्यात करके एक नया कीर्तिमान हासिल किया।

इन सालों में भारत ने न सिर्फ़ घरेलू बाजार में अपने ब्रांडों (रेड टेप, बाटा, ख़ादिम, लिबर्टी, लखानी, मैट्रो, एक्शन आदि) की रिकॉर्ड बिक्री से धूम मचाई बल्कि विश्व के लोकप्रिय ब्रांडों (एल्डो, बेली, क्लार्क्स, फ़ेरेगमो, हश पपीज़, ली कॉपर, मार्क्स एन्ड स्पेन्सर, नाइक, नाइन वेस्ट, रीबॉक, रॉकपॉर्ट, स्टेसी एडम्स, टॉएड्स, जिओक्स, लुइस वीटोन आदि) का बहुतायत निर्माण करके दुनिया के निर्माताओं के बीच अपनी साख बढ़ाई। जूता उद्योग पिछले 4 सालों से प्रधानमंत्री के 'मेक इन इंडिया' कार्यक्रम के मुख्य 'फ़ोकस सेक्टर' में शामिल था। यद्यपि सन 2017-2018 में जूतों का निर्यात 0.05% घटा लेकिन 2018-2019 में इसने फिर 2-3% की बढ़ोतरी की जो कुल चमड़ा उद्योग निर्यात का 38.57% था। 'आगरा फ़ुटवियर मैन्यूफ़ैक्चरिंग एंड एक्सपोर्टर चैम्बर' (AFMEC) के मुताबिक़ गत वर्ष अकेले आगरा से 4000 करोड़ रुपये का निर्यात किया गया है। फ़ुटवियर की दुनिया में अमेरिकी एक्सपोर्ट जिस तरह पीछे खिसक रहा था, इसी के चलते निर्यातकों और सरकार दोनों को भरोसा था कि 2020 जूता उद्योग के लिए ‘बूम’ साबित होगा।

​भारत सरकार की 'लेदर एक्सपोर्ट काउंसिल' की दलील थी कि चीन और अमेरिका जैसे देशों की तुलना में भारत का ज़ोर निर्यात के मुक़ाबले घरेलू उत्पादन पर ज़्यादा है, यही वजह है कि इस मामले में वह चीन से काफ़ी पिछड़ जाता है। हालाँकि उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि अपने बहुत बड़े घरेलू बाज़ार की ज़रूरतों को पूरा करने के बावजूद कैसे चीन निर्यात में भी सबको पीछे छोड़ जाता है। 

भारतीय उत्पादन का 95% जूता देश में ही खप जाता है। अकेला आगरा देश का 65% घरेलू उत्पादन करता है। घरेलू उद्योग का बड़ा हिस्सा कुटीर उद्योग के रूप में काम करता है। अकेले आगरा में 10 हज़ार माइक्रो साइज़ यूनिट, तो 30 मीडियम स्केल और 15 लार्ज स्केल यूनिट कार्यरत हैं जिनमें 5.5 लाख श्रमिक मज़दूरी करते हैं। देश के अन्य 3 उत्पादन केंद्रों को जोड़ लिया जाए तो सबकी संख्या लगभग चार गुनी बढ़ जाती है।

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पहले जूता श्रमिकों के 4 बड़े त्यौहार (होली, दीवाली, ईद और बक़रीद) होते थे और हर त्यौहार का मतलब था 15-20 दिन की छुट्टी और मस्ती। विभाजन के बाद आगरा, कोलकाता और कानपुर से बड़ी संख्या में मुसलिम कारख़ानेदार और जूता मज़दूरों के पाकिस्तान चले जाने के बाद उनका स्थान सिंध और पश्चिमी पंजाब से आए हिन्दू शरणार्थियों ने ले लिया। इस तरह विभाजन के बाद के जूता उद्योग में उनकी तूती बोलने लगी। स्वाभाविक है त्यौहार भी घट कर 2 ही रह गए। इस बार भी यही हुआ। आगरा, कोलकाता और कानपुर का जूता उद्योग जब तक होली के 'हैंगओवर' से उठता, लॉकडाउन की घोषणा हो गयी। जूता उद्योग से जुड़े लोगों की चिंता है कि कैसे बाहरी श्रमिकों का पलायन रोका जाए। 

छोटी इकाइयों में काम करने वाले ज़्यादातर स्थानीय श्रमिक होते हैं लेकिन एक्सपोर्ट करने वाली बड़ी यूनिटों में कुशल कामगारों का बड़ा हिस्सा बाहरी मज़दूरों का है। 3 महीने की फ़ाक़ामस्ती ने उन्हें तोड़ कर रख दिया है। अब उन्होंने पलायन शुरू कर दिया है।

नज़ीर अहमद कहते हैं ‘लम्बी-चौड़ी राहतों की बात छोड़िये, सरकार अगर 3 महीने से बंद पड़ी फ़ैक्ट्रियों का बिजली बिल ही राइट ऑफ़ (माफ़) कर देती और खाली बैठे क़ारीगरों को भुगतान का एक हिस्सा दे देती तो जूता उद्योग को उसी से साँस आ जाती।’ आगरा शहर से बाहर, ग्वालियर रोड पर अपनी माइक्रो यूनिट चलाने वाले युवा कमलदीप कहते हैं “हम तीन महीने से तहस नहस हुए पड़े हैं। हम तो प्रधानमंत्री से राहत की उम्मीद लगाए बैठे थे और वित्तमंत्री 'लोन' की बात करती हैं। 'लोन' भी उन्हीं को मिलेगा जो एमएसएमई में 3 साल पहले से रजिस्टर्ड हैं। हमें तो मिलने से रहा। 'लोन' भी 5 फ़ीसदी को ही मिल सकेगा।” मेघलाल लेदर पेस्टिंग का मज़दूर है और हर दिन 30 जोड़ी जूते निबटा कर 350 रुपये की दिहाड़ी बनाता रहा है पर इधर 3 महीनों से ख़स्ताहाल है। वित्त मंत्री के बारे में पूछने पर पेस्टिंग वाले सुलोचन (सोल्यूशन) का खाली डिब्बा ठोकते हुए उलट कर सवाल दागता है, ‘बिनके पास सुलोचन को ई इंतज़ाम ना ए, तो जूतो कए ते चिपकेगो?’

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