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अमेरिका-तालिबान समझौता: बगलें न झांके भारत

तालिबान के साथ हुए समझौते में अमेरिका ने अपने हितों की पूरी तरह से रक्षा की है लेकिन भारत के हितों का जिक्र तक नहीं है। अफग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत ने जितना पैसा लगाया है उतना दुनिया के किसी देश ने नहीं लगाया। हमारे दूतावास और जरंज-दिलाराम सड़क पर हुए हमलों में हमारे दर्जनों इंजीनियरों, राजनयिकों और मजदूरों की बलि चढ़ी है। काबुल में क्या तालिबान के काबिज होते ही भारत को वहां से भागना नहीं पड़ेगा? 
डॉ. वेद प्रताप वैदिक

तालिबान के साथ अमेरिका ने दोहा में जैसे ही समझौता किया, मैंने लिखा था कि काणी के ब्याह में सौ-सौ जोखिमें। लेकिन हमारी भारत सरकार ने उसका भरपूर स्वागत किया था। हमारे विदेश सचिव समझौते के एक दिन पहले काबुल पहुंच गए थे। वह वहां राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी और मुख्य कार्यकारी (प्रधानमंत्री) डाॅ. अब्दुल्ला से भी मिले लेकिन वहां जाकर उन्होंने किया क्या? 

हमारा विदेश मंत्रालय क्या पिछले साल भर से अफग़ानिस्तान को लेकर खर्राटे नहीं खींच रहा है? उसने यह पता क्यों नहीं लगाया कि ट्रंप के प्रतिनिधि डाॅ. जलमई खलीलजाद और तालिबान नेता अब्दुल गनी बरादर के बीच क्या बातचीत चल रही है? उनके मुद्दे क्या-क्या हैं? हमारी सरकार हमारे राजनयिकों और गुप्तचरों पर करोड़ों रुपये रोज खर्च कर रही है लेकिन वे इतनी-सी बात का भी पता नहीं लगा पाए। क्या वे डोनाल्ड ट्रंप के झांसे में आ गए? 

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ट्रंप को अपना चुनाव जीतना है, इसलिए उन्हें अमेरिकी फौज़ों को अफग़ानिस्तान से वापस बुलाना है। हम डोनाल्ड ट्रंप की हां में हां मिलाते रहे, उन्हें चुनाव जिताने के लिए अहमदाबाद और ह्यूस्टन में भीड़ जुटाकर करोड़ों रुपये उन पर खर्च करते रहे और अफग़ानिस्तान में भारत के हितों की उपेक्षा होने देते रहे। 

भारत को छोड़ना होगा अफग़ानिस्तान?

तालिबान के साथ हुए समझौते में अमेरिका ने अपने हितों की पूरी तरह से रक्षा की है लेकिन भारत के हितों का जिक्र तक नहीं है। अफग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत ने जितना पैसा लगाया है उतना दुनिया के किसी देश ने नहीं लगाया। हमारे दूतावास और जरंज-दिलाराम सड़क पर हुए हमलों में हमारे दर्जनों इंजीनियरों, राजनयिकों और मजदूरों की बलि चढ़ी है। काबुल में क्या तालिबान के काबिज होते ही भारत को वहां से भागना नहीं पड़ेगा? 

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एक नादानी भरा सुझाव यह है कि अमेरिकी फौज़ों की वापसी के बाद उस शून्य को भारत की फौज़ें भरें। भारत यह कभी नहीं करेगा। उसे यह कभी नहीं करना चाहिए। जनवरी, 1981 में प्रधानमंत्री बबरक कारमल ने रुसी फौज़ों के बदले भारतीय फौज़ों की मांग की थी। यह मांग औपचारिक रुप से आती, उसके पहले ही मैंने इसे बबरक से पहली मुलाक़ात में असंभव सिद्ध कर दिया था। अमेरिकी राजनयिक भी यही कोशिश करते रहे। अब भी करेंगे। भारत सावधान रहे, यह ज़रूरी है। 

हो सकता है कि अफग़ानिस्तान दुबारा गृहयुद्ध में फंस जाए। तालिबान की इसलामी अमीरात और काबुल सरकार में तलवारें खिंच जाएं। इस समझौते की ईंटें उखड़नी शुरू हो गई हैं। इसका फायदा पाकिस्तान को ज़रूर मिलेगा लेकिन भारत अभी भी खाली-खट है। उसके पास फिलहाल कोई भावी रणनीति है, ऐसा नहीं लगता। दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा देश बगलें झांकता रहे, यह ठीक नहीं है। 

(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)
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डॉ. वेद प्रताप वैदिक

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