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तालिबान के ख़िलाफ़ प्रदर्शन। फ़ोटो साभार: ट्विटर/मसीह अलीनेजाद/वीडियो ग्रैब

तालिबान के झूठे वादों पर यक़ीन करने वालों ने इतिहास से नहीं सीखा!

सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क़ बकवास करें तो फिर भी समझ में आता है। शकल पर ही लिखा हुआ है कि आदमी कूढ़मगज है। लेकिन मैं कल तालिबान की पहली प्रेस कॉन्‍फ्रेंस के बाद कई बेहद आधुनिक और अंग्रेजीदां लिबरलों की पोस्‍ट देख-देखकर हैरान हूँ कि कैसे वो बार-बार इस बात को कोट कर रहे हैं कि तालिबान ने कहा है कि वह महिलाओं को पढ़ने और नौकरी करने से नहीं रोकेगा। बुर्का कंपलसरी नहीं होगा, सिर्फ़ हिजाब होगा। वगैरह-वगैरह। वेस्‍टर्न मीडिया भी तालिबान की सॉफ्ट-सॉफ्ट कवरेज कर रहा है। तालिबान अब पहले की तरह नहीं रहा। अब वो औरतों पर अत्‍याचार नहीं करेगा।

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पता है दिक्‍कत कहाँ है। ये लोग 1996 से 2001 तक के अफ़ग़ानिस्‍तान को तो भूल ही गए, ये ईरान को भी भूल गए। ईरान की इस्‍लामिक क्रांति ने ऐसे ही झूठे वादे और दावे किए थे। 1979 से पहले स्‍कर्ट पहनने और फ्रेंच स्‍कूलों में पढ़ने वाली ईरान की औरतों से इस्‍लामिक सरकार ने कहा था कि उनके अधिकारों का दमन नहीं होगा। उन्‍हें घरों में कैद नहीं किया जाएगा। उन्‍हें शिक्षा और नौकरी में बराबरी की हिस्‍सेदारी मिलेगी। 

इतिहास गवाह है कि 41 साल पहले अयातुल्‍लाह खोमैनी ने ईरान की औरतों से समान अधिकारों के जितने वादे किए थे, वो सब एक-एक कर झूठ साबित हुए। कैसे सिस्‍टमैटिक तरीक़े से औरतों को पीछे ढकेला गया, बहुत बुनियादी न्‍यूनतम आज़ादी तक को ख़त्‍म किया गया।

ईरान में आज की तारीख़ में दो महिला राजदूत तो हैं, लेकिन आज भी कहीं ट्रैवल करने के लिए उन्‍हें अपने साथ वो कागज रखना पड़ता है, जो शौहर का लिखित अनुमति पत्र होता है। पति की लिखित इजाजत के बगैर ईरान की औरतें कहीं जा भी नहीं सकतीं।

एक बात और, ऐसा नहीं है कि लिबरल मर्द ये बात भूल गए हैं। दरअसल, उन्‍हें ये पता ही नहीं है। उन्‍होंने इन बातों पर कभी ग़ौर ही नहीं किया। फेमिनिस्‍ट इतिहास इन लोगों ने खुद तो कभी लिखा नहीं, जिन औरतों ने लिखा है, उनका लिखा पढ़ा भी नहीं। लिबरल मर्द फेमिनिज्‍़म की किताबें नहीं पढ़ते। फेमिनिस्‍ट हिस्‍ट्री नहीं पढ़ते। उनकी इतिहास की किताब में हम औरतों का इतिहास आख़िरी फुटनोट है। कभी ग़लती से नज़र पड़ जाए तो पड़ जाए, लेकिन अलग से वो कभी मेहनत नहीं करते यह जानने के लिए उनके महान नरेटिव के बीच औरतें कहाँ दबी-कुचली पड़ी हैं।

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इसलिए फैक्‍ट यह है कि इस समय तालिबान के झूठे वादों पर यक़ीन कर रहे और सम्‍मोहक हेडलाइन लगा रहे लिबरल लोगों और मीडिया ने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। सीखा होता तो तालिबान को शक की नज़र से देखते।

(साभार: मनीषा पांडे की फ़ेसबुक वाल से)

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मनीषा पांडेय

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