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'विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ कर क्या बीजेपी ने किया अपना ही नुक़सान?'

विद्यासागर की मूर्ति तोड़ कर बीजेपी के समर्थक कैसी वैचारिक प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं? विद्यासागर ने उनका क्या बिगाड़ा है? क्या वे विद्यासागर से इसलिए नाराज़ थे कि उन्होंने बांग्ला भाषा की वर्णलिपि में व्यापक सुधार और मानकीकरण किया? नहीं, वे विद्यासागर से नाराज़ नहीं थे। नाराज़ तो तब होते जब उनको पता होता कि विद्यासागर कौन थे। लगता तो यही है कि ‘विद्या, विवेक और संस्कार’ से शून्य बीजेपी के ये समर्थक विद्यासागर को जानते ही नहीं हैं। 
नीरेंद्र नागर

बंगाल में ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा को भी कोई तोड़ सकता है, यह कल तक अकल्पनीय था लेकिन कल बीजेपी के समर्थकों ने यह करके दिखा दिया कि बंगाल अब वाक़ई बदल रहा है। तृणमूल समर्थकों द्वारा अमित शाह के रोड शो को काले झंडे दिखाने और ‘चौकीदार चोर है’ के नारे लगाने से नाराज़ सैकड़ों बीजेपी समर्थकों ने विद्यासागर के नाम से बने एक कॉलेज में घुसकर न केवल भारी तोड़फोड़ की, बल्कि वहाँ लगी विद्यासागर की प्रतिमा को भी तोड़ दिया। स्पष्ट है, बीजेपी के ये समर्थक नहीं जानते कि विद्यासागर कौन थे और बंगाल के नवजागरण में उनकी क्या भूमिका थी।

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बंगाल में विद्यासागर का नाम बहुत ही श्रद्धा से लिया जाता है और यह अस्वाभाविक नहीं कि विद्यासागर की प्रतिमा तोड़े जाने के बाद ममता बनर्जी उसको ‘बांग्ला संस्कृति पर हमला’ बताकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रही है और हो सकता है कि आख़िरी चरण के मतदान में बीजेपी को इसका ख़म्याज़ा भुगतना पड़े। मैं ख़ुद बंगाल में 25 साल तक रहा हूँ और समझ सकता हूँ कि बंगाली भद्रमानुष आज कितने सदमे में होगा। ऐसा नहीं कि बंगाल में इससे पहले प्रतिमाएँ नहीं टूटीं। नक्सल आंदोलन के समय में गाँधीजी और दूसरे नेताओं की प्रतिमाओं पर हमले हुए थे। अभी कुछ समय पहले श्यामाप्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा पर कुछ लोगों ने काला रंग पोत दिया था। लेकिन वे घटनाएँ एक वैचारिक लड़ाई का प्रतिफल थीं। लेकिन यहाँ विद्यासागर की मूर्ति तोड़कर बीजेपी के समर्थक कैसी वैचारिक प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं? विद्यासागर ने उनका क्या बिगाड़ा है?

क्या वे विद्यासागर से इसलिए नाराज़ थे कि उन्होंने आज से डेढ़ सौ साल पहले शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए लड़कियों के लिए कई स्कूल खुलवाए? क्या वे विद्यासागर से इसलिए नाराज़ थे कि उन्होंने विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए अलग से क़ानून बनवाया?

क्या वे विद्यासागर से इसलिए नाराज़ थे कि उन्होंने बांग्ला भाषा की वर्णलिपि में व्यापक सुधार और मानकीकरण किया?

नहीं, वे विद्यासागर से नाराज़ नहीं थे। नाराज़ तो तब होते जब उनको पता होता कि विद्यासागर कौन थे। लगता तो यही है कि ‘विद्या, विवेक और संस्कार’ से शून्य बीजेपी के ये समर्थक विद्यासागर को जानते ही नहीं थे। वे बंगाल की संस्कृति को भी नहीं जानते। हो सकता है, वे गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों से आए हों।

जानिये, कौन थे विद्यासागर

पाठकों में जिन लोगों को विद्यासागर के बारे में ज़्यादा जानकारी न हो, उनको मैं संक्षेप में बता देता हूँ कि वह क्या थे और बंगाल के नवजागरण में उनका क्या योगदान था।

सन 1820 में एक ग़रीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे ईश्वरचंद्र बहुत मेधावी और अध्ययनशील थे। उनके बारे में कहा जाता है कि एक बार पिता के साथ 10 किलोमीटर लंबा सफ़र तय करते हुए उन्होंने मीलपत्थरों पर लिखे अंकों से ही अंग्रेज़ी संख्या सीख ली थी। पढ़ाई के प्रति ईश्वरचंद्र की लगन ऐसी थी कि घर में लाइट न होने के कारण वे लैंपपोस्ट के नीचे पढ़ाई किया करते थे। मेधावी होने के कारण उनको कई छात्रवृत्तियाँ मिलीं और अंततः वे संस्कृत कॉलेज में दाख़िल हुए और वहाँ उन्होंने संस्कृत व्याकरण, साहित्य आदि का अध्ययन किया। आगे चलकर वे इसी कॉलेज के प्रिंसिपल बने।

विद्यासागर ने आगे चलकर स्त्री-शिक्षा के लिए काफ़ी काम किया। कुछ और सुधारकों के साथ मिलकर उन्होंने राज्य में लड़कियों के लिए कई स्कूल खुलवाए। वे मानते थे कि शिक्षा पर सबका अधिकार है। पहले संस्कृत कॉलेज के द्वार नीची जाति के लोगों के लिए बंद थे। विद्यासागर ने ही उसमें सभी जाति के लोगों का प्रवेश चालू करवाया।

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कुरीतियों को दूर करने में योगदान

हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने में उन्होंने बहुत बड़ा योगदान किया। उनकी ख़ुद की शादी 14 साल की उम्र में हुई थी जब उनकी पत्नी की उम्र 8 वर्ष की थी। और इसी कारण वह समझते थे कि बाल विवाह किस तरह किसी स्त्री की शिक्षा में बड़ी रुकावट है। विधवाओं के पुनर्विवाह के वह प्रबल समर्थक थे और इसके लिए क़ानून बनवाने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। उन्होंने अपने बेटे को प्रेरित किया कि वह किसी विधवा से ही विवाह करे जिससे पता चलता है कि वह जो सोचते थे, उस पर अमल भी करते थे। वह बहुविवाह के भी विरोधी थे जिसके बारे में उनका कहना था कि धर्मशास्त्र बहुविवाह की अनुमति नहीं देते।

बांग्ला भाषा के वर्णलिपि में भी उन्होंने सुधार किया और उनकी लिखी पुस्तिका ‘वर्ण परिचय’ आज भी बाँग्ला शिक्षारंभ की पहली सीढ़ी मानी जाती है।

बंगाली समाज के इस महापुरुष के बारे में रवींद्रनाथ टैगोर का कहना था - ‘वह ऐसे स्वदेशी नायक थे जिनमें यूरोपीय आधुनिकता और भारतीय पारंपरिक मूल्यों - दोनों का समावेश था।

बंगभूमि के ऐसे नायक की प्रतिमा के विध्वंस ने आज मेरे जैसे अर्ध-बंगाली को भी स्तब्ध कर दिया है। सोचता हूँ, मुझे गढ़नेवाले, मुझे बनानेवाले, मेरी जन्मभूमि रहे बंगाल का भविष्य क्या वही होगा जो 2002 के बाद के गुजरात का है?

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