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अब बजेगा आयुर्वेद का डंका, भारत में बनेगा विश्व केंद्र

यदि भारत हज़ार साल तक ग़ुलाम नहीं रहता और आज़ादी के बाद उसकी उच्च-शिक्षा मातृभाषाओं में होती तो चिकित्सा-पद्धतियों में वह शायद पश्चिम को मात दे देता। यह काम हरिद्वार में आचार्य बालकृष्ण के नेतृत्व में हो रहा है। उच्च स्तरीय यांत्रिक प्रयोगशालाओं के साथ-साथ विश्व जड़ी-बूटी कोश भी तैयार किया जा रहा है। जामनगर और जयपुर के आयुर्वेद विश्वविद्यालय भी उच्च कोटि के अनुसंधान में लगे हुए हैं। 
डॉ. वेद प्रताप वैदिक

कुछ दिन पहले भारत को विश्व स्वास्थ्य संगठन का अध्यक्ष चुना ही गया था, अब उससे भी बड़ी और अच्छी ख़बर आई है। वह यह है कि यह संगठन आयुर्वेद का एक विश्व केंद्र भारत में स्थापित करेगा। इस विश्व केंद्र में अन्य पारंपरिक चिकित्सा-पद्धतियों की शाखाएँ भी खुलेंगी। इस समय देश में 5 लाख वैद्य हैं और 10 लाख एलोपेथिक डाॅक्टर हैं। लेकिन आज भी देश के लगभग 80 प्रतिशत लोगों का इलाज वैद्य, हकीम और घरेलू चिकित्सक ही करते हैं, क्योंकि देश के ग़रीब, ग्रामीण और दूरदराज के इलाक़ों में रहनेवाले लोगों के लिए मेडिकल इलाज दुर्लभ और बहुत महंगा पड़ता है।

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आजकल कोरोना के कुछ मरीज़ मित्रों ने बताया कि अस्पतालों ने उनसे एक-एक लाख रुपये रोज़ तक झटक लिये। इसके अलावा मेडिकल की पढ़ाई भी बेहद महँगी है। उसी में छात्र इतने ठगा जाते हैं कि वे उस पैसे को बाद में अपने मरीजों से कई गुना करके वसूलते हैं। इसके बावजूद डॉक्टरों की संख्या देश में बढ़ती जा रही है, इसका एक बड़ा कारण तो हमारी दिमाग़ी ग़ुलामी है और दूसरा कारण, जो कि ठीक है, वह यह कि एलोपेथी में वैज्ञानिक और यांत्रिक जाँच और तत्काल उपचार की जैसी सुविधाएँ हैं, वैसी हमारी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में नहीं हैं। 

वैसे, भारतीय आयुर्वेद का इतिहास अत्यंत समृद्ध और प्राचीन है। एलोपेथी के डॉक्टरों को 100 साल पहले तक मरीजों को बेहोश करना भी नहीं आता था। प्रथम महायुद्ध (1914-19) के सैनिकों की शल्य-चिकित्सा उन्हें रस्सियों से बंधवाकर की जाती थी जबकि भारत में दो हजार साल पहले भी रोगियों को संज्ञाहीन करने की पद्धति उपलब्ध थी। मैंने स्वयं ऐसे चित्र देखे हैं, जिनमें भारतीय वैद्य इंडोनेशियाई रोगियों की खोपड़ी खोलकर शल्य-क्रिया कर रहे हैं। 

आयुर्वेद रोग के लक्षणों की नहीं, उसके मूल कारणों की, कुछ अंगों की नहीं, पूरे शरीर की चिकित्सा करता है।

रोगी का मन भी उसके दायरे में होता है। इसीलिए आयुर्वेद औषधि के साथ-साथ आहार-विहार पर भी उतना ही ज़ोर देता है। उसमें नाड़ी-परीक्षण की इतनी ग़ज़ब की व्यवस्था है कि उसके मुक़ाबले का कोई यंत्र आज तक पश्चिमी दुनिया इजाद नहीं कर सकी है। 

यदि भारत हज़ार साल तक ग़ुलाम नहीं रहता और आज़ादी के बाद उसकी उच्च-शिक्षा मातृभाषाओं में होती तो चिकित्सा-पद्धतियों में वह शायद पश्चिम को मात दे देता। यह काम हरिद्वार में आचार्य बालकृष्ण के नेतृत्व में हो रहा है। उच्च स्तरीय यांत्रिक प्रयोगशालाओं के साथ-साथ विश्व जड़ी-बूटी कोश भी तैयार किया जा रहा है। जामनगर और जयपुर के आयुर्वेद विश्वविद्यालय भी उच्च कोटि के अनुसंधान में लगे हुए हैं। भारत में कोरोना पश्चिमी राष्ट्रों के मुक़ाबले इतना कम क्यों फैला है? उसका बड़ा श्रेय आयुर्वेद को भी है। यदि वर्तमान सरकार अपने संकल्प को साकार कर सकेगी तो निश्चय ही भारत सारे विश्व का रोग निवारण केंद्र बन सकता है।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार।)
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डॉ. वेद प्रताप वैदिक

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